Saturday 11 May 2013


बेबस आंखों में ’शिकायत’ के आंसू ....


बारहसिंगा को उत्तर प्रदेश के राजकीय पशु होने का तमगा हासिल है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने के बाद कोई भी ऐसी सरकारी योजना याद नहीं आती, जो इस प्रजाति के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो। सफलता और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की शानदार साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?

एक बेहद सीधा और मासूम जीव, जो आज तक लोगों के दिलों पर राज करता रहा। जिसने हमेशा अपनी मासूम हरकतों से बच्चों-बड़ों, सभी के चेहरों पर मुस्कराहट दी। बड़ी सी काली आंखें, दर्जनभर सींगों से सजा सिर, सरपट दौड़ती-कूदती पतली टांगों वाला बारहसिंगा आज बेबस है। प्रकृति की बिछाई जंगलों की चादर तेज़ी से खत्म हो रही है। जल, ज़मीन और जि़ंदगी के लिए जद्दोजहद कर रहे उत्तर प्रदेश के इस राजकीय पशु को न समाज कुछ दे पाया और न सियासत। प्रदेश की सरकारें चिडि़याघरों व उद्यानों पर बेशुमार खर्च तो करती रहीं, पर हमेशा की तरह सियासत, संवेदना पर हावी ही रही। आधुनिकता और औद्योगीकरण के भीड़ भरे मेले में तमाम जीव-जंतुओं समेत बारहसिंगा भी हम इंसानों से सुरक्षा और संवेदना की भीख मांग रहा है। देश का सबसे बड़ा और राजनीति की चैपाटी में सबसे अहम प्रदेश, उत्तर प्रदेश के इतिहास में बारहसिंगा राजकीय पशु नाम से दर्ज है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने पर कोई भी ऐसी योजना याद नहंी आती, जो बारहसिंगा के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो।
लंबी घासों में छिपने के शौकीन बारहसिंगों की संख्या तेजी से खत्म हो रहे जंगलों के साथ कम हो रही है। हिरणों की इस खूबसूरत प्रजाति के गायब होने में ग्लोबल वार्मिंग, अवैध शिकार व जलवायु में बदलाव जैसे कारण बेहद अहम हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद देश की कुल प्रजातियों में 8.86 प्रतिशत प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में खत्म हो चुके बारहसिंगे अब सिर्फ भारत के उत्तरी और मध्य क्षेत्रों पर निर्भर हैं। दक्षिण-पश्चिम में नेपाल में ज़रूर इनकी अच्छी-खासी संख्या है, पर किसी ज़माने में उत्तर प्रदेश की झाडि़यों में फुदकते बारहसिंगे अब सिर्फ तस्वीरें ही छोड़ गए हैं। 170-283 किलो वजनी, व लगभग 60 इंच लंबे इस मासूम जीव ने देखने वालों को तो अपने शानदार करतबों से खुश किया, पर खतरनाक जानवरों व शिकारियों की नज़रों में हमेशा खटकता रहा। रेशमी रूह और बेशकीमती सींगों ने बारहसिंगों को तस्करी के दलदल में ढकेल दिया। लालच और लोभ के आगे मासूमियत और सुंदरता की एक न चली और देखते-देखते एक चंचल-शांत जीव हमारे बीच से गायब सा होने लगा।
आमतौर पर नदियों के करीब रहने वाले इन जीवों की संख्या 1964 में 3000-4000 के बीच थी, जो बीते दशक में आधी से भी कम रह गई। असम के काजीरंगा नेशनल पार्क व मानव नेशनल पार्क में इस जीव पर गहरा शोध चला व इनकी देख-रेख पर खासा योजनाएं लाईं गईं। दरअसल बेहद डरपोंक और असहाय होना भी इस जीव के मारे जाने का बड़ा कारण रहा। खुद को बचाने में कमज़ोर इस प्रजाति को जो सरकारी व सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली और परिणाम आज हमारे सामने है। लंबी घास इन्हें सिर्फ भोजन ही नहीं, नन्हें शावकों के लिए सुरक्षा-कवच का भी काम करतीं थीं, जिन्हें हम इंसानों ने विकास के नाम पर ताबड़तोड़ उखाड़ना शुरु कर दिया। बारहसिंगों में यदि एक भी साथी मारा जाता है, तो वे बेहद असहज और सदमें में चले जाते हैं। कमज़ोर दिल होने से अक्सर हार्ट-अटैक के चलते उन्हें जान गंवानी पड़ती है। हालिया आंकड़ों में फिलहाल मध्य भारत में वन्य कर्मियों की चुस्त देखरेख से इनकी संख्या 600 हुई है, पर बाकी जगहों से गायब हो रहे बारहसिंगों को नजरंदाज़ करना निहायत बेइमानी होगी। कभी मध्य प्रदेश का राजकीय पशु रह चुका बारहसिंगा अब किताबों में उत्तर प्रदेश की शान के नाम से दर्ज तो है, पर सुविधाएं और सुरक्षा उससे कोसों दूर है।
उत्तर प्रदेश के कानपुर में बीते दिनों दर्जनों हिरण लापरवाही और ढुल-मुल प्रशासनिक रवैए की भेंट चढ़ गए। कार्रवाई के नाम पर जू निदेशक का तबादला हुआ और मामले की लीपापाती कर प्रदेश में लाॅयन सफारी व वन्य संपदा बचाने जैसी छिटपुट योजनाएं मंच से उछाल दी गईं। सियासत में संवेदना के इस सूखे ने हज़ारों प्रजातियों, को सरकारी वेतन पर ऐश कर रहे अधिकारियों-कर्मचारियों के भरोसे छोड़ दिया है। योजनाएं कागजों पर फल-फूल रहीं हैं, और पर्यावरण के मोती कहे जाने वाले जीव-जंतु घुट-घुट कर मर रहे हैं। चिडि़याघरों ने शोकेस की शक्ल ले ली है और उनमें काम कर रहे कर्मचारी शोपीस साबित हो रहे हैं। संवेदनशील और जानकार वन्य विशेषज्ञों को तवज्जो न देना भी सरकार की एक खामी है, जो आगे चलकर समाज को सिर्फ पछतावा ही देगी।
सही तस्वीर में झांकें तो कहना गलत नहंी होगा कि बारहसिंगा की मासूम और खूबसूरत प्रजातियों के दुर्लभ दर्शन अब सिर्फ पांच राष्ट्रीय उद्यानों में किए जा सकते हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश में सिर्फ दुधवा नेशनल पार्क, मध्य प्रदेश में कान्हा और इंद्रावती, असम में काजीरंगा और मानस प्रमुख हैं। लंबी घासों से झांकती बड़ी सी काली आंखें और झाडि़यों में तैरते लंबे सींगों की कहानी जितनी इमोशनल और फीलगुड लगती है, असलियत में उतनी ही दर्दनाक भी है। प्रकृति के इस नायाब तोहफे को तस्कर नोंच रहे हैं, कटते जंगल बेघर कर रहे हैं, और हम सिर्फ और सिर्फ तमाशा देख रहे हैं। योजनाएं आती रहेंगी, शोध चलते रहेंगे, संस्थाएं साल दर साल गिनतियां करती रहेंगी, पर क्या बारहसिंगों का झुंड हमारी आंखों के सामने हंसता-खेलता फुदकता दिखेगा ..? क्या ऐसा वक्त करीब है जब किताबों और पोस्टरों में ही बारह सींग वाले इस जानवर की तस्वीरें हम देख पाएंगे ..? क्या वाकई हम जंगलों के साथ-साथ इस मासूम और चंचल प्रजाति को देखने के लिए तरस जाएंगे ..? ऐसे ही सवालों के साथ मेरा यह लेख तो खत्म हो रहा है, पर विकास और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की खूबसूरत साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?



1 comment:

  1. जी आगे से सुधार का आश्‍वासन देता हूं। शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिए । आपका कमियां बताना मेरे लिए सच्‍ची तारीफ है। पुनीत जी ।

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