Monday 21 January 2013


स्कूल तो गए .. फिर सीखे क्यूं नहीं .. ?


ऐसा नहीं है कि प्राइवेट एजूकेषन से स्टूडेंट्स का फ्यूचर अंधेरे में जा रहा है, पर सरकारी स्कूलों में केयरलेस मैनेजमेंट, मोटी तनख्वाह पर अंगड़ाइयां लेते अध्यापकों ने ऐसी नौबत ला दी है। ए.स.ई.आर. की सर्वे रिपोर्ट में बच्चे स्कूल तो उत्साह से गए हैं, पर उनके सीखने का स्तर निराष करता है ... 


स्लेट-खडि़या से उगाया हुआ शिक्षा का पौधा, वक्त की पटरी पर रगड़ता हुआ, आज डिजिटल डायरी और ई-क्लासरूम्स तक जा पहुंचा है। आज से दो दशक पहले की तसवीरों में ना तो निजी स्कूलों के चमचमाते भवन थे, और ना ही हर गली-नुक्कड़ पर आमंत्रण देते कोचिंग सेंटर। दादा-काका पहाड़े और मुहावरे याद कर सरकारी नौकरियां पा जाया करते थे। 
आधुनिकता की कसौटी पर हर क्षेत्र ने नए-नए आयाम स्थापित किए। एजूकेशन को मिशन के साथ-साथ ब्राइट कॅरिअर सेक्टर के रूप में देखा जाने लगा। नौनिहालों की बेसिक शिक्षा अब उनके माता-पिताओं की सैलरी और लाइफस्टाइल पर निर्भर हो चुकी है। 1991 मंे मुंबई के स्लम्स में गरीब बच्चों के सपने सच करने उतरा गैर सरकारी संगठन ’प्रथम’ वाकई काबिल-ए-तारीफ है। निदेशक रहते हुए माधव चवन ने इसके योगदान की खुश्बू भारत के 21 राज्यों तक फैलाई है। 
प्रथम ने 2011-2012 की रिपोर्ट में बेसिक शिक्षा की बिगड़ती हालत का जि़म्मेदार ना सिर्फ भारत सरकार की शिक्षा सम्बंधी नीतियों को बताया है, बल्कि यहां के शिक्षकों की कड़वी हकीकत सामने ला दी है। 567 कसबों में हुए सर्वे में एकमात्र अच्छी खबर ये है कि 2009 से 2012 में 6-14 एजग्रुप के 96.05 प्रतिशत बच्चों ने स्कूल तक अपने कदम बढ़ाये हैं। ज़ाहिर है इसमें मिड्डेमील जैसे लुभावने कारणों का भी अहम योगदान रहा होगा। सरकार के राइट टू एजूकेशन की पीठ बेशक इसलिए थपथपाई जा सकती है, कि उसके तमाम प्रयास-पाॅलिसी के सहारे बच्चों की बड़ी संख्या ने स्कूलों का रूख किया है।
कक्षा पांच के 47 फीसदी बच्चे ही क्लास सैकंड की किताबें पढ़, समझ और हल कर पा रहे हैं। 2010 में जहां दस में से सात बच्चे जोड़ घटाने को फुर्ती से हल कर ले रहे थे, वहीं यह ग्राफ भी गिरकर दस में से पांच हो गया है। गांव-देहात और छोटे कसबे के मां-बाप अपने बच्चों का ब्राइट फ्यूचर निजी स्कूलों में तलाश रहे हैं। 6-14 एजग्रुप का प्राइवेट एजूकेशन में योगदान 2006-12 के बीच दस प्रतिशत बढ़कर 18.07 से 28.03 हो चुका है। इस बीच ट्यूशन की आवोहवा ने भी कसबों-देहात में दस्तक दी है।
ऐसा नहीं है कि प्राइवेट एजूकेशन से स्टूडेंट्स का फ्यूचर अंधेरे में जा रहा है, पर सरकारी स्कूलों में केयरलेस मैनेजमेंट, मोटी तनख्वाह पर अंगड़ाइयां लेते अध्यापकों ने ऐसी नौबत ला दी है। व्यवहारिक उदाहरण में हम-आप के ही घरों में लोग बात करते दिख जाते हैं, ’’उन साहब की नौकरी बढि़या है, दस बजे गए, दो बजे आ गए, आराम से धूप सेंकी और चले आये’’। शिक्षकों की भर्ती परीक्षाएं भी घपले-घोटालों की भेंट चढ़ जातीं हैं, जैसा कि यूपी में टी.ई.टी. के साथ हुआ। प्राइवेट ट्यूशंस से स्टूडेंट्स का भला तो हो रहा है, पर सिर्फ उन्हीं का जिनके पेरेंट्स सक्षम हैं। सरकारी-प्राइवेट स्कूलों वाले तमाम मास्साब भी सिंसियर होकर सिर्फ कोचिंग सेंटर में ही पढ़ाते हैं।
भारत-चीन से सामना करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने नौनिहालों को गणित में कमज़ोर पाये जाने पर चेतावनी दी थी। उनसे कहीं ज्यादा चिंता हमारे देश के हुक्मरानों को होनी चाहिए। 2010 में पांचवी क्लास के 29.01 फीसदी बच्चे बिना किसी की मदद से दो अंकों का जोड़-घटाना नहीं कर पाये थे, 2011 में यह आंकड़ा बढ़कर 39 प्रतिशत हुआ और 2012 की रिपोर्ट में चैंका देने वाल 46.05 प्रतिशत जा पहुंचा है।
शिक्षा के सतर को सुधारने के लिए सिर्फ कागजी नीतियां और पैसा फेंकना ही सरकार के लिए काफी नहीं है, उसे शिक्षाविदों और विशेषज्ञों की मदद से ग्रासरूट मंथन करना होगा। हमारे देश के अध्यात्मिक गुरूओं के श्रीमुख जब नक्सलियों की सीढ़ी सरकारी स्कूल के बच्चों को बताते हैं, तो दर्द और धिक्कार महसूस होता है। बच्चे ही किसी देश के भविष्य का आइना समझे जाते हैं, यदि हम उन्हें ही शिक्षित और समझदार बनाने में आनाकानी करेंगे, तो कल्पना काफी भयावह हो सकती है। 
-मयंक दीक्षित
                                      स्वतंत्र पत्रकार, कानपुर।