Thursday 3 October 2013

मद्रास कैफे का अपना सच


हर किसी का अपना सच होता है! मद्रास कैफे का भी है। अभिनय का सच, कहानी का सच और इतिहास की खुरदरी सच्चाइ का सच। निर्देशक सुजीत सरकार की उंगलियों से बंधे कलाकार कठपुतलियों की तरह फिल्म में कदम रखते हैं और क्लाइमैक्स तक इतने जीवंत हो जाते हैं कि फिल्म, फिल्म नहीं लगती। श्रीलंकाइ तमिलों की तसवीरें देखकर कैमरे के मशीन होने पर शक होने लगता है। सिविल वार शब्द सुनने में जितना सहज लगता है, खुद में उतनी ही असहजता और दर्द समेटे हुए है। 
फिल्म चर्च से शुरु होकर चर्च पर ही खत्म होती है, पर इस बीच सरकार और खुफिया एजेंसियों के बीच बुना-उधड़ा-सुलझा जाल दर्शकों को बांधे रखता है। कलाकारों को नाम और किरदार निभाने को क्या कहा गया, वे तो गज़ब की वास्तविकता पहन बैठे हैं ! पुलिस अधिकारियों व रा के चुस्त कर्मचारियों के किरदारों ने फिल्म के सुस्त पहलुओं में भी जान फूंक दी हैं। 
आखिर तक नरगिस फाख़री, जान इब्राहिम, राशी का काम फिल्म को उपर उठाए रखता है। जिन दर्शकों के साथ उनकी पत्नी या महिला-मित्र गइ होंगी, उनकी आंखों में भावुकता के आंसू ज़रूर छलक उठे होंगे। नौकरी के लिए पत्नी से सालों दूर रहना और नफरत पैदा ना होने देना, एक पति के लिए बेहद समर्पण और हिम्मत का काम है। पत्नी से उसकी भलार्इ के लिए झूठ बोलकर नायक नौकरी करने चला तो जाता है, पर इसकी कीमत उसे अपना सबकुछ खोकर चुकानी पड़ती है। 
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या इतनी सफाइ से व संभलकर दिखार्इ गइ है कि कंट्रोवर्सी की दूर-दूर तक गुजांइश न रहे। हर पहलू को फिल्म शुरु व खत्म होने पर साफ-साफ शब्दों में सबटाइटल दे दिए गए हैं। सौ शब्दों की एक बात यह भी कि भारत के कलाकार अब इंडिया-टाइप फिल्में देने लगे हैं। बालीवुड में बदलाव की यह बिलबिलाहट उसे जल्द ही बेशुमार शोहरत और इज्ज़त दिलाने वाली है। 

Friday 2 August 2013


खेत बनाम ख्वाहिशें



ज़ाहिर है, खेती की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है, पर भूमि का भवनों में बदलना लगातार ज़ारी है, जिससे एक बड़े नुकसान की तस्वीर नजर आने लगी है। कहीं ऐसा ना हो कि कल हम अपने मकानों पर खड़े होकर विदेशियों से यह नारा लगाएं कि ’तुम मुझे फूड दो, मैं तुम्हें फ्लैट दूंगा।  

थोड़ा मुश्किल है कि आपके पास दौलत भी हो, दिल भी हो और दिमाग भी। जरूरतें पूरी करने के लिए हमारे पास जिद है और पेट भरने के लिए प्रकृति को नोंचने की आदतें। आस-पास फैली हरियाली हमें बीहड़ लगने लगी है। खेत-खलिहान हमारी ख्वाहिशों को खरोंचने लगे हैं। वे ख्वाहिशें, जिनसे हम एक ही बार में रईसी का रायता पी जाना चाहते हैं, वे ख्वाहिशें जो हमें अपने अमूल्य खेतों केा प्लॉट बनाने के लिए मजबूर कर रहीं हैं। खाली ज़मीन पर खेती की सौगात अब खैरात बन चुकी है। प्रॉपर्टी डीलिंग नाम के राक्षस ने हमारे खेतों को निगलना शुरु कर दिया है। अब तो वह गाना सुनकर हैरानी महसूस होती है कि मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती। कुछ साल तक यदि एग्रीकल्चर के पहियों पर प्रॉपर्टी डीलिंग का रथ सवार रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब हमें  दूसरे देशों से खेत और खेती की आउटसोर्सिंग करनी पड़ेगी। विदेशों में मकान गिराकर खेत बनाए जाएंगे और हम अपने अमूल्य खेतों पर अफसोस के आशियाने खड़े करते रहेंगे। 
 हर कीमत पर ज़मीन हासिल करने की होड़ ने वाकई यह चिंता पैदा कर दी है कि गरीब किसानों-मजदूरों की ज़मीनों पर फैक्ट्रियों, भवनों, होटलों के मन-माफिक निर्माण से हम विकास का कौन सा बीज बो रहे हैं। तथाकथित विकसित राज्य गुजरात की ही बात करें तो बीते साल गुजरात सरकार ने अमरीकी कंपनी फोर्ड को 460 एकड़ भूमि लीज़ पर दे दी। यहां के किसानों-मजदूरों की रोजी-रोटी कंपनी और उसकी भर्तियों के भरोसे छोड़ दी गई। कृषि मंत्रालय के पिछले कुछ साल के आंकड़ों में खेतों की संख्या और स्थिति लगातार बदतर हो रही है। खेती के लिए प्रयोग होने वाली भूमि का प्रतिशत गिर रहा है, किसानों की दिशा और दशा भी तेजी से लड़खड़ा रही है। उन्हें अपने खेतों के बदले कम या बेहद कम रकम पा कर कर बिल्डरों से समझौंते करने पड़ रहे हैं। ज़ाहिर है लाचारी और लालच की इस जंग में जीत उद्योगपतियों व स्थानीय प्रशासन की ही हो रही है। अगर घाटे में कोई है, तो हमारे किसान और उनके परिवार। 
आंकड़ों की अंगड़ाई बयां करती है कि 1988-89 में खेती के लिए 185.142 मिलियन हैक्टेयर ज़मीन प्रयोग हो रही थी। जो 2008-09 में घटकर 182.385 मि.है. रह गई। दो प्रतिशत की इस भयावह गिरावट के कई मायने हैं, जिनका परिणाम, हमारे किसानों, फसलों व खेती के तमाम पहलुओं पर पड़ा है। आयात-निर्यात का घाटा-मुनाफा भी इससे अछूता नहीं है। फलों-सब्जियों के आसमान छू रहे दामों के लिए भी यही गिरावट अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। खाद्यान्न की पैदावारी में हो रही अनियमितता ने खाद्य सामग्री को हमारे बजट से बाहर ला खड़ा किया है। भण्डहारण और बिक्री की समुचित व सख्त व्यवस्था ना होने से हमारी उपज पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है। 
बात अगर खेती से मिल रहे रोजगार की करें, तो आंकड़े कुछ राहत ज़रूर पहुंचा रहे हैं। 2001 की सेंसस के मुताबिक देश के 402 मिलियन कामगार में से 58.02 प्रतिशत  जनसंख्या खेती से अपना व परिवार का पेट भर रही थी। यह आंकड़ा अब कुछ और बढ़ा है। ज़ाहिर है, खेती की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है, पर भूमि का भवनों में बदलना लगातार ज़ारी है, जिससे एक बड़े नुकसान की तस्वीर नजर आने लगी है। 
दरअसल समस्या की शुरुआत हमसे ही शुरु होकर हम पर ही खत्म होती है। एक विश्वस्त सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि सन 1800 के दौरान दुनिया की सिर्फ 3 फीसदी आबादी ही शहरी क्षेत्रों में रहा करती थी। 1900 में यह शहरी आंकड़ा 14 फीसदी हुआ। 1950 के आस-पास एक बड़ा बदलाव आया, जिसमें यह आकंड़ा 50-50 में बट गया। ज़ाहिर है, आज के दौर में हर कोइ आधुनिकता के आशियाने में कैद रहना चाहता है। धूल-मिट्टी से एयरकंडीशन तक के सफर में हमने अपने गांवों को अकेला छोड़ दिया और शहर की ओर दौड़ पड़े। लाखों की आबादी ने गांव की ज़मीनें बेंच कर, शहर में मकान खड़े कर लिए। गांव-शहर प्राथमिकता के परपंच में घिसटते रहे, और बिल्डरों व उद्योगपतियों के चहेते बनते गए। शहरों में छत्तों की तरह अबादी बढ़ रही है वहीं खेती के लिए प्रयोग होने वाली ज़मीन सिकुड़ रही है। 
खेतों को अपनी ख्वाहिशों के नीचे कुचलने का यह बदसूरत सिलसिला शुरु हो चुका है और हम इसे विकास की विरासत मान बैठे हैं। रोटी, कपड़ा और मकान की तिकड़ी में खेतों को नज़रंदाज कर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। रोटी चाहे चूल्हे की हो या होटलों-रेस्त्रां की चमचमाती पैकिंग-बंद, उसकी पैदाइश हमारे खेतों में ही होती है। हां यह ज़रूर संभव है कि आज हम अपना अन्न, अपने ही देश से पैदा कर रहे हैं, कल को हमें किसी और देश पर निर्भर होना पड़ जाए। अभी वक्त ने अपने दरवाजे बंद नहीं किए हैं। ठान लिया जाए तो प्राॅपर्टी डीलिंग के इस राक्षस को काबू में किया जा सकता है। संभलने के लिए सही वक्त और सही कदम की जरूरत पड़ती है। कहीं ऐसा ना हो कि कल हम अपने मकानों पर खड़े होकर विदेशियों से यह नारा लगाएं कि ’तुम मुझे फूड दो, मैं तुम्हें फलैट दूंगा।  

Sunday 9 June 2013

रात को जश्न , दिन में समझौते


’’ज़माना और जज़्बात दो अलग बातें हैं। संगीत की सरगम, बैंड-बाजे वाले भी बजाया करते हैं, पर अफसोस, वे महज़ लोगों के दिल ही जीतते हैं, दौलत और शोहरत नहीं ! काश ! संगीत और उसके रखवालों की नज़र रफीक चचा जैसे कलाकारों पर भी पड़ी होती ’’!

’’संगीत कानों से होकर दिल का रास्ता पकड़ लेता है। मुश्किलों और उलझनों की तपन पर सुकून और आनंद के छींटे उछालकर हमें शांति और सुकून की खूबसूरत दुनिया में ले जाता है।’’ अक्सर हम संगीत, उसकी सादगी और उसके चमत्कारों की कहावतों में जीते आए हैं। ’सा, रे, गा, मा, पा, धुनों से सजे और लय-ताल से संवरे संगीत को न सिर्फ वाहवाही मिली, दुनिया और दिग्गजों ने भी उसे सिर-आंखों पर बिठाया। अफसोस कि कलाकारों की मुट्ठीभर भीड़ जिसने संगीत और समाज को एक धागे में पिरोया, आज गुमनाम है, बदनाम है, और बदसूरत भी। शादी के तमाम जोड़ों ने जिस संगीत के साथ अपनी हसीं दुनिया बसा ली, उन ’संगीतकारों’ की जि़ंदगियां, रात के अंधेरे में तो रोशन रही, पर दिन के उजाले में समझौते और समाज ने उन्हें अंधेरों में ही रखा। आज बात उन बैंड-बाजे बजाने वालों, और व्याह-बारात के गला-फाड़ गायकों की। संगीत और उसकी दुनिया में उनकी हनक और हिम्मत की भी कद्र होनी चाहिए थी। शायद हमने ही उन्हें चंद रुपयों में चिल्लाने और रईस बारातियों के हाथों, नोट छीनने वाला समझकर इग्नोर कर दिया। इग्नोर तक तो ठीक था, पर क्या संगीत और उसके रखवालों ने उनका हाल-चाल  तक पूछा ..? ठीक रफीक चचा और उनकी जि़ंदगी की तरह ! 
रफीक चचा का बचपन दरवाजे पर उंगलियां ठोंकते और एकांत में गुनगुनाते हुए गुज़रा था। परिवार में अब्बू, अम्मी और चार बड़े भाई-बहन थे। कारोबार के नाम पर अब्बू की 10 बाइ 13 की छोटी सी दुकान थी, जिसमें अक्सर सामानों का ढेर और ग्राहकों का सूनापन बना रहता था। उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही थी, महंगाई की मार भी तेज़ हो चली थी। बेटियों की शादी के बाद दुकान बिक गई, और बेटा दूर शहर में नौकरी करने चला गया, जो वहीं का होकर रह गया। परिवार की जि़म्मेदारी और गायकी का सुरूर दोनों अब रफीक के कंधों पर थे। पिताजी से छिपकर रफीक ने पास कसबे में एक ढोलक-मास्टर से संपर्क साधा। ढोलक मास्टर, ढोलक के साथ सुर और लय के भी पक्के थे। रफीक का जुनून और लगन देखकर वे झट से सिखाने को राजी हो गए। जल्द ही रफीक संगीत और उसकी तानों में खूब जम-रम गया। तब रेडियो पर मुकेश-रफी साहब को सुनकर उसका दिन शुरु हुआ करता था और गजलों की शाम के साथ अकेलीं वीरान रातों की विदाई।
वक्त अब सोचने-विचारने का नहीं, कदम उठाने का आ चुका था। रफीक ने पिताजी से सहमते हुए अपनी मर्जी और मर्ज़ बताया। पिता जी झल्ला पड़े। उसे घर से बाहर निकाल दिया गया। संघर्ष और भविष्य दोनों धरती के दो किनारों की तरह हैं, जिन्हें पकड़ने के लिए मेहनत, लगन और गज़ब का जुनून चाहिए। बातों और जज्बातों से सफलता मिल रही होती, तो शायद आज कोई असफल या परेशान ना होता। रफीक कई दिनों भूखा रहा, पर संगीत की तड़प पेट की भूख पर अब भी भारी थी। तभी उसे पास की सड़क से एक बारात गुज़रती दिखाई दी। रफीक ज़रा करीब से उस भीड़ में शामिल हो गया। कुछ देर बाद अचानक बैंड में गा रहे गायक का गला खराब हो गया, और नाचने को बेताब बाराती बैंड-मास्टर पर बरस पड़े। रफीक ने दौड़कर माइक झपट लिया और खाली पेट-सच्चे दिल से गाना शुरु कर दिया। बारातियों का उत्साह बढ़ गया, वे फिर जमकर सड़क पर लोटने-थिरकने लगे। बैंडमास्टर का दिल रफीक की गायिकी पर आ चुका था। उसे 40 रुपए रोज़ पर नौकरी मिल गई। 
नौकरी के लगभग 20 साल गुज़र चुके हैं। आज आधुनिकता के काले बादलों ने सादगी और सुकून की शानदार धूप ढक ली है। बैंडबाज़ा वाले और संगीत अब भी दो घड़ों की तरह अलग रखे हैं। रफीक केा अब लोग चचा कहकर बुलाने लगे हैं। पिछले दिनों उन्हें गांव की पुरानी सड़क पर लाल-काली बैंड-ड्रेस में देखा था। वे कभी-कभार ढोल भी बजाते हैं। अपने कांपते हाथों से ढोल पर दमदार थाप मारकर वे हुड़दंगियों-बारातियों को तो खुश कर लेते हैं, पर सुबह जब बात घर चलाने और जि़ंदगी गुज़ारने की आती है, तो इस कमर-तोड़ महंगाई में उनका ही बैंड बजने लगता है। 
100 रुपए रोज़ कमाकर, वे रातभर जश्न और जलबों की नुमाइश तो करते हैं, पर सुबह अपने और परिवार के लिए संघर्षों और समाज की कहावतों को कोसने लगते हैं। उनका छोटा बेटा बाहर चला गया है, पत्नी और बहू के साथ अब उनका हुनर ही है, जो कभी कुछ कम तो कभी भरपेट खाने का जुगाड़ करवा देता है। कुछ फायदों की बात जोड़ दी जाए, तो इस आधुनिक युग ने उन पर कुछ ऐहसान ज़रूर लाद दिए हैं, जैसे: बारातियों का बारात में नोट उछालना, टिप देना वगैरह। चचा, गाना गाते हुए, ढोल बजाते हुए, सड़कों पर गिरी हरी पत्तियां उठा लिया करते हैं। कभी-कभार तो गांववाले उन्हें भिखारी, मांगने वाला, नीयतखोर कहकर ठहाका भी मारते हैं, पर चचा को किसी से कोई शिकायत नहीं है।  
परिवार और पेट के सामने पैसे की सनक भी जायज़ और ज़रूरी हो जाया करती है। चचा अब किससे कहें, या कौन अब चचा को समझाए कि वे घूम-फिरकर ही सही, पर हैं, संगीत का हिस्सा ही। वह संगीत जो दो अजनबियों को बंधन में बांधने का ज़रिया रहा है, वह संगीत जिसने धूम-धाम से एक बेटी को विदा किया, वह संगीत जिसे सुनकर नई-नवेली दुल्हन के दिल के तार बज उठते हैं। काश ! संगीत और उसकी धरोहरों ने रफीक चचा जैसे संगीतकारों का भी ज़रा ख्याल रख लिया होता ! उनकी गायिकी भले ही सुर, लय, ताल से बंधी और सजी नहीं थी, पर उनके संघर्षों में शिददत और शराफत का ज़बर्दस्त घालमेल था। माना कि वे संगीत और संगीतकारों की चमचमाती कालीन पर कदम नहीं रख पाए, पर दिल जीतने वालों में उनकी गिनती आज भी है। 
जज़्बातों और वाहवाही से घर के खर्च नहीं चलते। समाज के सिरहाने पर बातें, ठहाके और हुल्लड़पन तो है, पर मदद और दिलासों का आज भी सूखा है। रात में घंटों गला फाड़ने के बदले लोग तो नाच कर खुशियां अपनी जेबों में भर ले जाते हैं, पर जब रफीक चचा जैसे सैकड़ों बैंड-बाजे वाले लुटाये गए नोट अपनी जेबों में भरने चलते हैं, तो उन्हें शारीरिक चोट ही नहीं मानसिक ज़ख्म भी झेलने पड़ते हैं। शायद संगीत और उसकी दीवानगी ने इन बैंड-बाजा कलाकारेां को ऐसे घाव दे दिए हैं, जिन्हें अब कद्र, प्यार और सच्चे दिलासों से ही भरा जा सकता है। रफीक चचा ! आप संगीतकार भले ही न कहे जाएं, पर गज़ब के कलाकार हैं, जो रात को जश्न और दिन में समझौते करते हुए अपनी बची हुई जि़ंदगी गुज़ार रहे हैं !

प्रिय पाठकों ! माफ कीजिएगा ! आपको अपनी कलम से एकतरफा और वायस्ड लेख दे रहा हूं ! 


Saturday 8 June 2013

मुसाफिर का पत्र मंजिल के नाम 

प्रिय बॉलीवुड, 

              करोड़ों-अरबों का टर्नओवर और स्टार्डम-ग्लेमर के थिंक टैंक हो तुम ! तुम्हारी ज़मीं चमचमाते खरा सोना है, पर किसी के लिए शान-ओ-शौकत तो किसी के लिए तपता हुआ लोहा भी है! मुझे याद है जब पहली बार बड़े परदे पर चकाचैंध को चूमती नायक-नायिकाएं मेरी आंखों को बेहद पसंद आईं थीं। तब समाज और परिवार की ना-नुकर और भों-सिकुड़ के बावज़ूद मैं तुम्हारी दुनिया में बिना टिकट घुस आई थी। समाज में तन ढकने की धक्कममपेल है, और तुम्हारी दुनिया में खुले बदन की खस्ताहाल ख्वाहिशें ! मेरे जैसी न जाने कितनी स्ट्रगलर्स तुम्हें खुद में समेंट लेने को बेताब थीं ! सौ-करोड़ी क्लब भी बनने लगे थे, और तुम्हारा टर्न-ओवर गैस के भारी-भरकम गुब्बारे की तरह बढ़ता ही जा रहा था। अभिनय और कलाकारी से कहीं बढ़कर फिगर और फेस की बादशाहत सिर उठाने लगी थी। 
शुरुआती दौर में किराये के कमरे में कैद रहना, क्रीम-पाउडर खुद करना और बड़े दाम के छोटे कपड़े पहनना हम स्ट्रगलर हीरोइनों की मानो पहचान सी बन गई है। बंबइया अखबारों-मैग्जीनों में आॅडीशन के लिए दिए गए फोन नंबरों पर घंटों लबरियाते हुए खीझ सी होने लगती थी। कभी-कभार किसी से अप्वाइंटमेंट भी मिलता था। ऑटो-रिक्शे भी रकम में रियायत नहीं करते थे, आखिर वे भी तो स्ट्रगलर-स्टार ही हैं ! ऑडीशन-वेन्यू का दरवाज़ा सजा हुआ करता था, अंदर बंद शीशे और सेंट्रल ए.सी. की ठंडक में भी हवस की गर्मी सी बनी रहती थी। कुछ इंटरवयू लेने वालों की नज़रें पैरों से होती हुईं, पूरा जिस्म ताकतीं, फिर मुंह बनाकर कह देतीं - फेसकट अच्छा नहीं है, अभिनय का अनुभव नहीं है, वो बात नहीं है, ये बात नहीं है! वगैरह-वगैरह ! 
आखिरकार एक दिन तुमने मुझपर एहसान कर ही दिया। तब मुझे ये मेरी जि़ंदगी का सबसे बड़ा चमत्कार ही लगा। सदी के महानायक के साथ काम करने का ऑफर मिला।  सुकून भी उस अजनबी मेहमान की तरह हैं, जो घंटों पड़ोस वाली गली में भटकता रहता है और अचानक उसे कोई सही रास्ता, सही घर, और सही शख्स तक पहुंचा देता है ! अब मन इतना खुश था कि इसे फिक्र ही नहीं थी कि जि़ंदगी महज़ एकाध फिल्मों की किताब नहीं ! पहली ही फिल्म के सहारे बॉलीवुड पर सवार होने की ललक और दरवाज़े पर स्टार्डम की दस्तक सुनाई देने लगी थी। जैसे-तैसे फिल्म पूरी हुई, लोगों के लबों पे मेरा नाम चढ़ने लगा ! मीडिया और फिल्म क्रिटिकों ने मेरे अभिनय की तारीफें कीं, पर अभी भी कुछ बाकी था ! शायद बहुत कुछ ! फिर कारवां चल निकला था। आगे चलकर दो बड़े स्टारों के साथ काम करने का हसीं मौका भी हाथ लगा ! 
फिर अचानक सफलता की फुलवारी में वीरानी सी छाने लगी ! कई हीरोइनें सौ करोड़ी क्लब और लव-अफेयर्स की बदौलत मीडिया के मुंह लगीं रहीं। मैंने सादगी और मेहनत को ही अपना भगवान माना था। मुझे क्या पता, कि 120 करोड़ की आबादी में अपनी पहुंच बनाये रखने के लिए अफेयर्स और पार्टी-मटरगस्ती भी बेहद ज़रूरी है। मैंने नायकों को को-स्टार का दर्जा दिया और फिल्मों को अपने शौक और प्रोफेशन का ! शायद मेरा ज़मीर भी इसी में खुश था। पर खुशी और खुशकिस्मती दो अलग बातें हैं। निर्माता-निर्देशकों ने मेरे अभिनय और जुनून को इग्नोर कर दिया! दरअसल स्टार्डम और ग्लेमर की गाली-गलौज से मुझे परहेज़ था और न जाने क्यूं सादगी और शराफत का पंक्षी ज़ीरो-फिगर और सेक्ससिंबल के पिंजड़े में कैद नहीं हो सका ! 
आज बात और जज़्बात सबकुछ मुझसे कहीं दूर चले गए है !तुम्हारी शर्त, तुम्हारे इरादे, तुम्हारे गाइडेंस से अब मैं थक सी गई हूं ! ग्लेमर की गांधीगीरी और शोहरत की शैतानियां अब मुझे जीने से रोक रहीं हैं ! तुम्हारा टर्नओवर कई गुणा बढ़ता रहे, मेरे जैसी सभी सफल, कम सफल या बेहद कम सफल हीरोइनों से मेरी गुज़ारिश है कि कपड़े भले ही छोटे कर लें, पर मेरी तरह अपना दिल छोटा न करें ! वाहवाही और पाॅजिटिव समीक्षाओं से जि़ंदगी की फिल्म सफल नहीं होती ! दिल और दामन के पर्दे अभी उतने बड़े और स्टारछाप नहीं हुए हैं, कि इसमें हर ज़ख्म, हर दर्द, फिल्मों की तरह हैप्पी एंडिंग होता चला जाए ! आज अपनों से दूर और दुश्मनों से छुटकारा पाकर एक नई फिल्म का आइडिया छोड़ कर जा रही हूं ! पता नहीं फिल्म क्रिटिक्स इसे कितने स्टार देंगे .......? 
- जि़ंदादिल जिया खान !  


Saturday 25 May 2013


जज़्बातों को फिल्मी न होने दें !


आशिक और आशिकी के बीच दुनिया ने एक ऐसी दीवार बना रखी है, जिस पर लिख दिया गया है कि आप या तो मुहब्बत ही कर पाएंगे या फिर जि़ंदगी में सफल ही हो पाएंगे ! इश्क की शुरुआत जज़्बातों से होकर जि़द तक जा पहुंचती है, पर जब तक इज़हार का अंदाज़ फिल्मी और दिखावटी रहेगा, आप हसीन लम्हों को यादगार बनाने से चूकते रहेंगे। 

कितना मुश्किल है इश्क हो जाने के बाद उसे छिपाये रखना ..! ठीक उसी तरह, जैसे आपने किसी के साथ सीरियस-मज़ाक किया हो और फिर आप खुद को बेकसूर साबित करने के लिए उसे समझाए जा रहे हैं! यहां समझाने वाले आप खुद हैं, और समझने वाला दिल ! अक्सर दिल और दिमाग, ’लेफ्ट-राइट’ गेम खेलते रहते हैं ! दिमाग में फयूचर हाॅरर और दिल में प्रिज़ेंट प्लेज़र। दिमाग में टैंशन का टशन और दिल में दिलेरी के दिलासे ! ये  दिमाग उस बांध की तरह है, जो एक हद तक लहरें रोकने की ताकत रखता है। पर दिल की तूफानी लहरें, जब होश-ओ-हवास खोकर दौड़ीं चली आती हैं, फिर दिमाग का बांध टूट जाता है। दिल खुद को जीता हुआ और दिमाग कुछ दिनों के लिए हारा हुआ सा महसूस करने लगता है। 
हालिया फिल्म आशिकी 2 का डाॅयलाॅग - ’’मुहब्ब्त, प्यार, इश्क लफजों के सिवाय और कुछ नहीं, बस किसी स्पेशल के मिल जाने के बाद इन शब्दों को मायने मिल जाते हैं।’’  फिल्मों से लेकर फरिश्तों की कहानियों तक में इश्क और इज़हार के बीच गहरा रिश्ता रहा है। इस आधुनिक जि़ंदगी में इज़हार को हम ’प्रपोज़’ कहने लगे हैं। दिल के लिए ’प्रपोज़’ शब्द एक ’मीडिया’ है। ऐसा मीडिया जो ब्रेक लेकर दिल के प्रोग्राम सामने वाले को सामने जाकर पेश कर देता है। प्रपोज़ करने के बाद का ’डिसीज़न’ टीआरपी रेटिंग की तरह है। यदि आपका प्रोग्राम अच्छा रहा, तो हाइ-टीआरपी, वरना ’नाॅट नाउ’ का ज़बर्दस्त फ्लाॅप शो। क्यूं न प्यार को इज़हार की शक्ल कुछ इस तरह दी जाए कि वह ना सिर्फ यादगार रहे, साथ ही आपकी लव लाइफ में अभी तक के शानदार लम्हों में शामिल हो जाए ! ठीक वैसा ही जैसा रितिक-सोनिया ने किया। 
काॅलेज में रितिक का सपना सिर्फ किताबें और कॅरिअर था। उसकी आंखों में गर्लफ्रेंड या लवर सर्च करने की ना तो ख्वाहिश थी और न ही इंट्रेस्ट। अपनी स्टडी को ही उसने फ्रेंड और सक्सेज़ को ही अपनी गर्लफ्रेंड बनाने का फैंसला किया था। अक्सर उसकी बातें लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट ला दिया करतीं थीं। हंसमुख नेचर होना वाकई शानदार साबित होता है। आप रूठों को चुटकियों में मना सकते हैं, अजनबियों को अपना बना सकते हैं। दरअसल दुनिया में कुछ मिथ बन गए हैं, जिनमें से एक यह कि, लव-लाइफ, स्टडी को स्पाॅयल कर देती है। रितिक अक्सर दोस्तों को इस टाॅपिक पर ऐक्सप्लेनेशन देना शुरु कर देता था। मानो वह लवलाइफ से नहंी, अपने विचारों और एटीट्यूड से बहस कर रहा है। रितिक सैकंड ईयर स्टूडेंट था, और जल्द ही माॅस कम्युनिकेशन कोर्स की उड़ान उसे थर्ड ईयर की ’मीडिया-मिस्ट्री’ में भेजने वाली थी। उसके पास ब्राण्डेड ऐक्ससरीज़, बाइक, बाइसेप्स जैसे इंप्रेसिव फीचर्स नहंी थे। दूसरों को हंसाने-गुदगुदाने की चाहत ही उसकी लाइफ का अभी तक का अचीवमेंट था। कुछ दिनों बाद उसके फ्रंेड-सर्कल में सोनिया एंट्री करती है। बात और जज़्बात कब जि़द बन जाएं, कहना मुश्किल है। दोस्ती से होकर अपनेपन की यह सुरंग, इश्क के दरवाज़े तक ले जाएगी, रितिक ने सोचा भी न था। 
इज़हार का सफर अभी दूर था। रितिक और सोनिया दोनों के फोन नंबर्स ऐक्सचेंज हुए। ’गुड-माॅर्निग’, ’गुडनाइट’, ’टेक केयर’ जैसे शब्दों में वाकई जादू सा होता है। यदि नियम से कोई आपकी फिक्र करे, तो आपका दिल ज़ोरों से धड़कना शुरु कर देता है और दिमाग ज़ोरों से डांटना। ठीक ऐसा ही रितिक के साथ हो रहा था। खाली समय में वह खुद को सोनिया का ’सिर्फ दोस्त’ कहते हुए दिलासे देता रहता, और जैसे ही फोन में मैसेज या काॅल टयून बजती, झट से ओके कर आंखें गढ़ा देता। दो महीने, दिल और दिलासों का खेल चलता रहा। रितिक-सोनिया मिलते रहे, बात ’गुड माॅर्निंग’ में लिपटी हुई, अब ’लंच कर लेना’, ’डिनर कर लेना’ जैसे मैसेजों तक जा पहुंची थी। कितना बेहतरीन मौका होता है न, जब कोई आपसे रोज़ ऐसी बातें कहे, जिसे सुनकर, खुद को कंट्राॅल करने की कोशिशें करनी पड़ें। 
फाइनली, रितिक को रियालाइज़ हुआ कि सोनिया और वह, इश्क के दो मोती हैं, जो जल्द ही एक माला में बंधना चाहते हैं। लाइफ और लव लाइफ में ज़रा सा अंतर है। यहां सिर्फ हाइ-हलो, बाइ-गुडबाइ नहंी, जि़म्मेदारी और प्यार की भी भरपूर ज़रूरत है। फिलहाल रितिक ने सोनिया को अपने दिल की बात कहने का डिसीज़न लिया। हालांकि यह सब उसने तभी सोचा जब उसे विश्वास हो चुका था कि सोनिया भी उससे उतना ही प्यार करती है। 
अगले दिन काॅलेज पार्टी में दोनों मिले, कुछ बातें हुईं, और फिर एक ऐसा मौका, जिसे हम यूथ ’प्रपोज़ल’ कहते हैं पर रितिक-सोनिया के लिए यह एक बेहद हसीन पल था। प्रपोज़ करते हुए एक गलती कभी नहीं करनी चाहिए जो रोहित ने नहीं की। यादगार प्रपोज़ल में फिल्मी-नकल करना थोड़ा ड्रामेटिक फील करवा सकता है। इश्क बयां करना एक ऐसा पल साबित होता है, जिसकी याद मुश्किल से ही कभी धुंधली पड़ती है। ऐसे में यदि आप ज़रा भी ओवर-क्रिएटिव या फिल्मी अंदाज़ निभाने में रहे, तो बात बिगड़े भले ही न, पर खूबसूरती और सादगी गायब हो जाने का डर रहता है। रितिक ने सोनिया का हाथ थामा, और बड़ी शिददत से पुरानी बातों के सूटकेस में दिल की नई बात शानदार जज्बातों की पैकिंग के साथ रखकर उसे गिफट कर दीं। सोनिया ने भी स्माइल करते हुए, उसे ’आइ लव यू टू’ कह दिया! प्रपोज़ल सिंपल पर शानदार था। दिल की बातें सीधे कहना भी मुश्किल है, और घुमाकर कहना भी एक कला। सादगी और अपनेपन का ऐसा काॅकटेल आपकी  जि़ंदगी को खुशियों से भर सकता है। आज रितिक और सोनिया दोनों एक-दूसरे को अच्छे से समझते हैं। वे हैरान और परेशान होकर ठहाके भी लगाते हैं कि इश्क कितना चालांक और खुशनसीब है कि उसने अनऐक्सपेक्टिड को भी ऐक्सपेक्टिड कर दिखाया। 
ये तो हुई रितिक-सोनिया लव स्टोरी, अब बारी प्रपोज़ल और उसकी इंपाॅर्टेंस की। दरअसल फिल्में असल जि़ंदगियों से ही बनाईं जाती हैं। क्यूं न दिखावटीपन और नकल को एक तरफ रख, रिलेशनसिप को सादगी और खूबसूरती से एंज्वाॅय किया जाए ! मशहूर लेखक शिव खेड़ा ने एक बार कहा था- ’’जीतने वाले कोई अलग काम नहंी करते, वे हर काम अलग ढंग से करते हैं।’’ याद रखिए प्यार जि़ंदगी भले ही न हो, पर जि़ंदगी का ऐसा हिस्सा है, जिसे इग्नोर नहंी किया जा सकता। हिफाज़त और अपनेपन की मीठी बोलियां, जब दुनियादारी की इस भागमभाग में दिल को सुनाई देतीं हैं, तो वह सबकुछ छोड़कर उन्हें  हमेशा के लिए पाने की कोशिश में लग जाता है। दो बेहद ज़रूरी बातें, फयूचर स्ट्रगल यानि स्टडी और लव लाइफ में बैलेंस। सक्सेज़, लव लाइफ में ही नहीं आपकी लाइफ में भी होनी चाहिए। क्यूं न आज दो मिथों को तोड़कर बदल दिया जाए ? एक, कि लाइफ-लवलाइफ को बैलेंस रख कर, बिना किसी प्राॅब्लम के सक्सेज़ के रास्ते तलाशे जा सकते हैं और दूसरा, लव प्रपोज़ल को फिल्मी नकल के धागे से न बांधकर, अपने अंदाज़ में अपनाया जाए।
 जो आप हैं, वह आप ही कर सकते हैं, और जो आप नहंी हैं, बेहतर है उसे करने की कोशिश तो दूर, उस बारे में सोचें भी नहीं। फिलहाल इश्क और प्रपोज़ल का यह लेख खत्म हो रहा है, पर आखिरी शब्दों में एक चेतावनी ज़रूर कि लाइफ और लव को साथ लेकर चलने में बुराई नहंी है, बस डर बना रहता है कि आप अपनी मंजिल से भटकें नहंी, बाकी सुख हो या दुख, आपके साथ कोई है, जो हर वक्त, हर लम्हा, पलकें बिछाए आपके सपनों को अपने सपने बनाने के लिए बेताब है। आफटरआॅल लाइफ इज़ टू एंज्वाॅय, नाॅट टू स्पाॅयल ... डियर ! 



Monday 20 May 2013


आईपीऐल के दलदल में क्रिकेट का कमल


आईपीऐल में स्पॉट फिक्सिंग-फसाद से ज्यादा हैरानी इस बात की है कि श्रीसंत जैसा काबिल खिलाड़ी भी इस दलदल में खुद को साफ-सुथरा नहीं रख पाया। आईपीएल के ढांचे में जल्द बदलाव करने की ज़रूरत है, कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट के नाम पर हम घंटों उस खेल को टकटकी बांधकर देखते रहें, जिसकी जीत-हार पहले से ही तय थी!

आईपीएल पर फिक्सिंग के छींटे ! एक नामी न्यूज़ चैनल का फलैश। देखकर ज़रा भी हैरानी नहीं हुई, पर फलैश की दूसरी लाइन ’श्रींसंत समेत तीन खिलाड़ी गिरफ्तार, जांच जारी!’ पर नज़र पड़ते ही अगला चैनल ट्यून करने को बेताब उंगलियां ठहर गईं। क्रिकेट का डाइ-हार्ट फेन न होते हुए भी इस खबर को घंटों चैनल बदल-बदल कर जानने-समझने-परखने की कोशिश करता रहा। तथ्य, तस्वीरें और तफतीश की उधेड़बुन जारी थी। कहीं क्रिकेट ऐक्सपर्ट गर्मजोशी से अपना बयान दर्ज करवा रहे थे, तो शिल्पा शेट्टी अपनी टीम राजस्थान राॅयल्स की सफाई, बेहद सफाई से दे रहीं थीं। दरअसल आईपीएल के पिछले कुछ मैचों में श्रीसंत, अजित चंडीला और अंकित चव्हाण पर स्पॉट फिक्सिंग के गंभीर आरोप सामने आए हैं।
आईपीऐल को क्रिकेट मैच का आयोजन कहते हुए अक्सर झिझक महसूस हुआ करती थी, पर अब तो धिक्कार सा होने लगा है। खुल्लम-खुल्ला सट्टेबाजी, शोहरत की बेशुमार ’बैटिंग’, ने खेल की शराफत का गला घोंट दिया है। आईपीऐल में सिर्फ फिक्सिंग का छिटपुट मामला होता, तो शायद मैं इस पर लिखने की न सोचता, पर श्रीसंत जैसे हुनरमंद और काबिल खिलाड़ी पर लगे आरोप ने वाकई देश के सक्रिय नागरिकों को झकझोर दिया है। वक्त इस बहस में पड़ने का नहीं है कि फिक्सिंग कैसे हुई, और कौन मुख्य किरदार में है ? ज़ोर देने की ज़रूरत इस बात पर है कि किन कदमों को उठाकर हम आईपीएल जैसे मनोरंजक और शोहरत-विशेष आयोजनों में शराफत और सच्ची खेल-भावना बरकरार रख सकते हैं ?
तेज़ दिमाग के मध्यम-तेज़ गेंदबाज़ ऐस. श्रीसंत का नाम भारतीय टीम के होनहार और उम्दा गेंदबाज़ों में लिया जाता है। कुछेक अपवादों को नज़रंदाज़ कर दें तो साफ-सुथरी छवि उनकी पहचान रही है। आईपीएल फाॅर्मेट में टीमें बनाई तो जातीं हैं, पर ज़मीनी तौर पर बैटिंग टीम के मालिकान और उनके ’इरादे’ ही करते हैं। जैसे ही ये ’इरादे’ डगमगाते हैं, खेल का ’खेल’ बिगड़ने लगता है और फिक्सिंग के फसाने पैदा होने लगते हैं। अब बात टीम से शुरु हुई है, तो एक नज़र 2008 की पहली आईपीएल विजेता टीम राजस्थान राॅयल्स के रिपोर्ट कार्ड पर। प्वाइंट टेबल में मुंबई और राजस्थान के बीच दूसरे स्थान के लिए कश्मकश जारी थी। दोनों टीमें प्लेआॅफ में जगह पक्की कर चुकीं थी। ज़ाहिर तौर पर लक्ष्य पहले स्थान पर पहुंचने का था। टीम के बूस्ट प्लेयर श्रीसंत समेत तीनों खिलाडि़यों पर आरोप है कि उन्होंने बुकी के इशारे पर नोबाॅल, डेडबाॅल डालकर खेल और उसके मायनों को चोट पहुंचाई।
खिलाडि़यों पर आईपीऐल-फिक्सिंग के छींटे जैसी बात से हैरान होना ठीक उसी तरह है जैसे कोई कमल तोड़कर लाए और आप उसके पैरों में कीचड़ न लगे होने की उम्मीद करें। श्रीसंत केरेला के पहले रणजी खिलाड़ी हैं, जिन्हें सीधे भारतीय टीम में 20-20 खेलने का मौका मिला। अपने शानदार कॅरिअर में उन्होंने 27 टैस्ट मैचों में 87 विकेट और 53 वन-डे मैचों में 75 विकेट झटके है। श्रीसंत केरल के अकेले ऐसे गेंदबाज रहे हैं, जिन्होंने रणजी ट्राॅफी में हैट्रिक ली है। 2008 में हरभजन सिंह के साथ उनके संबंधों में ज़रूर कुछ खटास रही, पर उन्होंने मामले को खेल के मायनों से ज्यादा तवज्जो नहीं दी। उनकी मध्यम-तेज़ गति गेंदबाज़ी ने मैदान में विपक्षी टीम के बल्लेबाज़ों को अक्सर हैरत में डाला है। जहां तक कप्तान धोनी से मतभेद की बातें उछली है, तो व्यवहारिक तौर पर कभी-कभार खिलाडि़यों और कप्तान के बीच मसलों पर सहमति-असहमति का मन-मुटाव रहता ही है। सच तो यह है कि आईपीऐल में जिस खिलाड़ी ने रुपए-पैसों की चिंता नहंी की, वह बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद भी घाटे में ही रहेगा। पर यहां घाटे से मतलब ऐसे साॅल्यूशन से कतई नहीं है जैसा श्रीसंत व बाकी दो खिलाडि़यों ने अपनाया।
यदि हमारा हिंदी शब्दकोश उदार होता, तो अब तक आईपीएल और विवाद शब्द पर्यायवाची बन चुके होते। 2008 से लेकर अभी तक एक भी आयोजन साफ-सुथरा और शांतिपूर्ण नहीं रहा। बीते साल 5 खिलाडि़यों पर फिक्सिंग के आरोप सही साबित हुए थे, पर तब भी बात बहस और बयानों के आए-गए विस्फोट की तरह रह गई। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने श्रीसंत को अपने दोस्त के यहां से और बाकी दो खिलाडि़यों को टीम के नरीमन हाउस होटल से हिरासत में लिया है। आरोपियों पर आईपीसी के 420 और 120 बी के तहत केस फाइल करने की तैयारी है। साथ ही सबूत जुटाने में जुटी दिल्ली पुलिस अब बुकी के तमाम आला नटवरों की तलाश में ताबड़तोड़ छापेमारी कर रही है। दोष का दरवाज़ा सिर्फ खिलाडि़यों तक ही नहंी खुलता, असली गुनाहगार तो बुकियों का देशभर में फैला ज़बर्दस्त नेटवर्क है, जो लालच और शोहरत की चकाचैंध से खेल और उसके सम्मान को अंधेरे में ले जा रहा है।
हमेशा की तरह दोषी खिलाडि़यों की आधिकारिक टीमों ने आरोपों से अपना दामन बचा लिया है। पुलिस जांच-पड़ताल कर दागी चेहरों को सामने लाने की भरपूर कोशिश में है। चर्चा है कि दोषी पाए जाने पर खिलाडि़यों पर आजीवन वैन लगेगा, व उन्हें सख्त सजा होगी, पर इससे भी ज्यादा ज़रूरी है कि मामले की जड़ तलाशी जाए। जब तक   कैंसर जैसे जानलेवा रोग को पेनकिलर या डिस्प्रिन जैसी दवाओं से खत्म करने की कोशिशें होतीं रहेंगी, रोग बढ़ता ही जाएगा। आज श्रीसंत, कल कोई और धीरे-धीरे हमारी पहचान, सम्मान और संस्कृति का खेल क्रिकेट, फिक्स-गेम की शक्ल ले लेगा। फिर जीतना-हारना ही सबकुछ होगा। देश और उसकी भावनाओं पर चोट कर जिन लालची और नोट के भूखों ने यह मोहजाल बिछाया है, उनकी हवेलियां बनेंगी, और संस्कार और उसूलों की इमारतें ढहतीं चलीं जाएंगी।
बहुत कम वक्त बचा है इस खेल को वापस उसकी पहचान और सम्मान दिलाने का। आईपीऐल की शुरुआत खिलाडि़यों के विकास और दर्शकों के मनोरंजन के लिए हुई थी, न कि खेल और खिलाडि़यों की अवैध सौदेबाज़ी-सट्टेबाजी के लिए। शोहरत और शराफत की इस जंग में क्रिकेट अब कराह रहा है। हर किसी को शक होने लगा है कि जिस्म दिखातीं चीयरलीडर्स के पीठ पीछे कैसे मैच मालिकान करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे करते हैं। आईपीऐल को आगे भी यदि जारी रखना है तो कायदे-कानून को कड़े करने होंगे। सिर्फ मनोरंजन का वास्ता देकर आप दर्शकों को धोखे में नहंी रख सकते। देश जानना चाहता है कि कौन, कैसे, और क्यूं खेल की भावनाओं को नोटों की गडिडयों के नीचे कुचलना चाहता है। फिलहाल मामले की जांच जारी है, नतीज़ा सामने आना बेहद ज़रूरी है। आईपीएल के ढांचे में जल्द ही बदलाव करने की ज़रूरत है, कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट के नाम पर हम घंटों उस खेल को टकटकी बांधकर देखते रहें, जिसकी जीत-हार पहले से ही तय थी।

         

Saturday 11 May 2013


बेबस आंखों में ’शिकायत’ के आंसू ....


बारहसिंगा को उत्तर प्रदेश के राजकीय पशु होने का तमगा हासिल है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने के बाद कोई भी ऐसी सरकारी योजना याद नहीं आती, जो इस प्रजाति के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो। सफलता और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की शानदार साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?

एक बेहद सीधा और मासूम जीव, जो आज तक लोगों के दिलों पर राज करता रहा। जिसने हमेशा अपनी मासूम हरकतों से बच्चों-बड़ों, सभी के चेहरों पर मुस्कराहट दी। बड़ी सी काली आंखें, दर्जनभर सींगों से सजा सिर, सरपट दौड़ती-कूदती पतली टांगों वाला बारहसिंगा आज बेबस है। प्रकृति की बिछाई जंगलों की चादर तेज़ी से खत्म हो रही है। जल, ज़मीन और जि़ंदगी के लिए जद्दोजहद कर रहे उत्तर प्रदेश के इस राजकीय पशु को न समाज कुछ दे पाया और न सियासत। प्रदेश की सरकारें चिडि़याघरों व उद्यानों पर बेशुमार खर्च तो करती रहीं, पर हमेशा की तरह सियासत, संवेदना पर हावी ही रही। आधुनिकता और औद्योगीकरण के भीड़ भरे मेले में तमाम जीव-जंतुओं समेत बारहसिंगा भी हम इंसानों से सुरक्षा और संवेदना की भीख मांग रहा है। देश का सबसे बड़ा और राजनीति की चैपाटी में सबसे अहम प्रदेश, उत्तर प्रदेश के इतिहास में बारहसिंगा राजकीय पशु नाम से दर्ज है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने पर कोई भी ऐसी योजना याद नहंी आती, जो बारहसिंगा के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो।
लंबी घासों में छिपने के शौकीन बारहसिंगों की संख्या तेजी से खत्म हो रहे जंगलों के साथ कम हो रही है। हिरणों की इस खूबसूरत प्रजाति के गायब होने में ग्लोबल वार्मिंग, अवैध शिकार व जलवायु में बदलाव जैसे कारण बेहद अहम हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद देश की कुल प्रजातियों में 8.86 प्रतिशत प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में खत्म हो चुके बारहसिंगे अब सिर्फ भारत के उत्तरी और मध्य क्षेत्रों पर निर्भर हैं। दक्षिण-पश्चिम में नेपाल में ज़रूर इनकी अच्छी-खासी संख्या है, पर किसी ज़माने में उत्तर प्रदेश की झाडि़यों में फुदकते बारहसिंगे अब सिर्फ तस्वीरें ही छोड़ गए हैं। 170-283 किलो वजनी, व लगभग 60 इंच लंबे इस मासूम जीव ने देखने वालों को तो अपने शानदार करतबों से खुश किया, पर खतरनाक जानवरों व शिकारियों की नज़रों में हमेशा खटकता रहा। रेशमी रूह और बेशकीमती सींगों ने बारहसिंगों को तस्करी के दलदल में ढकेल दिया। लालच और लोभ के आगे मासूमियत और सुंदरता की एक न चली और देखते-देखते एक चंचल-शांत जीव हमारे बीच से गायब सा होने लगा।
आमतौर पर नदियों के करीब रहने वाले इन जीवों की संख्या 1964 में 3000-4000 के बीच थी, जो बीते दशक में आधी से भी कम रह गई। असम के काजीरंगा नेशनल पार्क व मानव नेशनल पार्क में इस जीव पर गहरा शोध चला व इनकी देख-रेख पर खासा योजनाएं लाईं गईं। दरअसल बेहद डरपोंक और असहाय होना भी इस जीव के मारे जाने का बड़ा कारण रहा। खुद को बचाने में कमज़ोर इस प्रजाति को जो सरकारी व सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली और परिणाम आज हमारे सामने है। लंबी घास इन्हें सिर्फ भोजन ही नहीं, नन्हें शावकों के लिए सुरक्षा-कवच का भी काम करतीं थीं, जिन्हें हम इंसानों ने विकास के नाम पर ताबड़तोड़ उखाड़ना शुरु कर दिया। बारहसिंगों में यदि एक भी साथी मारा जाता है, तो वे बेहद असहज और सदमें में चले जाते हैं। कमज़ोर दिल होने से अक्सर हार्ट-अटैक के चलते उन्हें जान गंवानी पड़ती है। हालिया आंकड़ों में फिलहाल मध्य भारत में वन्य कर्मियों की चुस्त देखरेख से इनकी संख्या 600 हुई है, पर बाकी जगहों से गायब हो रहे बारहसिंगों को नजरंदाज़ करना निहायत बेइमानी होगी। कभी मध्य प्रदेश का राजकीय पशु रह चुका बारहसिंगा अब किताबों में उत्तर प्रदेश की शान के नाम से दर्ज तो है, पर सुविधाएं और सुरक्षा उससे कोसों दूर है।
उत्तर प्रदेश के कानपुर में बीते दिनों दर्जनों हिरण लापरवाही और ढुल-मुल प्रशासनिक रवैए की भेंट चढ़ गए। कार्रवाई के नाम पर जू निदेशक का तबादला हुआ और मामले की लीपापाती कर प्रदेश में लाॅयन सफारी व वन्य संपदा बचाने जैसी छिटपुट योजनाएं मंच से उछाल दी गईं। सियासत में संवेदना के इस सूखे ने हज़ारों प्रजातियों, को सरकारी वेतन पर ऐश कर रहे अधिकारियों-कर्मचारियों के भरोसे छोड़ दिया है। योजनाएं कागजों पर फल-फूल रहीं हैं, और पर्यावरण के मोती कहे जाने वाले जीव-जंतु घुट-घुट कर मर रहे हैं। चिडि़याघरों ने शोकेस की शक्ल ले ली है और उनमें काम कर रहे कर्मचारी शोपीस साबित हो रहे हैं। संवेदनशील और जानकार वन्य विशेषज्ञों को तवज्जो न देना भी सरकार की एक खामी है, जो आगे चलकर समाज को सिर्फ पछतावा ही देगी।
सही तस्वीर में झांकें तो कहना गलत नहंी होगा कि बारहसिंगा की मासूम और खूबसूरत प्रजातियों के दुर्लभ दर्शन अब सिर्फ पांच राष्ट्रीय उद्यानों में किए जा सकते हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश में सिर्फ दुधवा नेशनल पार्क, मध्य प्रदेश में कान्हा और इंद्रावती, असम में काजीरंगा और मानस प्रमुख हैं। लंबी घासों से झांकती बड़ी सी काली आंखें और झाडि़यों में तैरते लंबे सींगों की कहानी जितनी इमोशनल और फीलगुड लगती है, असलियत में उतनी ही दर्दनाक भी है। प्रकृति के इस नायाब तोहफे को तस्कर नोंच रहे हैं, कटते जंगल बेघर कर रहे हैं, और हम सिर्फ और सिर्फ तमाशा देख रहे हैं। योजनाएं आती रहेंगी, शोध चलते रहेंगे, संस्थाएं साल दर साल गिनतियां करती रहेंगी, पर क्या बारहसिंगों का झुंड हमारी आंखों के सामने हंसता-खेलता फुदकता दिखेगा ..? क्या ऐसा वक्त करीब है जब किताबों और पोस्टरों में ही बारह सींग वाले इस जानवर की तस्वीरें हम देख पाएंगे ..? क्या वाकई हम जंगलों के साथ-साथ इस मासूम और चंचल प्रजाति को देखने के लिए तरस जाएंगे ..? ऐसे ही सवालों के साथ मेरा यह लेख तो खत्म हो रहा है, पर विकास और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की खूबसूरत साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?