Sunday 31 March 2013


आफतों के परिंदे 


चिन्नू जैसे कई मासूम बेज़ुबानों को हम भले ही आज़ादी से जीने का मौका दें, पर वही आज़ादी जब उनकी जान ले ले, तब जि़म्मेदारी किस पर आती है ...? मुझ पर, मेरे इरादों पर, उन उसूलों और सिद्धांतों पर या फिर खुद प्रकृति पर .....? आप ही बताएं .....!

उसूल और सिद्धांत घर के बने उस देशी घी की तरह हैं, जिन्हें अचानक अपना लिया जाये तो पचाने में दिक्कत आती है। कुछ नियम-कायदे, किताबों और संत-महात्माओं के मुख से बड़े शानदार और मीठे लगते हैं, पर हकीकत में उनका अंजाम उस पौष्टिक दूध की तरह होता है, जिसमें ज़रा सा भी नमक गिर जाये तो वह फट जाता है, और उसके फायदे-नुकसान मलाई और पानी की शक्ल में अलग होने लगते हैं। जीव हो या इंसान सभी को आज़ादी पसंद है, कायनात और किताब दोनों यही दलील देती आईं है। कैद में रहना, नर्क जैसा है, पर ऐसी आज़ादी और खुली छूट भी किस काम की कि जान पर ही बन आये। एक छोटा सा जीव, जिसे पुराणों में गणेश जी की सवारी कहा गया है, दुनिया  उसे ’चूहा’ कहती है, पर मैने उसे ’चिन्नू’ नाम दिया था।
मैं अक्सर स्कूल जाते वक्त, एक बाज़ार से रू-ब-रू होता था, जहां शनिवार के दिन परिंदों का सौदा हुआ करता था। दूर-दराज़ के पक्षियों-जीव-जंतुओं को खरीदने-बेंचने  दूर-दराज़ से सौदागर आया करते थे। किसी पिंजरे से खरगोश झांक रहा होता था, तो किसी छेदनुमा डिब्बे से रंग-बिरंगे तोतों का जोड़ा। कबूतर तो बेंचने वालों की पीठ पर सवार हो जाते थे, मानो वे अपने ही सौदे का मोलभाव देखकर खुद को धिक्कार रहे हैं। खरगोश, कबूतर, तोते, चूहे और न जाने कितने ही प्रकृति के नायाब नमूने वहां बिकने आते थे। एक दिन मेरे दिल में भी इन्हें पालने का शौक उठा, जाकर खड़ा हो गया, उस शोरगुल भरे बाज़ार में। पक्षियों का शोरगुल, कानों को परेशान नहीं करता, कवियों ने इसे कलरव कहा है।  प्रकृति इस शोर के सहारे मानो कुछ संदेश दे रही हो कि वह खुश है, खिलखिला रही है।
मैं पहले सफेद कबूतरों को लेने के पक्ष में था। एक खरीदार, जिसकी आंखों में कीचड़ लगा था, पर अच्छे दाम में बेंचने की चमक बरकरार थी। ’’कितने का देंगे भाई ....?’’ मैंने सहमते हुए पूछा, ’’अस्सी रुपए जोड़ा है’’ बहुत सीधा है, जैसे रखेंगे, वैसे ही रहेगा’’ उसने जवाब दिया। मैंने हाथ बढ़ाकर उन्हें छूने की कोशिश की, पर वे फड़फड़ाकर दूर उड़ चले। पास ही, उस बेचने वाले का बेटा, दोनों हाथों में सफेद चूहे लिए खड़ा था। उनकी सफेद रूह में काली आंखें मानो मुझ पर हंस रहीं हों, और कह रहीं हों, कि आज़ादी को अस्सी रुपए में खरीदने चला आया। मैंने हाथ बढ़ाकर एक चूहे को उठाया, और प्यार से उस पर अपनी दो उंगलियां फिराईं, वह मुझसे ज़रा भी दूर नहीं भागा। अपने हाथों में उसे महफूज़ और सहज पाकर मैंने उसे खरीदने का निश्चय किया और शर्ट की उपर वाली जेब में डालकर, साइकिल दौड़ाते हुए घर ले आया।
मां बहुत खुश हुई, पर बाबू जी की त्यौरियां कुछ दिन चढ़ी रहीं। शायद वे अंजाम को भांप गए थे। मां और मैंने उसकी खूब देखभाल की। पिता जी बोले, इसे पिंजड़े में रखो, वरना बिल्ली आती-जाती रहती है, ले जायेगी पंजों में दबाकर। मैंने टाल दिया, और सिद्धांतों की आवाज़ सुनी कि आज़ाद रहने दो, घूमने दो इस सफेद फरिश्ते को। कभी चावल को कटोरी में परोसकर उसके सामने रख आता, तो कभी दूध की प्याली उसके नन्हें पंजों के बीच सटाकर रख देता। कई दिन हो गए, अब वह मेरा दोस्त बन चुका था। ’चिन्नू’ नाम की तो जैसे उसे आदत हो गई थी। मैं स्कूल के लिए तैयार होता, तो वह झट से कूदकर मेरी शर्ट की उसी जेब में आ बैठता, जिसमें वह पहली बार आया था। नाश्ते के कुछ दाने जब तक उसे न देता, मेरे हाथों में पंजे मारता रहता। स्कूल से लौटकर जब मैं खाना खाने बैठता, तब ही उसे भी भूख लगती थी। हम अपनी थाली के कुछ निवाले उसकी प्याली में रखते थे, और दोनों साथ ही ’पेटपूजा’ किया करते थे। महीने बीत गए, उसे कमरे में बंद करने का सिलसिला चलता रहा।
चिन्नू मेरे घर के हर रास्ते से अंजान था। वह भले ही बड़े से कमरे में था, पर बाहरी दुनिया से पूरी तरह बेखबर। उसे तो पता भी नहीं था, कि खुला छोड़ देने पर वह अपने से ताकतवर जानवरों का शिकार बन सकता है। एक दिन अचानक मां से उसके कमरे का दरवाज़ा खुला रह गया। चिन्नू रूमाल में लिपड़ा चावल के दाने कुरमुरा रहा था। पिता जी ने पिंजड़े में रखने की बात शायद इसी दिन के लिए कही थी। सरसराते हुए बिल्ली अंदर आई, और उस मासूम चिन्नू को दबोचकर न जाने कहां ले गई। चिन्नू ने ज़रूर उन हाथों को याद किया होगा, जो उसे दुलारते थे, खिलाते थे, पिलाते थे। जिसने उसे नई जि़न्दगी दी थी, जिसने उसे पिंजड़े में रखने की मुखाल्फत की थी। घर लौटकर मां का चेहरा कुछ उतरा सा था, पर मुझे अंदाज़ा नहीं था कि इतना कुछ हो गया होगा।
आज चिन्नू नहीं है, करीब चार-पांच साल पहले फरवरी महीने में वह प्रकृति के चक्र का शिकार हो गया। उसे आज़ाद रखने की इच्छा ही काल बन गई। आज जब भी कोई आज़ादी को जन्नत या स्वर्ग कहता है, तो बड़ा अजीब लगता है। कैद कहीं-कहीं कितनी खुशनुमा होती है, जान तो कम से कम बचा ही लेती है। यदि चिन्नू किसी पिंजड़े में कैद होता, तो आज भी उन्हीं काली आंखों से मेरा और मेरे परिवार का मनोरंजन कर रहा होता, खेल रहा होता, फुंदक रहा होता। उसकी याद हमेशा रहेगी, पर एक कड़वा सच भी हमेशा कुरेदता रहेगा कि आज़ादी ही सबकुछ नहीं है। सुरक्षा और हिफाज़त आज भी सींखचों की मोताज है। आज़ादी और खुलेपन के साथ आज भी जोखिम का हौवा है, जो मौका लगने पर किसी भी हद तक नुकसान पहुंचा सकता है। चिन्नू जैसे कई मासूमों बेज़ुबानों को हम भले ही आज़ादी से जीने का मौका दें, पर वही आज़ादी जब उनकी जान ले ले, तब जि़म्मेदारी किस पर आती है ...? मुझ पर, मेरे इरादों पर, उन उसूलों और सिद्धांतों पर या फिर खुद प्रकृति पर .....? आप ही बताएं .....!

Thursday 21 March 2013


रील और रियल में फ़र्क है साहब ...


दौलत-शोहरत के छलकते जाम में जब मजबूत और चैड़ी कदकाठी का काॅकटेल मिला, तो संजय ने रील किरदारों को रियल लाइफ में भी निभाना शुरु कर दिया। नशे की लत से तो वे जैसे-तेसे बाहर आ गए, पर अपनी छवि सुधारने को लेकर आज भी वे संघर्ष करते दिख रहे हैं। 20 साल बाद लौटा कानून का ’जिन्न’ क्या संजू बाबा को समाज की मुख्यधारा से जोड़ पायेगा ? बता रहे हैं मयंक दीक्षित 


घोड़ा कितना भी विश्वसनीय या सीधा क्यूं न हो, घुड़सवार को उसकी लगाम हाथ में रखनी ही होती है। वक्त और हालात खराब होने के लिए आप और आपके फायदे का इंतज़ार नहीं करते। हमें एक घुड़सवार की तरह जि़ंदगी की लगाम को भी जि़म्मेदारी और सूझबूझ से कसे रहना होता है, इससे पहले कि आपकी फितरत और जुनून इसे बेकाबू न होने दे। 12 मार्च 1993 में मायानगरी विस्फोट से दहली थी, जिसमें 257 निर्दोष लोगों की बेहद दर्दनाक मौत हुई थी। टाडा कोर्ट ने अभिनेता संजय दत्त को धमाकों के दौरान ए.के. 56 रखने पर छह साल की सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैंसले में संजय को एक साल की रियायत देकर पांच साल की सज़ा बरकरार रखी है। कैसे बाॅलुवुड के सदाबहार नायक सुनील दत्त का चिराग साल दर साल विवादों और मामलों में नज़र आता रहा, और क्या वज़ह रही कि संजय रील लाइफ के किरदार रियल लाइफ में भी बदस्तूर निभाते चले आये।
पद्मश्री सुनील दत्त साहब ने गुज़रे ज़माने में न सिर्फ बेहतरीन अभिनय से देश का दिल जीता बल्कि एक साल के साफ-सुथरे राजनैतिक कॅरिअर में भी वे बेहद व्यवहारकुशल ओर संजीदा साबित हुए। 1981 में जब संजय दत्त ने फिल्मी दुनिया में अपने कदम ज़माने की मंशा जताई, तब उन्होंने ही फिल्म राॅकी से बेटे को लांच किया। धीरे-धीरे रोमांस और नटखटी किरदारों से संजय दत्त ’बाॅलीवुड के डाॅन बन गए’, और ’मुंबई के ’संजू बाबा’। पर्दे की गुंडागीरी ने संजय की छवि को ऐसा दबंग और कद्दावर बनाया कि वे आज रियल वल्र्ड में भी अपनी मासूमियत और बेगुनाही साबित करते घूम रहे हैं।
पंजाबी परिवार में पले-बढ़े संजय ने चंडीगढ़ से स्कूली शिक्षा ली और पिता की अभिनय गाथा पढ़तेे-देखते और सुनते हुए बड़े हुए। 1987 में वे अभिनेत्री रिचा शर्मा के साथ शादी के बंधन में बंध गए, यहीं से उन पर समस्याओं की धीमी बरसात शुरु हुई। रिचा की ब्रेन ट्यूमर के चलते मौत हो गई। मां से बिछड़ने के बाद बेटी भी संजय के दुलार और प्यार से दूर नाना-नानी के साथ विदेश रहने चली गई, ऐसे वक्त में बेटी को साथ न रखने पर भी संजय के परिवार में भीतरखाने कहासुनी चलती रही। कुछ सालों बाद रिया पिल्लई के साथ उन्हेांने नए रिश्ते की शुरुआत करनी चाही पर आपसी मतभेदों के चलते दोनों मंे तलाक हो गया। आज वे मान्यता की जि़ंदगी का हिस्सा हैं, और बीस साल पहले हुई आम्र्स रखने की गलती को रुंधे गले से स्वीकारने को मजबूर भी ।
संजय को दादागीरी के साथ-साथ नशे का भी बेइंतिहां शौक रहा, 1981 के आस-पास वे नशीले पदार्थ रखने के जुर्म में पांच महीने हवालात मंे रहे। विवादों और उलझनों में संजय की सक्रिय भूमिका रही। दरअसल दर्शकों के बीच आईं उनकी फिल्मों ने भी लोगों के दिमाग में यह कूट-कूट कर भर दिया कि वे असल जि़ंदगी में भी ना-नुकर बर्दाश्त न करने वाले कद्दावर अभिनेता हैं। तमाम निर्देशकों का संजू को दादा कहकर मीडिया मंे प्रोजेक्ट करना, उन्हें फिल्मों में बंदूक-कारतूसों से सजाये रखना भी उनके लिए कुछ खास अच्छा साबित नहीं हुआ।
 फिल्म विधाता, जीवा, मेरा हक, कानून अपना अपना में संजय ने बेहद संजीदगी से कभी पुलिस के किरदार में दुश्मनों के छक्के छुड़ाये तो कभी ’दुश्मन’ बनकर पुलिस पर गोलियां बरसाईं। बाॅलवुड निर्देशकों को उस वक्त संजय के रूप में एक चैड़े सीने वाला ऐसा कलाकार मिल गया था, जिसमें हंसाने का भी हुनर था और आतंक फैलाने की प्रतिभा भी। संजय की बहुत ही कम ऐसी फिल्में रहीं जिनमें वे जाम छलकाते या धुएं के छल्ले उड़ाते नज़र नहीं आये। आतंक ओर अपराध को पर्दे पर दत्त ने दानव की तरह पेश किया, इसी बीच जब उन पर कोई भी केस दर्ज हुआ तो लोगों का भरोसा उनकी बेगुनाही से उठता गया। यही कारण है कि आज बाॅलीवुड का यह सूरमा सज़ा के चंगुल में फंस चुका है और उनके प्रशंसक भी संजू के लिए सिर्फ कोरी संवेदना ही व्यक्त कर पा रहे हैं।
1999 का एक दौर आया जब संजय दत्त को लोगों ने हाथों-हाथ लिया और उनकी छवि सुधारने मेें हसीना मान जायेगी, चल मेरे भाई, साहिबां जैसी मनोरंजक फिल्मों ने बड़ी भूमिका अदा की। हालांकि सिर्फ गुंडागीरी के किरदार ही किसी अभिनेता की छवि का पैमाना नहीं होते, पर संजय पर लगे आरोप जब सही साबित होने लगे, तो लोगों ने उनकी फिल्मों को ही संदेश के तोर पर लिया और अभिनय की विरासत लिए यह कलाकार कानून को भी अपने हाथ में लेता रहा। 2002 में आई मुन्ना भाई एमबीबीएस और लगे रहो मुन्ना भाई, से उनकी छवि सुधारने की बेजोड़ और सफल कोशिश हुई, जिसके बाद संजय दत्त काफी समय तक समाज के हितैषी बने रहे। मुन्नाभाई सीरीज़ के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी उन्हें सम्मान मिला। उनकी हालिया फिल्म अग्निपथ और जिला गाजि़याबाद भी अभिनय की कसौटी पर खरीं उतरीं। एवार्डों ओर सम्मानों में भी संजय ने फिल्मफेयर से लेकर, बेस्ट एक्टर का खिताब भी कई बार हासिल किया, पर अफसोस असल जि़ंदगी में वे बेस्ट ह्यूमन होने से हमेशा चूकते रहे।
न्यायालय के निर्णय का सम्मान करना देश के हर नागरिक का कर्तव्य है, और संजय ने भी फिलहाल मीडिया ओर प्रशंसकों से यही बात कही है, पर असल में यह चैड़ी कदकाठी का अभिनेता पूरी तरह टूट चुका है। नशे की लत ने मुन्ना भाई को भले ही बाॅलीवुड से पांच साल दूर रखा और वे वापस पटरी पर आये, पर 20 साल बाद लौटे इस जिन्न ने उनकी निजी और सामाजिक पृष्ठभूमि पर कई बेदाग छींटे उछाल दिए हैं। हथियार रखने जैसी संगीन गलती भले ही उन्होंने किसी परिस्थितिवश की हो, पर दत्तवंश का यह चिराग अब जेल में अपना प्रायश्चित करने को झुकी आंखों से तैयार है।
 संजय के प्रशंसक तब भी उन्हें निर्दोष और संजीदा मानते थे और अब भी, पर अदालतें जज़्बातों पर नहीं सुबूतों पर चलतीं हैं। यदि देश के इस नागरिक ने अपराध में पैर भिड़ाये हैं, तो सजा मिलेगी ही, और उन्हें अपनी गलती का एहसास भी करायेगी। एक बात और, राजनीति हर किसी के लिए फिट नहीं होती, अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए संजय ने भी सियासत के गलियारों में कदमताल की, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ने के बजाय, साख और निष्पक्षता में कमी आई। संजय समझ चुके होंगे कि अच्छे वक्त में जो राजनीति उनके ग्लैमर का फायदा उठा रही थी, आज वह सिर्फ संवेदना और सहानुभूति के बयानों तक सिमट कर रह गई है। फिर चाहे वह जयाप्रदा का बयान हो या मुलायम सिंह का रस्मअदायगी कंपेनसेशन, आज संजय के साथ सिर्फ उनकी गलतियां और गिले-शिकबे ही सिर झुकाये खड़े हैं। सीधे शब्दों में कहें तो संजय आज कानून के नहीं, अपने आप के अपराधी साबित हुए हैं।

Monday 11 March 2013


शक और संवेदना को ’न्यायाधीश’ न बनायें



जानकार कहते है कि अपराधी छवि रखने वालों को चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए, पर वे यह क्यूं भूल जाते हैं कि यदि कद्दावर बहुमत से जीत भी रहे हैं तो सिर्फ जनता के बेषकीमती वोटों की बदौलत ! जब तक आरोपी और अभियुक्त को एक निगाह से देखा जाता रहेगा, राजा भैया जैसे तमाम ’बाहुबली’ मीडिया और मनगणंत कहानियों के ’पैकेज-पात्र’ बनते रहेंगे।


यदि कुंडा की जनता भोली-भाली है, तो वह राजा भैया के आतंक को वोट देती आई है, और यदि वह समझदार है तो फिर उनकी मेहरबानियों और व्यवहार को। कस्बे के नल से लेकर कस्बे के कल को संवारने का जिम्मा 1996 से राजा भैया खुद संभाल रहे हैं। 26 साल की उम्र में राज और राजनीति का रास रचाते हुए आज वे पांचवीं बार निर्दलीय विधायक हैं। सियासत के सफर में उन्होंने न सिर्फ जनता का दिल जीता, बल्कि 47 मुकदमे दर्ज कराने का बदनाम रिकाॅर्ड भी बनाया। पिछले दिनों हुई डीएसपी जिया उल की हत्या की तलवार, उनके नाम, उनकी शान और उनकी आगे की सियासती तस्वीर पर लटक रही है। राजा का  इस्तीफा व संभावित गिरफ्तारी की खबरें और सीबीआई की ताबड़तोड़ इनवेस्टिगेशन, कीचड़ में उस भारी-भरकम पत्थर की तरह उछलीं है, जिसने समाजवादी सरकार और अखिलेश यादव पर कभी न धुलने वाले दाग उछाल दिए हैं।
 घर बैठे अखबार या टी.वी. की ब्रेकिंग में ’बाहुबली’ शब्द का मतलब खंूख्वार या कद्दावर समझ लेना ठीक उसी तरह है, जैसे विज्ञापनों में गोरेपन की क्रीम लगाकर  हकीकत में गोरे होने का अंदाज़ा लगा लेना। जब हमारे घर की बिजली खराब हो जाती है, तो हम पड़ोस में रह रहे ऐरे-गैरे भाईसाहब को न बुलाकर उन भाई साहब की तलाश करते हैं, जिनका ज़रा रुतबा हो, उनकी एक आवाज़ पर लाइनमैन या मैकेनिक दौड़े चले आएं। बैंकों, निगमों में काम जब कोई काम फसता या रुकता है, तो हमें प्रभावशाली व्यक्तियों की तलाश होती है, जिनकी हनक हो, पहुंच हो। हर गली-मोहल्ले में कोई न कोई ऐसा शख्स मोजूद हैं, जिसकी एक आवाज़ पर आम से खास तक उसकी हां-हुजूरी को तैयार हैं। क्या इसे बाहुबल की परिभाषा में शामिल नहीं किया जा सकता ..?
दरअसल हमने बाहुबलियों को अपराध और दुराचार के उस्तादों तक ही सीमित रख लिया है। आज यदि राजा भैया जैसे बाहुबली हैं, तो सियासत में उनकी हनक है, वे लोगों की बात ऊपर तक पहुंचाते हैं, वे मुद्दों को अमली जामा पहनाने की कुब्बत रखते हैं। जनता का वोट पाने के लिए प्रतिनिधि को जनप्रतिनिध हेाना पड़ता है, सड़क-खडंजा, नाले-नाली, पानी-बिजली, खसरा-खुजली, हर मुद्दों को सुलझाने की दिशा-दशा पर गौर करना पड़ता है।
अभी तक इस्तेमाल किए गए वाक्यों से आपको यह राजा भैया के पक्ष मंे लिखा हुआ लेख लग सकता है, पर लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यदि जनता है, तो उसके नतीज़े व निर्णय का भी सम्मान करना चाहिए। यदि आरोपी और अभियुक्त को एक निगाह से देखा जायेगा, तो ज़ाहिर है, राजा भैया जैसे तमाम ’बाहुबली’ मीडिया और मनगणंत कहानियों के  ’पैकेज-पात्र’ बनते रहेंगे। यह सच है कि महीनों से सीओ हक, राजा की क्राइम-हिस्ट्री तैयार करवाने में अहम भूमिका निभा रहे थे, पुलिसिया कार्रवाई पर राजा की तिरछीं नज़र थी, पर सिर्फ उनके समर्थकों की घटनास्थल पर मौजूदगी को कैसे मान लिया गया कि हक की हत्या, राजा की सोची-समझी साजिश थी। ऐसे तो जब दिल्ली रेप केस में इंडिया गेट पर धरना दे रहे आम आदमी पार्टी के फर्जी कार्यकर्ता बनकर एक युवक ने पुलिस पर ईंट-पत्थर चलाये थे, तब अरविंद को कटघरे में नहीं लिया गया! चूंकि आगे की जांच में सामने आ गया था कि अमुक युवक अरविंद की छवि बिगाड़ने आया था।
हो सकता है, कुंडा की प्रधानी रंजिश में राजा व प्रधान  समर्थकों के बीच भी शायद ऐसा ही कोई भेश-बदलिया घुस आया हो, जिसने इस तरह का घिनौना अपराध किया। सीबीआई जांच में दूध का दूध पानी का पानी होने की उम्मीद हम सभी को है, पर सीओ की हत्या के सुराग लगने तक बाहुबल की गलत परिभाषा गढ़ने से हमें बचना होगा। हत्या, हत्या का प्रयास, रेप, रेप का प्रयास, गैंगरेप, गैंगस्टर एक्ट जैसी संगीन धाराओं ने राजा भैया की सामाजिक छवि धूमिल की है। उन पर आरोप लगना लाजि़मी है, पर मौजूदा केस में संवेदना के आगे न्यायिक व्यवस्था और संविधान को बौना समझना हमारी भूल भी बन सकती है।
बसपा सरकार की नज़रों में राजा हमेशा से खटकते रहे, सपा राज में उन्हें चैन-ओ-सुकून मिला तो बसपा में जेल की रोटियां। हो सकता है, विपक्षी सत्ताहीन-समर्थकों ने राजा को मंत्री पद पर देख, नुकसान पहुंचाने की कोशिश की हो। उदाहरण के तौर पर, एक बार चोरी करने के जुर्म में जो एक बार जेल की शक्ल देख आते हैं, शहर में बड़ी डकैती होने पर सबसे पहले उन्हें ही धरा जाता है। वह भी सिर्फ शक के आधार पर। इसलिए भी कि, वे अपना विश्वास और सम्मान खो चुके होते हैं।
राजा की दबंगई छवि को भुनाने के लिए ही शायद सीओ को जान से मारने का खेल रचा गया हो, ताकि इल्ज़ाम का घड़ा राजा और उनके समर्थकों पर फूटे! ऐसे में सीओ की ईमानदारी और राजा से उनकी दूरी को प्लसप्वाइंट के तौर पर देखा गया हो। फिलहाल ऐसे ही कई पहलुओं पर सीबीआई और प्रतापगढ़ पुलिस भी छानवीन कर रही है। कभी-कभी संवेदना का पहाड़ इतना भारी और और ताकतवर हो जाता है कि सच और तथ्य उसके नीचे दबने लगते हैं। सपा सरकार का दिनोंदिन लोकप्रिय होना, चुनावी वादों का सिलसिलेवार पूरा होना किसी भी विरोधीवर्ग की जलन का कारण बन सकता है। ऐसे में घटना को अंजाम देकर सरकार और नौकरशाहों को हाशिए पर लाने की कोशिश भी इस हत्या का मुखौटा हो सकती है।
फिलहाल शहीद सीओ की पत्नी और भाई को नौकरी और मुआवजे का भले ही ’समुदाय-विशेष बतंगड़’ बनाया जा रहा हो, पर हमें इसे नैतिक कदम मानना होगा। आरोप लगने के बाद राजा का इस्तीफा, मुख्यमंत्री समेत प्रदेश सरकार का सीबीआई जांच पर गंभीर रुख विश्वास जगाता है कि जल्द ही दोषी सामने आयेगा। मुआवजे की रकम और नौकरी, एक ईमानदार, कर्मठ आॅफीसर की कीमत तो नहीं चुका सकती पर इस शहादत के बदले सरकार को पीडि़त परिवार को न्याय ज़रूर दिलवाना होेगा। हवा में तीर मारकर हम असली गुनाहगार से कहीं छिटक न जाएं, यह बात ध्यान में रखनी होगी। सीबीआई से भी जनता यही उम्मीद कर रही है कि डिप्टी सीएमओ सचान और आरुषि हत्याकाण्ड की तरह वह यहां विफल साबित न हो !

Saturday 9 March 2013



’पूसी कैट’ अशुभ कैसे हो गई ...?


जब तुम नासमझ थे, तब हमसे खेलते थे, आज जब समझदार हो तो हमारी फीलिंग्स से खेल रहे हो। है। अषुभ हम नहीं, तुम्हारे ख्याल हैं, जो हम बेज़ुबानों की ’म्याउं-म्याउं’ को आधुनिकता और ’समझदारी’ के साइरन से कंपेयर कर रहे हैं।



मेरा धीरे से ’म्याउं’ करना ही मेरी कमज़ोरी थी,  दरवाज़े के पीछे छिपकर तुम्हारी जि़ंदगी में मुझे झांकना ही नहीं चाहिए था। दरअसल मुझे तो तुमसे शिकायत करनी चाहिए कि बचपन में अंग्रेजी की किताब लेकर तुम क्यूं पूरे घर में ’पूसी कैट-पूसी कैट’ सुनाया करते थे ? जब तुम रोना बंद नहीं करते थे, तो मां भी तुम्हें यह कहकर डरा देती थी कि ’’चुप करो नहीं तो म्याउं आ जायेगी’’। देखो न ! मैं आज भी वैसी ही हूं, तुम्हारी छत पर से झांकती हूं, जब तुम निकलते हो तो तुम्हें अपना एहसास कराती हूं, पर जैसे ही मैं किसी गली या सड़क पर तुम्हारा बचपन याद दिलाने निकलती हूं तो तुम मुझे अशुभ मानकर वापस लौट जाते हो।
तुम्हारी मां जो लोरी में मुझे म्याउं कहकर दुलारती थी, उससे मिलने जब मैं किचेन में जाती हूं, तो मेरे पीछे डंडा लेकर दौड़ पड़ती है। उन दिनों ’’पूसी-कैट-पूसी कैट’’ जैसे ही तुम ज़ोर-ज़ोर से पढ़ते थे, मैं तुरंत तुम्हें सुनने तुम्हारे आंगन दौड़ पड़ती थी, तब तुम्हारी छत पर जाल नहीं था, मैं गुपचुप सीढि़यों से नीचे आ जाती थी। जैसे ही तुम मुझे देख लेते थे, किलकारियां मारकर हंस देते थे, क्या तब मैं तुम्हारे लिए ’शुभ’ थी ..? तब तो तुम मेरे रास्ता काटने पर कभी वापस नहीं लौटे। जैसे-जैसे तुम समझदार होते गए, तुमने अपनी प्यारी पूसी को अशुभ मान लिया। अब तुम्हें हम बिल्लियां, अशुभ-अपशकुन का आइना नज़र आतीं हैं।
याद है उस दिन जब तुमने मेरे लिए एक कटोरी में दूध रखा था, और दूर से मेरे आने का इंतज़ार कर रहे थे। मैंने अपने घर में तुम्हारे बारे में खूब बातें की थीं, उस एक कटोरी दूध से भले ही मेरा पेट न भरा हो, पर मेरा मन ज़रूर भर गया था। उस दिन मैंने तुम्हें और मां को मन ही मन ढेर सारा ’थैंक्यू’ बोला था। आज कई सालों बाद जब तुम एक बड़े अफसर बन गए हो, तुम्हें मेरा ख्याल ही नहीं आता। कल तुम नहीं थे, तो मैं छत पर तुम्हें आवाज़ लगाने आई थी, मेरी ’म्याउं-म्याउं’ सुनकर मां ने तुम्हारे भाई को डंडा लेकर मुझे भगाने भेजा। उन्हेांने बुदबुदाया कि ’बिल्ली का रोना अशुभ होता है, भगाओ इसे ’’! क्या हम बेज़ुबान भी शुभ-अशुभ हो सकते हैं ..?
शायद हमें बनाने के बाद उपर वाले ने गलती से तुम इंसानों के बीच भेज दिया है। वे इंसान जो बचपन में मुझसे खूब खेलना चाहते हैं, मेरी म्याउं सुनकर हंसना चाहते हैं, और जैसे-जैसे वे और उनकी अक्ल बड़ी होती है, हम उनके लिए अशुभ ओर अपशकुन बन जाते हैं। ऐसे ही मेरी एक सहेली पर पिछले दिन एक अंकल ने कार चढ़ा दी। उन्होंने पलटकर भी उसे नहंी देखा, और तड़पता छोड़कर धूल उड़ाते हुए निकल लिए। दरअसल वह कभी उनकी पालतू बिल्ली हुआ करती थी, एक दिन खेल-खेल में उसने उनके टी-मग में मूंह मार दिया तो उन्हेांने उसे पीटकर घर से बाहर कर दिया। जब भी वे गाड़ी लेकर आॅफिस को निकलते थे, तो वह उन्हें सीआॅफ करने जाया करती थी। उस दिन भी वह उन्हें शायद यही करने गई थी, पर अपनी नन्हीं सी जान को उनके प्यार पर कुर्बान कर आई।
माना कि हमें दूध पीना पसंद है, माना कि हम दिखने में भद्दे हैं, हमारी म्याउं-म्याउं इस दुनिया में अपशकुन की पहचान बन चुकी है, पर हमारी नन्हीं जान ने आज तक तुम लोगों को कभी नुकसान नहीं पहुंचाया। जब-जब तुम्हारा बेटा रोया तो उसके हांेठों पर अपनी धीमी सी ’म्याउं’ से मुस्कान ला दी।  पूसी-कैट जैसी कविताएं सुनकर हम खूब खुश हुए, पर जैसे-जैसे तुम ब़ड़े होते गए, तुमने हमें अपनी जि़ंदगी से बाहर ही नहीं किया, हमारी बेइज्जति भी की। जो रास्ते तुम्हारे लिए हैं, वे ही हमारे लिए भी हैं, जिन गलियों में तुम खेल-कूद कर बड़े हुए, वहां हमें भी घूमने का अधिकार है, तुम कौन होते हो हमें अशुभ कहने वाले। अपशकुन हमारे रास्ता काटने से नहीं, तुम्हारा नज़रिया बदलने से होता है। अशुभ हम नहीं तुम्हारे ख्याल हैं, जो हम बेज़ुबानों की ’म्याउं’ को आधुनिकता और ’समझदारी’ के साइरन से कंपेयर कर रहे हैं।
--                     -तुम्हारी अपनी ’पूसी’।