आफतों के परिंदे
चिन्नू जैसे कई मासूम बेज़ुबानों को हम भले ही आज़ादी से जीने का मौका दें, पर वही आज़ादी जब उनकी जान ले ले, तब जि़म्मेदारी किस पर आती है ...? मुझ पर, मेरे इरादों पर, उन उसूलों और सिद्धांतों पर या फिर खुद प्रकृति पर .....? आप ही बताएं .....!
उसूल और सिद्धांत घर के बने उस देशी घी की तरह हैं, जिन्हें अचानक अपना लिया जाये तो पचाने में दिक्कत आती है। कुछ नियम-कायदे, किताबों और संत-महात्माओं के मुख से बड़े शानदार और मीठे लगते हैं, पर हकीकत में उनका अंजाम उस पौष्टिक दूध की तरह होता है, जिसमें ज़रा सा भी नमक गिर जाये तो वह फट जाता है, और उसके फायदे-नुकसान मलाई और पानी की शक्ल में अलग होने लगते हैं। जीव हो या इंसान सभी को आज़ादी पसंद है, कायनात और किताब दोनों यही दलील देती आईं है। कैद में रहना, नर्क जैसा है, पर ऐसी आज़ादी और खुली छूट भी किस काम की कि जान पर ही बन आये। एक छोटा सा जीव, जिसे पुराणों में गणेश जी की सवारी कहा गया है, दुनिया उसे ’चूहा’ कहती है, पर मैने उसे ’चिन्नू’ नाम दिया था।
मैं अक्सर स्कूल जाते वक्त, एक बाज़ार से रू-ब-रू होता था, जहां शनिवार के दिन परिंदों का सौदा हुआ करता था। दूर-दराज़ के पक्षियों-जीव-जंतुओं को खरीदने-बेंचने दूर-दराज़ से सौदागर आया करते थे। किसी पिंजरे से खरगोश झांक रहा होता था, तो किसी छेदनुमा डिब्बे से रंग-बिरंगे तोतों का जोड़ा। कबूतर तो बेंचने वालों की पीठ पर सवार हो जाते थे, मानो वे अपने ही सौदे का मोलभाव देखकर खुद को धिक्कार रहे हैं। खरगोश, कबूतर, तोते, चूहे और न जाने कितने ही प्रकृति के नायाब नमूने वहां बिकने आते थे। एक दिन मेरे दिल में भी इन्हें पालने का शौक उठा, जाकर खड़ा हो गया, उस शोरगुल भरे बाज़ार में। पक्षियों का शोरगुल, कानों को परेशान नहीं करता, कवियों ने इसे कलरव कहा है। प्रकृति इस शोर के सहारे मानो कुछ संदेश दे रही हो कि वह खुश है, खिलखिला रही है।
मैं पहले सफेद कबूतरों को लेने के पक्ष में था। एक खरीदार, जिसकी आंखों में कीचड़ लगा था, पर अच्छे दाम में बेंचने की चमक बरकरार थी। ’’कितने का देंगे भाई ....?’’ मैंने सहमते हुए पूछा, ’’अस्सी रुपए जोड़ा है’’ बहुत सीधा है, जैसे रखेंगे, वैसे ही रहेगा’’ उसने जवाब दिया। मैंने हाथ बढ़ाकर उन्हें छूने की कोशिश की, पर वे फड़फड़ाकर दूर उड़ चले। पास ही, उस बेचने वाले का बेटा, दोनों हाथों में सफेद चूहे लिए खड़ा था। उनकी सफेद रूह में काली आंखें मानो मुझ पर हंस रहीं हों, और कह रहीं हों, कि आज़ादी को अस्सी रुपए में खरीदने चला आया। मैंने हाथ बढ़ाकर एक चूहे को उठाया, और प्यार से उस पर अपनी दो उंगलियां फिराईं, वह मुझसे ज़रा भी दूर नहीं भागा। अपने हाथों में उसे महफूज़ और सहज पाकर मैंने उसे खरीदने का निश्चय किया और शर्ट की उपर वाली जेब में डालकर, साइकिल दौड़ाते हुए घर ले आया।
मां बहुत खुश हुई, पर बाबू जी की त्यौरियां कुछ दिन चढ़ी रहीं। शायद वे अंजाम को भांप गए थे। मां और मैंने उसकी खूब देखभाल की। पिता जी बोले, इसे पिंजड़े में रखो, वरना बिल्ली आती-जाती रहती है, ले जायेगी पंजों में दबाकर। मैंने टाल दिया, और सिद्धांतों की आवाज़ सुनी कि आज़ाद रहने दो, घूमने दो इस सफेद फरिश्ते को। कभी चावल को कटोरी में परोसकर उसके सामने रख आता, तो कभी दूध की प्याली उसके नन्हें पंजों के बीच सटाकर रख देता। कई दिन हो गए, अब वह मेरा दोस्त बन चुका था। ’चिन्नू’ नाम की तो जैसे उसे आदत हो गई थी। मैं स्कूल के लिए तैयार होता, तो वह झट से कूदकर मेरी शर्ट की उसी जेब में आ बैठता, जिसमें वह पहली बार आया था। नाश्ते के कुछ दाने जब तक उसे न देता, मेरे हाथों में पंजे मारता रहता। स्कूल से लौटकर जब मैं खाना खाने बैठता, तब ही उसे भी भूख लगती थी। हम अपनी थाली के कुछ निवाले उसकी प्याली में रखते थे, और दोनों साथ ही ’पेटपूजा’ किया करते थे। महीने बीत गए, उसे कमरे में बंद करने का सिलसिला चलता रहा।
चिन्नू मेरे घर के हर रास्ते से अंजान था। वह भले ही बड़े से कमरे में था, पर बाहरी दुनिया से पूरी तरह बेखबर। उसे तो पता भी नहीं था, कि खुला छोड़ देने पर वह अपने से ताकतवर जानवरों का शिकार बन सकता है। एक दिन अचानक मां से उसके कमरे का दरवाज़ा खुला रह गया। चिन्नू रूमाल में लिपड़ा चावल के दाने कुरमुरा रहा था। पिता जी ने पिंजड़े में रखने की बात शायद इसी दिन के लिए कही थी। सरसराते हुए बिल्ली अंदर आई, और उस मासूम चिन्नू को दबोचकर न जाने कहां ले गई। चिन्नू ने ज़रूर उन हाथों को याद किया होगा, जो उसे दुलारते थे, खिलाते थे, पिलाते थे। जिसने उसे नई जि़न्दगी दी थी, जिसने उसे पिंजड़े में रखने की मुखाल्फत की थी। घर लौटकर मां का चेहरा कुछ उतरा सा था, पर मुझे अंदाज़ा नहीं था कि इतना कुछ हो गया होगा।
आज चिन्नू नहीं है, करीब चार-पांच साल पहले फरवरी महीने में वह प्रकृति के चक्र का शिकार हो गया। उसे आज़ाद रखने की इच्छा ही काल बन गई। आज जब भी कोई आज़ादी को जन्नत या स्वर्ग कहता है, तो बड़ा अजीब लगता है। कैद कहीं-कहीं कितनी खुशनुमा होती है, जान तो कम से कम बचा ही लेती है। यदि चिन्नू किसी पिंजड़े में कैद होता, तो आज भी उन्हीं काली आंखों से मेरा और मेरे परिवार का मनोरंजन कर रहा होता, खेल रहा होता, फुंदक रहा होता। उसकी याद हमेशा रहेगी, पर एक कड़वा सच भी हमेशा कुरेदता रहेगा कि आज़ादी ही सबकुछ नहीं है। सुरक्षा और हिफाज़त आज भी सींखचों की मोताज है। आज़ादी और खुलेपन के साथ आज भी जोखिम का हौवा है, जो मौका लगने पर किसी भी हद तक नुकसान पहुंचा सकता है। चिन्नू जैसे कई मासूमों बेज़ुबानों को हम भले ही आज़ादी से जीने का मौका दें, पर वही आज़ादी जब उनकी जान ले ले, तब जि़म्मेदारी किस पर आती है ...? मुझ पर, मेरे इरादों पर, उन उसूलों और सिद्धांतों पर या फिर खुद प्रकृति पर .....? आप ही बताएं .....!