Saturday 25 May 2013


जज़्बातों को फिल्मी न होने दें !


आशिक और आशिकी के बीच दुनिया ने एक ऐसी दीवार बना रखी है, जिस पर लिख दिया गया है कि आप या तो मुहब्बत ही कर पाएंगे या फिर जि़ंदगी में सफल ही हो पाएंगे ! इश्क की शुरुआत जज़्बातों से होकर जि़द तक जा पहुंचती है, पर जब तक इज़हार का अंदाज़ फिल्मी और दिखावटी रहेगा, आप हसीन लम्हों को यादगार बनाने से चूकते रहेंगे। 

कितना मुश्किल है इश्क हो जाने के बाद उसे छिपाये रखना ..! ठीक उसी तरह, जैसे आपने किसी के साथ सीरियस-मज़ाक किया हो और फिर आप खुद को बेकसूर साबित करने के लिए उसे समझाए जा रहे हैं! यहां समझाने वाले आप खुद हैं, और समझने वाला दिल ! अक्सर दिल और दिमाग, ’लेफ्ट-राइट’ गेम खेलते रहते हैं ! दिमाग में फयूचर हाॅरर और दिल में प्रिज़ेंट प्लेज़र। दिमाग में टैंशन का टशन और दिल में दिलेरी के दिलासे ! ये  दिमाग उस बांध की तरह है, जो एक हद तक लहरें रोकने की ताकत रखता है। पर दिल की तूफानी लहरें, जब होश-ओ-हवास खोकर दौड़ीं चली आती हैं, फिर दिमाग का बांध टूट जाता है। दिल खुद को जीता हुआ और दिमाग कुछ दिनों के लिए हारा हुआ सा महसूस करने लगता है। 
हालिया फिल्म आशिकी 2 का डाॅयलाॅग - ’’मुहब्ब्त, प्यार, इश्क लफजों के सिवाय और कुछ नहीं, बस किसी स्पेशल के मिल जाने के बाद इन शब्दों को मायने मिल जाते हैं।’’  फिल्मों से लेकर फरिश्तों की कहानियों तक में इश्क और इज़हार के बीच गहरा रिश्ता रहा है। इस आधुनिक जि़ंदगी में इज़हार को हम ’प्रपोज़’ कहने लगे हैं। दिल के लिए ’प्रपोज़’ शब्द एक ’मीडिया’ है। ऐसा मीडिया जो ब्रेक लेकर दिल के प्रोग्राम सामने वाले को सामने जाकर पेश कर देता है। प्रपोज़ करने के बाद का ’डिसीज़न’ टीआरपी रेटिंग की तरह है। यदि आपका प्रोग्राम अच्छा रहा, तो हाइ-टीआरपी, वरना ’नाॅट नाउ’ का ज़बर्दस्त फ्लाॅप शो। क्यूं न प्यार को इज़हार की शक्ल कुछ इस तरह दी जाए कि वह ना सिर्फ यादगार रहे, साथ ही आपकी लव लाइफ में अभी तक के शानदार लम्हों में शामिल हो जाए ! ठीक वैसा ही जैसा रितिक-सोनिया ने किया। 
काॅलेज में रितिक का सपना सिर्फ किताबें और कॅरिअर था। उसकी आंखों में गर्लफ्रेंड या लवर सर्च करने की ना तो ख्वाहिश थी और न ही इंट्रेस्ट। अपनी स्टडी को ही उसने फ्रेंड और सक्सेज़ को ही अपनी गर्लफ्रेंड बनाने का फैंसला किया था। अक्सर उसकी बातें लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट ला दिया करतीं थीं। हंसमुख नेचर होना वाकई शानदार साबित होता है। आप रूठों को चुटकियों में मना सकते हैं, अजनबियों को अपना बना सकते हैं। दरअसल दुनिया में कुछ मिथ बन गए हैं, जिनमें से एक यह कि, लव-लाइफ, स्टडी को स्पाॅयल कर देती है। रितिक अक्सर दोस्तों को इस टाॅपिक पर ऐक्सप्लेनेशन देना शुरु कर देता था। मानो वह लवलाइफ से नहंी, अपने विचारों और एटीट्यूड से बहस कर रहा है। रितिक सैकंड ईयर स्टूडेंट था, और जल्द ही माॅस कम्युनिकेशन कोर्स की उड़ान उसे थर्ड ईयर की ’मीडिया-मिस्ट्री’ में भेजने वाली थी। उसके पास ब्राण्डेड ऐक्ससरीज़, बाइक, बाइसेप्स जैसे इंप्रेसिव फीचर्स नहंी थे। दूसरों को हंसाने-गुदगुदाने की चाहत ही उसकी लाइफ का अभी तक का अचीवमेंट था। कुछ दिनों बाद उसके फ्रंेड-सर्कल में सोनिया एंट्री करती है। बात और जज़्बात कब जि़द बन जाएं, कहना मुश्किल है। दोस्ती से होकर अपनेपन की यह सुरंग, इश्क के दरवाज़े तक ले जाएगी, रितिक ने सोचा भी न था। 
इज़हार का सफर अभी दूर था। रितिक और सोनिया दोनों के फोन नंबर्स ऐक्सचेंज हुए। ’गुड-माॅर्निग’, ’गुडनाइट’, ’टेक केयर’ जैसे शब्दों में वाकई जादू सा होता है। यदि नियम से कोई आपकी फिक्र करे, तो आपका दिल ज़ोरों से धड़कना शुरु कर देता है और दिमाग ज़ोरों से डांटना। ठीक ऐसा ही रितिक के साथ हो रहा था। खाली समय में वह खुद को सोनिया का ’सिर्फ दोस्त’ कहते हुए दिलासे देता रहता, और जैसे ही फोन में मैसेज या काॅल टयून बजती, झट से ओके कर आंखें गढ़ा देता। दो महीने, दिल और दिलासों का खेल चलता रहा। रितिक-सोनिया मिलते रहे, बात ’गुड माॅर्निंग’ में लिपटी हुई, अब ’लंच कर लेना’, ’डिनर कर लेना’ जैसे मैसेजों तक जा पहुंची थी। कितना बेहतरीन मौका होता है न, जब कोई आपसे रोज़ ऐसी बातें कहे, जिसे सुनकर, खुद को कंट्राॅल करने की कोशिशें करनी पड़ें। 
फाइनली, रितिक को रियालाइज़ हुआ कि सोनिया और वह, इश्क के दो मोती हैं, जो जल्द ही एक माला में बंधना चाहते हैं। लाइफ और लव लाइफ में ज़रा सा अंतर है। यहां सिर्फ हाइ-हलो, बाइ-गुडबाइ नहंी, जि़म्मेदारी और प्यार की भी भरपूर ज़रूरत है। फिलहाल रितिक ने सोनिया को अपने दिल की बात कहने का डिसीज़न लिया। हालांकि यह सब उसने तभी सोचा जब उसे विश्वास हो चुका था कि सोनिया भी उससे उतना ही प्यार करती है। 
अगले दिन काॅलेज पार्टी में दोनों मिले, कुछ बातें हुईं, और फिर एक ऐसा मौका, जिसे हम यूथ ’प्रपोज़ल’ कहते हैं पर रितिक-सोनिया के लिए यह एक बेहद हसीन पल था। प्रपोज़ करते हुए एक गलती कभी नहीं करनी चाहिए जो रोहित ने नहीं की। यादगार प्रपोज़ल में फिल्मी-नकल करना थोड़ा ड्रामेटिक फील करवा सकता है। इश्क बयां करना एक ऐसा पल साबित होता है, जिसकी याद मुश्किल से ही कभी धुंधली पड़ती है। ऐसे में यदि आप ज़रा भी ओवर-क्रिएटिव या फिल्मी अंदाज़ निभाने में रहे, तो बात बिगड़े भले ही न, पर खूबसूरती और सादगी गायब हो जाने का डर रहता है। रितिक ने सोनिया का हाथ थामा, और बड़ी शिददत से पुरानी बातों के सूटकेस में दिल की नई बात शानदार जज्बातों की पैकिंग के साथ रखकर उसे गिफट कर दीं। सोनिया ने भी स्माइल करते हुए, उसे ’आइ लव यू टू’ कह दिया! प्रपोज़ल सिंपल पर शानदार था। दिल की बातें सीधे कहना भी मुश्किल है, और घुमाकर कहना भी एक कला। सादगी और अपनेपन का ऐसा काॅकटेल आपकी  जि़ंदगी को खुशियों से भर सकता है। आज रितिक और सोनिया दोनों एक-दूसरे को अच्छे से समझते हैं। वे हैरान और परेशान होकर ठहाके भी लगाते हैं कि इश्क कितना चालांक और खुशनसीब है कि उसने अनऐक्सपेक्टिड को भी ऐक्सपेक्टिड कर दिखाया। 
ये तो हुई रितिक-सोनिया लव स्टोरी, अब बारी प्रपोज़ल और उसकी इंपाॅर्टेंस की। दरअसल फिल्में असल जि़ंदगियों से ही बनाईं जाती हैं। क्यूं न दिखावटीपन और नकल को एक तरफ रख, रिलेशनसिप को सादगी और खूबसूरती से एंज्वाॅय किया जाए ! मशहूर लेखक शिव खेड़ा ने एक बार कहा था- ’’जीतने वाले कोई अलग काम नहंी करते, वे हर काम अलग ढंग से करते हैं।’’ याद रखिए प्यार जि़ंदगी भले ही न हो, पर जि़ंदगी का ऐसा हिस्सा है, जिसे इग्नोर नहंी किया जा सकता। हिफाज़त और अपनेपन की मीठी बोलियां, जब दुनियादारी की इस भागमभाग में दिल को सुनाई देतीं हैं, तो वह सबकुछ छोड़कर उन्हें  हमेशा के लिए पाने की कोशिश में लग जाता है। दो बेहद ज़रूरी बातें, फयूचर स्ट्रगल यानि स्टडी और लव लाइफ में बैलेंस। सक्सेज़, लव लाइफ में ही नहीं आपकी लाइफ में भी होनी चाहिए। क्यूं न आज दो मिथों को तोड़कर बदल दिया जाए ? एक, कि लाइफ-लवलाइफ को बैलेंस रख कर, बिना किसी प्राॅब्लम के सक्सेज़ के रास्ते तलाशे जा सकते हैं और दूसरा, लव प्रपोज़ल को फिल्मी नकल के धागे से न बांधकर, अपने अंदाज़ में अपनाया जाए।
 जो आप हैं, वह आप ही कर सकते हैं, और जो आप नहंी हैं, बेहतर है उसे करने की कोशिश तो दूर, उस बारे में सोचें भी नहीं। फिलहाल इश्क और प्रपोज़ल का यह लेख खत्म हो रहा है, पर आखिरी शब्दों में एक चेतावनी ज़रूर कि लाइफ और लव को साथ लेकर चलने में बुराई नहंी है, बस डर बना रहता है कि आप अपनी मंजिल से भटकें नहंी, बाकी सुख हो या दुख, आपके साथ कोई है, जो हर वक्त, हर लम्हा, पलकें बिछाए आपके सपनों को अपने सपने बनाने के लिए बेताब है। आफटरआॅल लाइफ इज़ टू एंज्वाॅय, नाॅट टू स्पाॅयल ... डियर ! 



Monday 20 May 2013


आईपीऐल के दलदल में क्रिकेट का कमल


आईपीऐल में स्पॉट फिक्सिंग-फसाद से ज्यादा हैरानी इस बात की है कि श्रीसंत जैसा काबिल खिलाड़ी भी इस दलदल में खुद को साफ-सुथरा नहीं रख पाया। आईपीएल के ढांचे में जल्द बदलाव करने की ज़रूरत है, कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट के नाम पर हम घंटों उस खेल को टकटकी बांधकर देखते रहें, जिसकी जीत-हार पहले से ही तय थी!

आईपीएल पर फिक्सिंग के छींटे ! एक नामी न्यूज़ चैनल का फलैश। देखकर ज़रा भी हैरानी नहीं हुई, पर फलैश की दूसरी लाइन ’श्रींसंत समेत तीन खिलाड़ी गिरफ्तार, जांच जारी!’ पर नज़र पड़ते ही अगला चैनल ट्यून करने को बेताब उंगलियां ठहर गईं। क्रिकेट का डाइ-हार्ट फेन न होते हुए भी इस खबर को घंटों चैनल बदल-बदल कर जानने-समझने-परखने की कोशिश करता रहा। तथ्य, तस्वीरें और तफतीश की उधेड़बुन जारी थी। कहीं क्रिकेट ऐक्सपर्ट गर्मजोशी से अपना बयान दर्ज करवा रहे थे, तो शिल्पा शेट्टी अपनी टीम राजस्थान राॅयल्स की सफाई, बेहद सफाई से दे रहीं थीं। दरअसल आईपीएल के पिछले कुछ मैचों में श्रीसंत, अजित चंडीला और अंकित चव्हाण पर स्पॉट फिक्सिंग के गंभीर आरोप सामने आए हैं।
आईपीऐल को क्रिकेट मैच का आयोजन कहते हुए अक्सर झिझक महसूस हुआ करती थी, पर अब तो धिक्कार सा होने लगा है। खुल्लम-खुल्ला सट्टेबाजी, शोहरत की बेशुमार ’बैटिंग’, ने खेल की शराफत का गला घोंट दिया है। आईपीऐल में सिर्फ फिक्सिंग का छिटपुट मामला होता, तो शायद मैं इस पर लिखने की न सोचता, पर श्रीसंत जैसे हुनरमंद और काबिल खिलाड़ी पर लगे आरोप ने वाकई देश के सक्रिय नागरिकों को झकझोर दिया है। वक्त इस बहस में पड़ने का नहीं है कि फिक्सिंग कैसे हुई, और कौन मुख्य किरदार में है ? ज़ोर देने की ज़रूरत इस बात पर है कि किन कदमों को उठाकर हम आईपीएल जैसे मनोरंजक और शोहरत-विशेष आयोजनों में शराफत और सच्ची खेल-भावना बरकरार रख सकते हैं ?
तेज़ दिमाग के मध्यम-तेज़ गेंदबाज़ ऐस. श्रीसंत का नाम भारतीय टीम के होनहार और उम्दा गेंदबाज़ों में लिया जाता है। कुछेक अपवादों को नज़रंदाज़ कर दें तो साफ-सुथरी छवि उनकी पहचान रही है। आईपीएल फाॅर्मेट में टीमें बनाई तो जातीं हैं, पर ज़मीनी तौर पर बैटिंग टीम के मालिकान और उनके ’इरादे’ ही करते हैं। जैसे ही ये ’इरादे’ डगमगाते हैं, खेल का ’खेल’ बिगड़ने लगता है और फिक्सिंग के फसाने पैदा होने लगते हैं। अब बात टीम से शुरु हुई है, तो एक नज़र 2008 की पहली आईपीएल विजेता टीम राजस्थान राॅयल्स के रिपोर्ट कार्ड पर। प्वाइंट टेबल में मुंबई और राजस्थान के बीच दूसरे स्थान के लिए कश्मकश जारी थी। दोनों टीमें प्लेआॅफ में जगह पक्की कर चुकीं थी। ज़ाहिर तौर पर लक्ष्य पहले स्थान पर पहुंचने का था। टीम के बूस्ट प्लेयर श्रीसंत समेत तीनों खिलाडि़यों पर आरोप है कि उन्होंने बुकी के इशारे पर नोबाॅल, डेडबाॅल डालकर खेल और उसके मायनों को चोट पहुंचाई।
खिलाडि़यों पर आईपीऐल-फिक्सिंग के छींटे जैसी बात से हैरान होना ठीक उसी तरह है जैसे कोई कमल तोड़कर लाए और आप उसके पैरों में कीचड़ न लगे होने की उम्मीद करें। श्रीसंत केरेला के पहले रणजी खिलाड़ी हैं, जिन्हें सीधे भारतीय टीम में 20-20 खेलने का मौका मिला। अपने शानदार कॅरिअर में उन्होंने 27 टैस्ट मैचों में 87 विकेट और 53 वन-डे मैचों में 75 विकेट झटके है। श्रीसंत केरल के अकेले ऐसे गेंदबाज रहे हैं, जिन्होंने रणजी ट्राॅफी में हैट्रिक ली है। 2008 में हरभजन सिंह के साथ उनके संबंधों में ज़रूर कुछ खटास रही, पर उन्होंने मामले को खेल के मायनों से ज्यादा तवज्जो नहीं दी। उनकी मध्यम-तेज़ गति गेंदबाज़ी ने मैदान में विपक्षी टीम के बल्लेबाज़ों को अक्सर हैरत में डाला है। जहां तक कप्तान धोनी से मतभेद की बातें उछली है, तो व्यवहारिक तौर पर कभी-कभार खिलाडि़यों और कप्तान के बीच मसलों पर सहमति-असहमति का मन-मुटाव रहता ही है। सच तो यह है कि आईपीऐल में जिस खिलाड़ी ने रुपए-पैसों की चिंता नहंी की, वह बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद भी घाटे में ही रहेगा। पर यहां घाटे से मतलब ऐसे साॅल्यूशन से कतई नहीं है जैसा श्रीसंत व बाकी दो खिलाडि़यों ने अपनाया।
यदि हमारा हिंदी शब्दकोश उदार होता, तो अब तक आईपीएल और विवाद शब्द पर्यायवाची बन चुके होते। 2008 से लेकर अभी तक एक भी आयोजन साफ-सुथरा और शांतिपूर्ण नहीं रहा। बीते साल 5 खिलाडि़यों पर फिक्सिंग के आरोप सही साबित हुए थे, पर तब भी बात बहस और बयानों के आए-गए विस्फोट की तरह रह गई। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने श्रीसंत को अपने दोस्त के यहां से और बाकी दो खिलाडि़यों को टीम के नरीमन हाउस होटल से हिरासत में लिया है। आरोपियों पर आईपीसी के 420 और 120 बी के तहत केस फाइल करने की तैयारी है। साथ ही सबूत जुटाने में जुटी दिल्ली पुलिस अब बुकी के तमाम आला नटवरों की तलाश में ताबड़तोड़ छापेमारी कर रही है। दोष का दरवाज़ा सिर्फ खिलाडि़यों तक ही नहंी खुलता, असली गुनाहगार तो बुकियों का देशभर में फैला ज़बर्दस्त नेटवर्क है, जो लालच और शोहरत की चकाचैंध से खेल और उसके सम्मान को अंधेरे में ले जा रहा है।
हमेशा की तरह दोषी खिलाडि़यों की आधिकारिक टीमों ने आरोपों से अपना दामन बचा लिया है। पुलिस जांच-पड़ताल कर दागी चेहरों को सामने लाने की भरपूर कोशिश में है। चर्चा है कि दोषी पाए जाने पर खिलाडि़यों पर आजीवन वैन लगेगा, व उन्हें सख्त सजा होगी, पर इससे भी ज्यादा ज़रूरी है कि मामले की जड़ तलाशी जाए। जब तक   कैंसर जैसे जानलेवा रोग को पेनकिलर या डिस्प्रिन जैसी दवाओं से खत्म करने की कोशिशें होतीं रहेंगी, रोग बढ़ता ही जाएगा। आज श्रीसंत, कल कोई और धीरे-धीरे हमारी पहचान, सम्मान और संस्कृति का खेल क्रिकेट, फिक्स-गेम की शक्ल ले लेगा। फिर जीतना-हारना ही सबकुछ होगा। देश और उसकी भावनाओं पर चोट कर जिन लालची और नोट के भूखों ने यह मोहजाल बिछाया है, उनकी हवेलियां बनेंगी, और संस्कार और उसूलों की इमारतें ढहतीं चलीं जाएंगी।
बहुत कम वक्त बचा है इस खेल को वापस उसकी पहचान और सम्मान दिलाने का। आईपीऐल की शुरुआत खिलाडि़यों के विकास और दर्शकों के मनोरंजन के लिए हुई थी, न कि खेल और खिलाडि़यों की अवैध सौदेबाज़ी-सट्टेबाजी के लिए। शोहरत और शराफत की इस जंग में क्रिकेट अब कराह रहा है। हर किसी को शक होने लगा है कि जिस्म दिखातीं चीयरलीडर्स के पीठ पीछे कैसे मैच मालिकान करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे करते हैं। आईपीऐल को आगे भी यदि जारी रखना है तो कायदे-कानून को कड़े करने होंगे। सिर्फ मनोरंजन का वास्ता देकर आप दर्शकों को धोखे में नहंी रख सकते। देश जानना चाहता है कि कौन, कैसे, और क्यूं खेल की भावनाओं को नोटों की गडिडयों के नीचे कुचलना चाहता है। फिलहाल मामले की जांच जारी है, नतीज़ा सामने आना बेहद ज़रूरी है। आईपीएल के ढांचे में जल्द ही बदलाव करने की ज़रूरत है, कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट के नाम पर हम घंटों उस खेल को टकटकी बांधकर देखते रहें, जिसकी जीत-हार पहले से ही तय थी।

         

Saturday 11 May 2013


बेबस आंखों में ’शिकायत’ के आंसू ....


बारहसिंगा को उत्तर प्रदेश के राजकीय पशु होने का तमगा हासिल है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने के बाद कोई भी ऐसी सरकारी योजना याद नहीं आती, जो इस प्रजाति के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो। सफलता और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की शानदार साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?

एक बेहद सीधा और मासूम जीव, जो आज तक लोगों के दिलों पर राज करता रहा। जिसने हमेशा अपनी मासूम हरकतों से बच्चों-बड़ों, सभी के चेहरों पर मुस्कराहट दी। बड़ी सी काली आंखें, दर्जनभर सींगों से सजा सिर, सरपट दौड़ती-कूदती पतली टांगों वाला बारहसिंगा आज बेबस है। प्रकृति की बिछाई जंगलों की चादर तेज़ी से खत्म हो रही है। जल, ज़मीन और जि़ंदगी के लिए जद्दोजहद कर रहे उत्तर प्रदेश के इस राजकीय पशु को न समाज कुछ दे पाया और न सियासत। प्रदेश की सरकारें चिडि़याघरों व उद्यानों पर बेशुमार खर्च तो करती रहीं, पर हमेशा की तरह सियासत, संवेदना पर हावी ही रही। आधुनिकता और औद्योगीकरण के भीड़ भरे मेले में तमाम जीव-जंतुओं समेत बारहसिंगा भी हम इंसानों से सुरक्षा और संवेदना की भीख मांग रहा है। देश का सबसे बड़ा और राजनीति की चैपाटी में सबसे अहम प्रदेश, उत्तर प्रदेश के इतिहास में बारहसिंगा राजकीय पशु नाम से दर्ज है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने पर कोई भी ऐसी योजना याद नहंी आती, जो बारहसिंगा के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो।
लंबी घासों में छिपने के शौकीन बारहसिंगों की संख्या तेजी से खत्म हो रहे जंगलों के साथ कम हो रही है। हिरणों की इस खूबसूरत प्रजाति के गायब होने में ग्लोबल वार्मिंग, अवैध शिकार व जलवायु में बदलाव जैसे कारण बेहद अहम हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद देश की कुल प्रजातियों में 8.86 प्रतिशत प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में खत्म हो चुके बारहसिंगे अब सिर्फ भारत के उत्तरी और मध्य क्षेत्रों पर निर्भर हैं। दक्षिण-पश्चिम में नेपाल में ज़रूर इनकी अच्छी-खासी संख्या है, पर किसी ज़माने में उत्तर प्रदेश की झाडि़यों में फुदकते बारहसिंगे अब सिर्फ तस्वीरें ही छोड़ गए हैं। 170-283 किलो वजनी, व लगभग 60 इंच लंबे इस मासूम जीव ने देखने वालों को तो अपने शानदार करतबों से खुश किया, पर खतरनाक जानवरों व शिकारियों की नज़रों में हमेशा खटकता रहा। रेशमी रूह और बेशकीमती सींगों ने बारहसिंगों को तस्करी के दलदल में ढकेल दिया। लालच और लोभ के आगे मासूमियत और सुंदरता की एक न चली और देखते-देखते एक चंचल-शांत जीव हमारे बीच से गायब सा होने लगा।
आमतौर पर नदियों के करीब रहने वाले इन जीवों की संख्या 1964 में 3000-4000 के बीच थी, जो बीते दशक में आधी से भी कम रह गई। असम के काजीरंगा नेशनल पार्क व मानव नेशनल पार्क में इस जीव पर गहरा शोध चला व इनकी देख-रेख पर खासा योजनाएं लाईं गईं। दरअसल बेहद डरपोंक और असहाय होना भी इस जीव के मारे जाने का बड़ा कारण रहा। खुद को बचाने में कमज़ोर इस प्रजाति को जो सरकारी व सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली और परिणाम आज हमारे सामने है। लंबी घास इन्हें सिर्फ भोजन ही नहीं, नन्हें शावकों के लिए सुरक्षा-कवच का भी काम करतीं थीं, जिन्हें हम इंसानों ने विकास के नाम पर ताबड़तोड़ उखाड़ना शुरु कर दिया। बारहसिंगों में यदि एक भी साथी मारा जाता है, तो वे बेहद असहज और सदमें में चले जाते हैं। कमज़ोर दिल होने से अक्सर हार्ट-अटैक के चलते उन्हें जान गंवानी पड़ती है। हालिया आंकड़ों में फिलहाल मध्य भारत में वन्य कर्मियों की चुस्त देखरेख से इनकी संख्या 600 हुई है, पर बाकी जगहों से गायब हो रहे बारहसिंगों को नजरंदाज़ करना निहायत बेइमानी होगी। कभी मध्य प्रदेश का राजकीय पशु रह चुका बारहसिंगा अब किताबों में उत्तर प्रदेश की शान के नाम से दर्ज तो है, पर सुविधाएं और सुरक्षा उससे कोसों दूर है।
उत्तर प्रदेश के कानपुर में बीते दिनों दर्जनों हिरण लापरवाही और ढुल-मुल प्रशासनिक रवैए की भेंट चढ़ गए। कार्रवाई के नाम पर जू निदेशक का तबादला हुआ और मामले की लीपापाती कर प्रदेश में लाॅयन सफारी व वन्य संपदा बचाने जैसी छिटपुट योजनाएं मंच से उछाल दी गईं। सियासत में संवेदना के इस सूखे ने हज़ारों प्रजातियों, को सरकारी वेतन पर ऐश कर रहे अधिकारियों-कर्मचारियों के भरोसे छोड़ दिया है। योजनाएं कागजों पर फल-फूल रहीं हैं, और पर्यावरण के मोती कहे जाने वाले जीव-जंतु घुट-घुट कर मर रहे हैं। चिडि़याघरों ने शोकेस की शक्ल ले ली है और उनमें काम कर रहे कर्मचारी शोपीस साबित हो रहे हैं। संवेदनशील और जानकार वन्य विशेषज्ञों को तवज्जो न देना भी सरकार की एक खामी है, जो आगे चलकर समाज को सिर्फ पछतावा ही देगी।
सही तस्वीर में झांकें तो कहना गलत नहंी होगा कि बारहसिंगा की मासूम और खूबसूरत प्रजातियों के दुर्लभ दर्शन अब सिर्फ पांच राष्ट्रीय उद्यानों में किए जा सकते हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश में सिर्फ दुधवा नेशनल पार्क, मध्य प्रदेश में कान्हा और इंद्रावती, असम में काजीरंगा और मानस प्रमुख हैं। लंबी घासों से झांकती बड़ी सी काली आंखें और झाडि़यों में तैरते लंबे सींगों की कहानी जितनी इमोशनल और फीलगुड लगती है, असलियत में उतनी ही दर्दनाक भी है। प्रकृति के इस नायाब तोहफे को तस्कर नोंच रहे हैं, कटते जंगल बेघर कर रहे हैं, और हम सिर्फ और सिर्फ तमाशा देख रहे हैं। योजनाएं आती रहेंगी, शोध चलते रहेंगे, संस्थाएं साल दर साल गिनतियां करती रहेंगी, पर क्या बारहसिंगों का झुंड हमारी आंखों के सामने हंसता-खेलता फुदकता दिखेगा ..? क्या ऐसा वक्त करीब है जब किताबों और पोस्टरों में ही बारह सींग वाले इस जानवर की तस्वीरें हम देख पाएंगे ..? क्या वाकई हम जंगलों के साथ-साथ इस मासूम और चंचल प्रजाति को देखने के लिए तरस जाएंगे ..? ऐसे ही सवालों के साथ मेरा यह लेख तो खत्म हो रहा है, पर विकास और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की खूबसूरत साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?



Saturday 4 May 2013


महफि़ल, मायनों और मजबूरियों का 

चुंबन   

बदकिस्मती से बेचारा हो चुका है चुंबन। कामुकता के कीचड़ में चुंबन के होंठ कुछ ऐसे सने कि उनमें लिपिस्टिक की खुश्बू और कोमलता की कालीन खोजी जाने लगी। अफसोस कि यू-ट्यूब पर सर्च करने पर एक भी ऐसा चुंबन नहीं मिला, जो मां ने बेटे के माथे पर दिया हो, या एक भाई ने राखी बांधती अपनी बहन को !


हिन्दी में चुंबन, अंग्रेजी में किस। होंठों पे वफा की नमी और दिल में प्यार की हिलोरें ही चुंबन लेने और देने की इच्छा पैदा करती हैं। रील से रियल तक, फिल्मों से फेमिली तक चुंबन का तरीका, सलीका, सब बदल गया है। चूमने से दिल को ठंडक और अपनेपन का ऐहसास होता था, करीबी और दूरी के बीच का पुल था चुंबन। कुछ सालों से इस का आधुनिक आयात, पश्चिमी देशों से होने लगा। लेकिन एक वक्त ऐसा भी था कि भारत में इसे सादगी और पवित्र प्रेम का हिस्सा माना जाता था। गांव के बुजुर्ग हमारे हाथ चूमते थे, रिश्तेदारों के स्वागत करने का अंदाज़ भी इसी से बयां होता था। बीते कुछ साल से ’चुंबन-विशेष अभिनेता’ पैदा होने लगे। किसिंग सीन की भयानक भरमार ने पाश्चात्य संस्कारों से रेस लगानी शुरु कर दी। कामुकता के कीचड़ में चुंबन के होंठ, ऐसे सने कि उनमें लिपिस्टिक की खुश्बू और कोमलता की कालीन खोजी जाने लगी। किसिंग के इस आयात का असर, संस्कारों और विचारों पर तो पड़ा ही है, साथ ही फूहड़ता और अश्लीलता की ऐसी इमारत खड़ी हो गई है, जिसने सालों पुराने आत्मीय चुंबनों को खुद में ही दफ़न कर लिया है। इसे इच्छाओं से अलग करना होगा, खासकर वे इच्छाएं जो सिर्फ शारीरिक संतुष्टि तक जाकर खुद-ब-खुद पूरी होने के खोखले दावे करतीं हैं।
दुनिया को वैश्विक गांव बनाने के दावे करने वाले इंटरनेट पर जब ’चुंबन’ शब्द के मायने खोजने की कोशिश की तो विकीपीडिया ने इसका इतिहास परोस दिया। लगभग 22 तरीके के चुंबन यहां बताए गए। होंठों से लेकर जीभ तक, चेहरे से लेकर तलबों तक और तमाम नुस्खों-नज़रियों को पिरोकर चुंबन की ंिचंताएं और सावधानियां भी लिखीं पड़ीं हैं। किसिंग-टिप्स की लंबी-चैढ़ी लिस्ट यहां सिर्फ इंटरनेट का मददगार होना साबित नहीं करती, यह भी ज़ाहिर करती है कि इंटरनेट यूज़र्स के दमदार रिस्पांस से ही चुंबन के इन नायाब नुस्खों को यहां सार्वजनिक किया गया है। तरीके और तस्वीरों ने इस शब्द के ढेरों मायने गढ़ दिए हैं, पर कामुकता की जकड़ से इसे छुड़ाने में इंटरनेट का पक्षी भी बुरी तरह हांफ गया है। काले बोल्ड अक्षरों में यह चेतावनी मेरी नज़रों से बच नहीं पाई कि ’’चुंबन के दौरान आपके मुंह से बदबू कतई नहीं आनी चाहिए, अन्यथा आप इसके ’सुख’ से बेदखल किए जा सकते हैं।’’
कई डाॅक्टरों और शोधकर्ताओं ने कुछ नए कारनामे भी लिखे हैं, जो चुंबन को शिद्दत से अंजाम देने का भरोसा दे रहे हैं। ’’जोश के साथ इसे लेने से आप अपना वजन घटा सकते हैं। किसिंग से आप प्रतिमिनट कम से कम 6.4 कैलोरी खर्च करते हैं।’’ जैसे कई तथ्य ’चुंबन-लिस्ट’ के साथ चिपका दिए गए हैं। किसिंग का प्रमोशन और विज्ञापन कर रहे इंटरनेट को यहीं तसल्ली नहीं हुई है। कुछ तस्वीरों के ज़रिए उसने यूज़र्स खींचने के लिए नायक-नायिका की तस्वीरों का कटीला-कातिलाना जाल भी बिछा रखा है।
किस के किस्से समेंटने को अब धीरे-धीरे यू-ट्यूब की ओर बढ़ रहा हूं। चुंबन की फूटी किस्मत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मैं बंद कमरे में इस पर सर्च कर रहा हूं। परिवार से छिपकर, दरवाजा बंद कर, चुंबन का चरित्र, दहलीज़ और उसका भविष्य खोजने की कोशिश में जुटा हूं। इस विषय पर सर्च करते पकड़े जाने पर अपनी मासूम छवि बिगड़ने का डर है, साथ ही परिवार के उन तानों का अंदाज़ा भी, जो ’चुंबन-खोज’ करते पकड़े जाने पर या तो मुझे अकेले में बैठाकर या ज़ोर-ज़ोर से डांटकर दिए जा सकते हैं। अफसोस इस बात का है कि यू-ट्यूब पर सर्च करने पर एक भी ऐसा चुंबन नहीं मिला, जो मां ने बेटे के माथे पर दिया हो, या एक भाई ने राखी बांधती अपनी बहन को !
1933 मंे आई फिल्म कर्मा में असल जि़ंदगी के दंपत्ति हिमांशु राय और देविका रानी का झिझकते हुए 4 मिनट का किसिंग सीन खूब चर्चा में रहा था। उस वक्त यह खबर महीनों मीडिया के लिए बड़ी खबर बनी रही। हालांकि सीन पर सेंसर बोर्ड की कैंची चली और पर बीते दिनों इस दृश्य को एक फिल्म समारोह में दिखाया गया। फिल्मों में फिल्माए गए चुंबनों में तब और अब का बेहद फर्क आ गया है। सूरत से सीरत तक, मतलब से मायनों तक चुंबन की दास्तां अब पर्दे के पीछे छिप रही है। लुका-छिपी के बीच अब चुंबन एक ऐसा हौवा बन चुका है, जो सार्वजनिक तो क्या, सर्वमान्य भी नहीं रहा। बॉलीवुड में चुंबन स्पेशल अभिनेता कहे जाने वाले इमरान हाशमी हों या नए तरीकों से किसिंग को अंजाम दे रहे रणदीप हुड्ढा, नई पीढ़ी के नायकों ने यूथ-फैशन और आधुनिकता की पीठ पर चढ़कर चुंबन को अश्लीलता और कामुकता का चैकीदार बना दिया है।
नए नायकों में चुंबनस्टार बनकर उभरे वरुण धवन, शाहरुख खान, रनवीर कपूर, अर्जुन कपूर, व ढेरों ऐसे नायक हैं, जो अपनी हालिया फिल्मों में लंबे चुंबन दृश्यों की बदौलत ज़बर्दस्त चर्चा में रहे। क्या आज के दौर में ऐसा चुंबन ही सर्वमान्य है जो सिर्फ नायक-नायिका की मुहब्बत बयां करे ? प्यार और इश्क को आपस में उलझते देख चुंबन भी क्या एक वीरान बीहड़ में दौड़ पड़ा है ?
अब फिल्मों में बेटा मां का माथा चूमने की बजाय हाइ-हेलो कर चला जाता है। क्या भविष्य में चुंबन सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका की जागीर बनकर रह जाएगा ? बाकी रिश्तों में चुंबन क्या ठीक उसी तरह फलाॅप हो जाएगा, जैसे केबल युग आने के बाद एंटिना सिस्टम ..? चुंबन के मायने खतरे में हैं।  किसिंग के किस्से यदि ज्यादा दिनों तक अश्लील और फूहड़ प्रेम की वैसाखी बने रहे तो वह दौर दूर नहीं, जब चुंबन सिर्फ वर्गविशेष साहित्य व सिनेमा की पहचान बन जाएगा। तब न हाथ चूमते बुजुर्गों के होंठ होंगे, ना मां का माथा चूमता बेटा। किस से लेकर चुंबन और पप्पी से लेकर पुच्ची को एक बार फिर संस्कारों और विचारों में तवज्जो देने की ज़रूरत है। कहीं ऐसा न हो कि चुंबन चुनिंदा दिनों और चंद लम्हों की पहचान भर रह जाए !