Thursday 25 April 2013


फूहड़ता के अँधेरे में सादगी का सूरज 
       


अर्थपूर्ण कॉमेडी ने हर दिल को छुआ, गुदगुदाया है, जबकि डबल मीनिंग कंटेंट पर हमेशा अच्छे-बुरे, सही-गलत की तलवारें तनी है। ’चिडि़याघर’ जैसे सफल टी.वी. सीरियलों ने साबित कर दिया है कि फेमिली स्पेशल एंज्वॉयमेंट ,भारत में न कभी फ्लाॅप हुआ था, और न होगा।


हंसी-मज़ाक और गंभीरता कभी एक साथ नहीं रह सकते। गंभीरता को तोड़ने के लिए हास्य की मांग है और हास्य की मज़बूरी है कि वह दर्शकों के होंठों पर हर कीमत पर मुस्कान लाये, उन्हें गुदगुदाये। कई हास्य-कलाकारों ने डबल मीनिंग कॉमेडी यूं ही नहीं अपनाई। दरअसल उन्हें दहाड़ें मारकर हंसने वाले दर्शक नहीं मिल रहे थे। आधुनिकता के इस शोरगुल में अर्थपूर्ण कॉमेडी पर तीखी बहसें तो हुईं, पर टीआरपी और लोकप्रियता की रेस में तमाम कॉमेडी कार्यक्रम एक रुटीन-फूहड़ स्पेशल शो बन कर रह गए। हिम्मत हारकर तमाम हास्य कलाकारों ने भी डबलमीनिंग कंटेंट से हाथ मिला लिया।
 मुंगेरीलाल, जसपाल भट्टी जैसे दिग्गजों ने एक सदी में हास्य का नया मंच और मुकाम तैयार किया था, जिसे सब टीवी के सीरियल ’चिडि़याघर’ में गधा प्रसाद जैसे हास्य किरदारों ने आगे बढ़ाया है। कैसे फैशन और भागमभाग के इस दौर में भी परिवार में, परिवार के साथ और परिवार के लिए, चिडि़याघर जैसे सीरियल अलग पहचान और सम्मान का नया इतिहास रच रहे हैं। गधा प्रसाद जैसे किरदारों की समीक्षा के लिए शब्द तो प्रयोग किए जा सकते हैं, पर उनके हुनर और अंदाज़ का हर पहलू समेंट पाना वाकई मुश्किल है।
अश्विनी धीर निर्देशित ’चिडि़याघर’ में यूं तो एक वनारसी परिवार की कहानी को दर्शकांे से जोड़ने की कोशिश की गई है, पर असल में सीरियल की जान जीतू शिवहरे ही हैं। जिन्होंने गधा प्रसाद का किरदार लाखों-करोड़ों लोगों की ज़ुबान पर ला दिया है। अब तक 367 ऐपीसोड्स में ’चिडि़याघर’ ने इस प्रतियोगी दौर में खूब नेम-फेम और शोहरत हासिल की है। सब चैनल के इस लोकप्रिय शो ने उस मिथ को ज़बर्दस्त तरीके से तोड़ा है जिसमें कहा गया था कि आज के दौर में डबल-मीनिंग हास्य ही हिट करवाया जा सकता  हैं।
चिडि़याघर के इस घर में अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने केसरी नारायण के किरदार को देश के उन तमाम मध्यमवर्गीय पिताओं की तरह निभाया है, जो अपने परिवार की खुशियों में जश्न मनाते हैं, और गम के बादल छाने पर सूझबूझ से सामना करने की हिम्मत देते हैं। घर में दो बेटे हैं, जिन्हें घोटक और गोमुख की शक्ल दी है अभिनेता परेश और सुमित अरोड़ा ने, जो बेहतर अभिनय लिए, अपने किरदार की काबिलियत और मूर्खता का मिक्सचर परोसते चलते हैं। बाकी किरदारों में नौंक-झौंक और आपसी प्यार की बेजोड़ झलक दिखती है, जो ’चिडि़याघर’ को हर उस परिवार से जोड़ती है, जिन्हें बाकी चैनलों पर चिकनी-चमेली या लैला-मुन्नी के अलावा कुछ खास नहीं मिल पाता।
डी.डी. नेशनल के कुछ खास धारावाहिकों में हरी मिर्ची-लाल मिर्ची, कानाफूसी जैसे पारिवारिक इमोशनल सीरियलों ने घर-घर में खूब पहचान बनाई थी। पिछले कुछ सालों में निजी चैनलों की भरमार ने ऐसे सीरियलों से लोगों का ध्यान हटाना शुरु किया और धीरे-धीरे  दर्शकों की रुचि का हवाला देकर फूहड़ता परोसी जाने लगी। तमाम हास्यकवि स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर डबलमीनिंग शरारतों का शर्बत बांटने लगे, तो कॉमेडी के कुछ तथाकथित कार्यक्रमों ने पारिवारिक सीमाएं लांघकर एक नया दर्शक वर्ग बांध लिया, जिसके दम पर ही टीआरपी और लोकप्रियता का पैमाना तय होने लगा।
’मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ सपनों में ही रह गए तो ’देख भाई देख’ जैसे अर्थपूर्ण कॉमेडी कार्यक्रम की कद्र कम होती रही। सब टीवी के बेहद चर्चित ’’ऑफिस-ऑफिस’’ में ज़रूर नौकरी-पेशा वर्ग की हकीकत पेश की गई, जिसे पंकज कपूर ने अपने ज़बर्दस्त अभिनय से यादगार बना दिया। कॉमेडी की ज़मीन पर अर्थ-अनर्थ, हद के अंदर, हद के बाहर जैसी छिटपुट झड़पें चलतीं ही रहेंगी, पर खुश होने की बात ये है कि चिडि़याघर, तारक मेहता का उल्टा चश्मा, वाह वाह क्या बात है जैसे सीरियल जब तक जि़ंदा हैं, हमें अर्थपूर्ण हास्य को लेकर परेशान होने की कतई ज़रूरत नहीं है।
उस हंसी का कोई मतलब नहीं है, जो हमें परिवार के सामने होंठ खोलने पर शर्मिंदा करे। लाख कोशिशों के बावजूद डबल मीनिंग कंटेंट से पैदा हुई मुस्कराहट हमेशा दबी-सहमी व निजी ही होगी। दिल से हंसने के लिए हमें आज भी व्यावहारिक और पारंपरिक मसखरी की ज़रूरत है। जब तक गधा प्रसाद जैसे किरदार जि़ंदा हैं न तो हास्यकलाकारों को निराश होने की ज़रूरत है और ना ही हम दर्शकों को। आखिर हंसी ही तो है जो स्वास्थ्य और स्वभाव दोनों के लिए ज़रूरी है। भारत में आधुनिकता का अंधा दौर हावी तो हुआ है पर इतना नहीं कि हम घर-परिवार से छिपकर व दूर बैठकर फूहड़ता की गप्पें सुनें और लंबे समय तक उन पर ही ठहाके लगाएं !




Monday 22 April 2013


 चुभ ना जाए कहीं शक की यह सुई 
         

क्‍यों न ये समझा जाए कि हमारे यहां जब पुख्ता सबूतों का सूखा पड़ जाता है, तब शक के बयानों की तेज़ बौछार की जाती है। बेबुनियाद इल्ज़ाम देश की सुरक्षा को चकनाचूर कर सकते हैं। शक की सुइयां चुभतीं तो आतंकियों को हैं, पर देर-सवेर, दर्द आम-निर्दोष नागरिकों को ही सहना पड़ता है।


दो देश हैं। एक ताकत की महाशक्ति है, दूसरा संस्कारों की। एक के पास विश्वस्तरीय  आधुनिक तकनीक है, तो दूसरा अभी विकास की कच्ची सड़क पर घुटनों के बल चलने की कोशिश में। एक सदियों से विकसित है, तो दूसरे ने अभी धीमी रफ्तार ही पकड़ी है। बात भारत और अमेरिका की। पिछले दिनों अमेरिका के बोस्टन शहर में जब मैराथन की धूम मची थी, तेज़ धमाकों से तीन की मौत हुई, व लगभग 140 लोग घायल हुए। अगले दिन भारत के बेंगलुरू में भाजपा कार्यालय के करीब धमाका हुआ, जिसमें 11 पुलिसकर्मी समेत 16 लोग घायल हुए। अफरातफरी के इस माहौल में दो देशों की तुलना करना आपको थोड़ा अजीब लग सकता है। पर कुछ पहलू हैं, जिनसे हमें ऐसे धमाकों के बाद का माहौल संभालना, अमेरिका से सीखने की ज़रूरत है।
विश्व की शक्तिशाली शख्सियत अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 9 11 के बाद हुए इस दिल दहला देने वाले विस्फोट पर आनन-फानन किसी नस्लवादी-आतंकवादी गुट पर शक की सुई नहीं घुमाई। वहीं बेंगलुरु मे हुए धमाके के चंद मिनटों बाद ही भारत की सियासत में शक का शर्बत घुलने लगा। इंडियन मुजाहिदीन पर, संदेह के बयान आनन-फानन सार्वजनिक कर दिए गए। क्या ऐसे माहौल में, जब देश के नागरिक खतरे में हों, बेबुनियाद इल्ज़ाम की तलवार लहराना ठीक है ..? क्यंू न ये समझा जाये कि हमारे यहां जब पुख्ता सबूतों का सूखा पड़ जाता है, तब शक के बयानों की तेज़ बौछार की जाती है। सियासत और शक के इस भंवर में फंस जाता है वो आम आदमी, जो दो वक्त की रोटी से खुश है, जिसे अपना व परिवार का पेट पालना है, जि़ंदगी ने उसे जो कुछ दिया है, उसी में जीने की कोशिश कर रहा है।
अमेरिका में हमलों की सूची पर नज़र डालें तो दिसंबर 1975 में न्यूयार्क के लाॅ गार्डिया एयरपोर्ट के लाॅकर रूम में हुए हमले में 11 ने अपनी जान गंवाई। फरवरी 1993 में वल्र्ड ट्रेड सेंटर के पार्किग जोन में खड़े ट्रक में हमला हुआ, जिसमें 6 की जानें गई, 1000 घायल बताये गए। अप्रैल 1995 में ओखलामा सिटी में संघीय सरकार के दफतर में ट्रक उड़ाया गया जिसमें 168 की मौत व 500 बुरी तरह घायल हुए। जुलाई 1996 में अटलांटा के सेंटेनियल ओलंपिक पार्क में समर ओलंपिक में धमाका हुआ, जिसमें दो ने जान गंवाई। फिर एक ऐतिहासिक हमला जिसे बयां करने की शायद ज़रूरत नहीं, पर आंकड़ों की इस अभागी औपचारिकता में उसे 9 11, कहा गया है, साथ ही विश्व के सबसे दर्दनाक हमलों में इसकी गिनती है।
 इनमें से किसी भी धमाकों के पन्ने पलटने पर शक की सुई हवा-हवाई तरीके से घूमती नज़र नहीं आती। अमरीकी सत्ताधारियों ने अपने एक-एक नागरिक की जान की शिद्दत से हिफाज़त की है। यहां ये भी बात काबिल-ए-गौर है कि हमले के दौरान सिर्फ न्याय दिलाने के दिलासे व दोषियों पर सख्त सज़ा के बयान ही सार्वजनिक तौर पर दिए गए। किसी भी पुख्ता जि़म्मेदारी-सबूत के अभाव में शक का ठीकरा आतंकवादी गुटों पर नहीं फोड़ा गया। वरिष्ठ पत्रकार अमित बरुआ कहते हैं ’’ऐसे समय में बेवज़ह फिंगरप्वाइंटिंग करना देश की सुरक्षा को नुकसान पहुंचा सकता है। बेहतर होगा कि हमलों की पुष्टि होने या सबूत मिल जाने के बाद ही हमलावरों का नाम सार्वजनिक हो।’’ मिसाल देना गलत नहीं है कि अमेरिका ने 9 11 के बाद आतंकियों के मंसूबों से अमेरिकियों की हरसंभव हिफाज़त की है। दो मामलों में तो अंतिम समय में विस्फोट होने से बचा लिया गया, जिनमें एक नाइजीरियन एवं टाइम्स टाॅवर में एक पाकिस्तानी नागरिक को पकड़ा गया था। दरअसल आतंकवादी अक्सर यह फाॅर्मूला पेश करते आये हैं कि ’’आपको हमेशा भाग्यशाली बने रहना है, वे कभी भी आपको परख सकते हैं।’’ साफ ज़ाहिर है कि चुस्त-तकनीक से लैस अमेरिकी पुलिस बेहद दम-खम से सुरक्षा का जिम्मा संभाल रही थी लेकिन कहीं न कहीं बोस्टन में उससे चूक हुई है, जिसे वहां के प्रशासन ने बेझिझक स्वीकार भी किया है।
अब नज़र कर्नाटक में ही हुए कुछ हमलों पर। 17 अप्रैल 2010 को बेंगलुरू के चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर शाम 4 बजे दो धमाकों में सात घायल हुए, जुलाई 2008 में शहर के 9 स्थानों पर सीरियल धमाकों में दो की मौत हुई, मई 2008 कर्नाटक के हुबली जिले में सत्र न्यायालय परिसर में धमाका, सितंबर 2005 में उत्तरी बेंगलुरु के साइंस इंस्टीट्यूट पर आतंकी हमला। इसके अलावा राजधानी दिल्ली व देश के तमाम शहरों के हमलों की भी लंबी सूची है, जिनमें दूर-दूर तक कोई ऐसा नहीं मिलता, जिसके होने के बाद यहां के नौकरशाहों-नेताओं ने शक के आधार पर इल्जामों की झड़ी न लगाई हो।  बेंगलुरु के हालिया हमले के लगभग कुछ मिनट बाद ही इंडियन मुजाहिदीन पर संदेह की पुष्टि कर दी गई। शहर के गृहमंत्री ने भी बेहिचक, हमलों के बाद शक और संदेह की इस घातक बयानवाज़ी का जमकर समर्थन किया। हालांकि औपचारिकताओं की ज़रूरत ऐसे समय में होती है, इसमें दो राय नहीं, पर दूसरा पहलू क्या यह नहीं कि निर्दोष गुट पर शक करने से वह सक्रिय हो सकता है, भड़क सकता है, और मौका लगने पर कभी भी हम पर उम्मीद से कहीं ज्यादा हमलावर हो सकता है ?
आतंकवादियों का न तो कोई मज़हब है, और न ही घर-परिवार। वे फ्रस्ट्रेशन को जि़ंदगी और जेहाद को जन्नत मानकर जीते हैं। बीते कुछ सालों से भारत में हुए तमाम हमलों में इस शक-फोबिया ने हमें नुकसान ही पहुंचाया है। सिक्यूरिटी एक्सपर्ट प्रविंद्र स्वामी अमेरिका का उदाहरण देते हुए कहते हैं, कि ’’बोस्टन में हुए हमलों में वहां के समझदार नेता और राष्ट्रपति ने तो धमाके का किसी पर इल्जाम नहीं दिया, पर भारत के ’अमेरिका-हिमायतियों’ ने संदेह के बयान उछालने शुरु कर दिए थे। कोई लश्कर-ए-तैयबां की साजिश का दोषगान कर रहा था तो किसी की जुबान पर आईऐम गुट के चर्चे थे।’’ आंतरिक मामलों के तमाम विशेषज्ञों की भी यही राय है कि बिना किसी सबूत, गवाह के उंगली उठाने में हमारा ही नुकसान है। ठीक वैसे ही, जब आप किसी पर लगातार चोरी का इल्जाम लगाते रहें, और एक दिन तंग आकर वह आपको ढंग से लूट ले।
बोस्टन-ब्लास्ट में घायलों को समय रहते इलाज़, मौके पर मौजूद एंबुलेंस, चुस्त आपात दल जैसी कई ख्ूाबियां भारत जैसे तमाम देशों के लिए आइना तो हैं ही साथ ही हमलों के बाद का माहौल वश में रखने की कला भी अमेरिकी सत्ताधारियों से सीखने की ज़रूरत है। आधुनिकता-पिछड़ेपन की दीवारों से आगे भी एक नया सूरज उग सकता है, जो भारत को  हमलों के अंधेरे में सियासत का नहीं सूझबूझ का उजाला दे सके। देश के नागरिकों केा संदेह और शक की खाली ज़मीन नहीं, पुख्ता सबूतों से जुड़ी न्याय और सुरक्षा की इमारत चाहिए। शक की सुइयां चुभतीं तो आतंकियों को हैं, पर देर-सवेर, दर्द हमें ही सहना पड़ता है। यहां इस लेख के मायने आतंकियों का पक्ष रखने के कतई न निकालें। साफ शब्दों में मेरी निजी राय यही है कि दहशत और दिलासों के इस मंज़र में सोते शेर को जगाने जैसे खतरे किसी भी हालत में मोल नहीं लिए जाने चाहिए।
                                         

Thursday 18 April 2013


 सिर्फ ढांढस नहीं, उम्मीद भी बंधाएं 


चिकित्सा क्षेत्र के तमाम विशेषज्ञों की सलाह है कि हाइड्रोसिफेलिस जैसी गंभीर बीमारियों से लड़ रहे पीडि़तों को सिर्फ ढांढस या सांत्वना का सिराहना नहीं, उम्मीद-उत्साह की नई किरण चाहिए। आइए हम और आप एक वादा करें, तकलीफ और दर्द से कराहते किसी भी रोगी को ये भरोसा दिलाएं कि ’एक दिन वह बिल्कुल ठीक हो जायेगा, और उस जैसे तमाम लोग ठीक हुए भी हैं।


किलकारियां चीख बन जातीं हैं, ख्वाब बुरे सपनों में बदल जाते हैं, सांसें सिसकने लगतीं हैं, और खुशियां कोसों दूर खड़े होकर तमाशा देखा करतीं हैं। घर-आंगन में एक मासूम खिलखिलाता तो है, पर उसकी तकलीफ का अंदाज़ा या तो परिवार या वो खुद ही लगा सकता है। जन्म लेते ही उसे एक ऐसा रोग जकड़ लेता है, जिसे ना मासूमियत से प्यार है और ना मुस्कराहट की परवाह। जो सिर्फ जानलेवा और बेहद दर्दनाक लम्हों को हंसती-खेलती जि़ंदगी पर उड़ेलने आता है। हर दिन, हर पल, हर मिनट मानो जान लेने को धमकी सी देता रहता है। बात हाइड्रोसिफेलिस रोग की। दिमाग में कई लीटर पानी भरने से सिर का साइज़ सामान्य से कई गुणा बढ़ जाता है। चिडचिड़ापन, असहनीय दर्द और जि़ंदगी-मौत के इस डरावने खेल ने कई मासूमों की मुस्कराहट तो छीन ही ली है, साथ ही उन परिवारों का भी सुख-चैन छीन लिया है, जो अपने लाड़ले की इस हालत को नम आंखों से देखने-महसूस करने को मजबूर हैं।
दिमाग में सीएसऐफ (सफेद पानी) भरने लगता है, और जैसे-जैसे वह तय जगह से ज्यादा में फैलता है, दिमाग में लचीलापन पैदा होता है, और कुछ महीनों में सिर सामान्य से बड़ा दिखने लगता है। जैसे-जैसे पानी स्पाइनल काॅर्ड में भरता जाता है, असहनीय दर्द के साथ-साथ बे्रन टिश्यू एक्सपेंड हेाने लगते हैं। हाइड्रोसिफेलिस रोगियों पर अभी आधिकारिक आंकड़े तैयार नहंी हैं, पर आधिकारिक जानकार बताते है कि विश्व के हर 500 में एक बच्चा इस जानलेवा बीमारी की जकड़ में है। चिकित्सकांे की सख्त सलाह है कि इस रोग में हिम्मत हारने की सज़ा जि़ंदगी गंवाकर भुगतनी पड़ सकती है। प्रेरित करने, व उम्मीद जगाने वालों की कमी ने हाइड्रोसिफेलस से मरने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ा दी है। हालांकि आधुनिक विज्ञान के ताबड़तोड़ आविष्कारों ने इस रोग से लड़ने के कई औज़ार तैयार किए हैं, जिनमें ’अल्ट्रासाॅनोग्राफी’ और कंप्यूटर टेंपोग्राफी, खासा कारगर है।
वाशिंगटन के शरमन ऐलेक्सी उन लोगों के लिए वाकई मिसाल साबित हो सकते हैं जिन्होंने इस बीमारी को जि़ंदगी की आखिरी सीढ़ी मान लिया है। ऐलेक्सी का जन्म 1966 में इसी बीमारी के साथ हुआ था, जिसका नाम काफी बाद में हाइड्रोसिफेलिस रखा गया। 6 साल की उम्र में उनके दिमाग की सर्जरी हुई, जिसको लेकर परिवार को एक अजीब सा डर था। उनकी याद्दाश्त खोने का, व शायद जान से चले जाने का भी। इसी डर के आगे शरमन ने परिवार के साथ इस जंग को जीता। इलाज़ के बाद वे बिल्कुल स्वस्थ्य तो नहीं, पर पहले से काफी बेहतर हो चुके थे। उनके शराबी पिता, उन्हें व उनके पांच भाइयों को छोड़कर चले जाते थे। परिस्थतियों और परेशानियों को दरकिनार करते हुए, ऐलेक्सी ने अपना नाम ’दा ग्लोब’ रखा। ( चूंकि हाइड्रोसिफेसिल में सिर का आकार कई गुणा बढ़ जाता है।)
सर्जरी के बाद उन्हें काफी हैवी दवाइयाँ लेनी पड़ती थीं, जो उन्हें खुश और कंफर्टिबल महसूस नहीं होने देतीं थीं। बावज़ूद इसके उन्होंने पढ़ने का मन बनाया और आॅटो मैकेनिक इंजिनियरिंग से लेकर तमाम दार्शनिकों के किस्से-कहानियां पढ़ीं। धीरे-धीरे साहित्य के बीच रहते-रहते ऐलेक्सी ने साहित्य को ही अपना शौक और जुनून बना लिया। मशहूर अमरीकी-चीनी कवि ऐलेक्स क्युओ के लैक्चर ने उन पर ऐसा असर डाला कि शब्दों और विचारों की ज़मीन पर शरमन ने अपनी हर तकलीफ कुर्बान कर दी। कुछ समय बाद सफलता ने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। शराब पीने की जिस आदत ने उन्हें वाशिंगटन यूनीवर्सिटी से बाहर किया था, उसी यूनीवर्सिटी ने एलेक्सी को 1995 में स्नातक की मानद डिग्री से नवाज़ा। 2005 से अब तक वे लांग हाउस मीडिया के फाउंडर बोर्ड मेंबर हैं। यह संस्था अमरीकी युवाओं को फिल्म-निर्माण में आगे आने का मौका देती है। ’दा बेस्ट अमेरिकन शाॅर्ट स्टोरी, पुशर्ट प्राइज़ जैसी रचनाआंे ने उन्हें सिलेब्रिटी की कतार में ला खड़ा किया है। हाइड्रोसिफेलिस रोग पर तमाम कविताओं और आर्टिकल्स में उनकी बेजोड़ निर्भीकता और सहने की बेइंतिहां झलक है। वे इन रोग-पीडि़तों को नई जिं़दगी जीने की सीख तो देते ही हैं, साथ ही अपने अनुभवों से उनमें नया जोश भी भरते हैं।
दरअसल डाॅक्टर्स की राय यह भी है कि हाइड्रोसिफेलिस दिमागी बीमारी है, जो सोचने-समझने में दिक्कत पैदा करती है। रोग के बारे में बुरे-डरावने खयाल मन में लाना, इस बीमारी को और बढ़ा देता है। यदि सामने खड़ा व्यक्ति ज़रूरत से ज्यादा आश्चर्य से रोगी को सहानुभूति देने की कोशिश करता है तो पीडि़त, असहनीय दिमागी दर्द से तिलमिला उठता है। रोग कोई भी हो, उससे हार मान लेने से वह बढ़ता ही है। कहते भी हैं कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। आखिरकार सबसे असरदार इलाज़ आत्मविश्वास और उम्मीद ही तो है !
बीते दिनों त्रिपुरा में हाइड्रोसिफेलस और जि़ंदगी के बीच जंग लड़ रहीं 18 वर्षीय रूना बेगम का मामला काफी देर से सामने आया है। पिता ईंट-भट्टे में मज़दूर है और गरीबी का राक्षस मूंह बाये खड़ा है। मां और तीमारदारों से घिरी रूना के पास सहानुभूति के आंसू तो हैं पर अफसोस कि इलाज़ के लिए लाखों की रकम नहीं। सरकार और सियासत ने आंकड़ों को भले ही दबा दिया हो, पर धीरे-धीरे यह रोग पैर पसार रहा है। आत्मविश्वास जगाने से ज्यादा ढांढस बंधाने वालों की भीड़ है। ऐसे में देशी-विदेशी डाॅक्टर्स की साफ चेतावनी है कि रोगी को असहज महसूस करवाना उसकी जान से खेलने जैसा है। यदि आप हाथ फेरकर उसका दर्द महसूस करने की कोशिश में हैं, तो सावधान यह उसकी जान भी ले सकता है।
तकलीफ और तकल्लुफ़ की इस तेज़ धार में हमें सहानुभूति की नहंी, मज़बूत इरादों  की नाव खोजनी है। रोग के इलाज़ को आसानी से उपलब्ध तो करवाना ही होगा, साथ ही आत्मविश्वास और खुशमिजाज़ी का भी परिचय देना होगा। असहजता सिर्फ इसी रोग के लिए नहीं, इस जैसी तमाम गंभीर बीमारियों के लिए मुसीबत पैदा कर रही है। तमाम लोग जानलेवा और भयानक कहकर रोगी और उसके परिवार को अंदर से बुरी तरह तोड़कर रख देते हैं। ज़रूरत है इलाज के साथ-साथ प्रेरणा की भी, ऐसी इंस्पिरेशन, जो किसी की जि़ंदगी मंे खुशियां ला सकें, उसे यह भरोसा दिला सके, कि जीने के लिए सभी को खुदा ने संघर्ष सौंपा है।
 बस फर्क इतना है कि किसी को बेहद तकलीफ है तो कोई मुस्कराते हुए जी रहा है। दवा और दुआओं के साथ जिस दिन प्रेरित करने वाले भी आगे आएंगे, तो असहनीय दर्द भूलकर हाइड्रोसिफेलस जैसे रोगियों को कुछ ही सही, पर सुकून ज़रूर मिलेगा। आइए हम और आप एक वादा करें, तकलीफ और दर्द से कराहते  किसी भी रोगी को ये भरोसा दिलाएं कि ’एक दिन वह बिल्कुल ठीक हो जायेगा, और उस जैसे तमाम लोग ठीक हुए भी हैं। हो सकता है कई लोग झूठी उम्मीद बंधाने को गलत मानते हों, पर क्या कोई झूठ किसी की जान से बढ़कर हो सकता है ?
मयंक दीक्षित
                                                 स्वतंत्र पत्रकार, कानपुर।
सोर्स आॅफ इमेज एंड कंटेंटः गूगल ।

Wednesday 10 April 2013


रोटी, कपड़ा और ’मौत’ 


हमें खरीदना है, उन्हें बेचना। मजबूरी और मुनाफे की इस सौदेबाज़ी में नियम-कानून, वैध-अवैध, सही-गलत, जैसी औपचारिकताएं ताक पर रख दीं जातीं हैं, और खड़ी हो जाती है एक ऐसी इमारत, जो खूबसूरत और रिहायशी तो है, पर अफसोस कि सुरक्षित नहीं !


किसी मां का बेटा उस वक्त घर से निकला था, तो किसी मां ने घर में कदम रखे थे, कई हंसते-खेलते परिवार अपनी दुनिया में मशगूल थे। छोटे-बड़े, मासूम-बुजुर्ग अपने आशियानों में जि़ंदगी के वो पल गुज़ार रहे थे, जिन पर उनका ही हक था, सिर्फ उनका! अचानक एक शोर होता है, हाहाकार मचता है और देखते ही देखते सैकड़ों लोग ईंट-पत्थर के बेहद दर्दनाक बोझ तले दब कर अपनी जि़ंदगी सियासी और प्रशासनिक लापरवाही के बदले गंवा बैठते हैं।
महाराष्ट्र के थाणे में पिछले दिनों एक सात-मंजिला इमारत अचानक भरभराकर ढह गई, जिसमें आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 72 लोगों की जान मलबे की भेंट चढ़ गई। कुछ ने अपनों को गंवाया, तो कुछ ने सपनों को, पर गंवाया ज़रूर। कुछ दिनों बाद यह घटना महज़ एक घटना की तरह हमारे दिल-ओ-दिमाग से धुंधली होती जायेगी और हम थर-थर कांपती इस धरती पर गगनचुंबी इमारतें बनाकर अपनी शान-ओ-शौकत देखते और दिखाते रहेंगे।  सवाल यही कि क्या सिर्फ इक्के-दुक्के अफसरान का लालच ही इस घटना का मूल कारण था ..? क्या राज्य के जि़म्मेदारों के बीच बंदरबांट ने ही इन 72 लोगों की जि़ंदगी छीनी है ? यदि आपका दो-टूक जवाब हां है तो कुछ व्यावहारिक बातों पर भी गौर करना होगा।
अकेले बंबई की ही बात करें तो आंकड़ों का साफ इशारा है कि यहां 400 मंे से लगभग 218 इमारतें अवैध निर्माण का झंडा बुलंद किए खड़ी हैं। दरअसल भीतरखाने में झांकें तो दोष हमसे ही शुरु होता है। दूर के शहर-कस्बों से हर रोज़ लाखों की आबादी रोजगार की तलाश में सुनहरे सपनों के साथ मुुंबई और इस जैसे तमाम बड़े शहरों में कदम रखती है। रोटी, कपड़ा के बाद सबसे ज़रूरी मकान ही है, जिसकी किल्लत से इन्हें दो-चार होना पड़ता है। बड़ा शहर, बड़े खर्चे, और तलाश रहती है सस्ते में अच्छे मकान की। यह ’तलाश’ तमाम बिल्डर्स और कंस्ट्रक्शन मालिकों को इस धंधे में सिर उठाने का मौका देती है। वे ज़रूरतमंदों को सस्ती दरों में मकान उपलब्ध कराते हैं, और अवैध निर्माण जैसी कोई खामी होने पर स्थानीय राजनीति की शरण में चले जाते हैं। कुछ नेता, अफसरान और निगम अधिकारियों की ’क्रपा’ से धीरे-धीरे बहुमंजिला  कुकरमुत्ते उगते रहते हैं, और चूक और चालाकी का यह मंज़र कैसे काल बनकर लोगों की खुशियां चीखों में बदल देता है, यह हमारे सामने है।
दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता जैसे तमाम महानगर आज मधुमक्खियों के छत्ते की तरह पटे पड़े हैं। इमारतों के साथ-साथ उनकी बेशुमार कीमतें भी आसमान छू रहीं हैं, और इस प्रतियोगी दौर में अवैध निर्माण जैसे शब्द बेहद आम हो चुके हैं। कुछ साल पहले जब दिल्ली में ललिता पार्क हाउस भरभराकर ढह गया था, तब अवैधता और असुरक्षा मुद्दे पर समाज और सियासत का ध्यान गया था। आनन-फानन दिल्ली म्यूनिसिपल काॅर्पोरेशन ने पूर्वी दिल्ली के 600 भवनों पर अवैध निर्माण का नोटिस चस्पा किया था। अफसोस कि पकड़े जाने पर  छिटपुट कार्रवाई और भीतरी पहुंच, भवन निर्माताओं के मंसूबों पर पानी नहीं फेर पाई। राजधानी में ही शाहदरा साउथ जोन के 683 भवन मालिकों पर नियम-कानून संबंधी इस नोटिस ने भय तो पैदा किया, पर ’रसूख और हनक की राजनीति में सबकुछ जायज़’ वाली कहावत ही जि़ंदाबाद रही।
मुंबई की ही पिछली कुछ घटनाओं पर नज़र डालें तो 13 अगस्त 2008 को भिण्डी बाज़ार इलाके में चार मंजिला इमारत ताश के पत्तों की तरह बिखर गई थी, जिसमें 20 की दर्दनाक मौत हुई और 35 लोग घायल बताए गए थे। 3 नवंबर 2008 को पुलिस मुख्यालय के पास बनी एक इमारत का हिस्सा गिरा था, जिनमें 6 की मौत हुई। 26 अगस्त 2009 को लैमिंगटन रोड पर 5 मंजिला इमारत का एक हिस्सा गिरने से एक महिला ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। 28 जुलाई 2010 को कुरला के कुरैशीनगर में चार-मंजिला इमारत फिर ढही, जिसने एक की जान ली। ऐसी कई घटनाएं इस मायानगरी में साल-दर-साल घटतीं आईं हैं, और शोर-शराबे के बीच जि़म्मेदार बचते चले आये, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। दोष का ठीकरा निगम, बिल्डर्स पर फोड़ रहा है, तो बिल्डर्स निगम के ढुल-मुल रवैए को कारण बता रहे हैं। सियासी ज़मात मुआवज़े और सहानुभूति तक सिमटकर रही गई है, पर स्थायी हल खोजने को कहीं भी विचार-विमर्श होता नहीं दिख रहा।
शहर कोई भी हो, उसकी अपनी क्षमता व सीमाएं हैं, जिन्हें लांघने पर हमें ही उसका नुकसान उठाना पड़ेगा। हमने ही अपनी जेब ढीली कर, अंधाधुंध सुविधाएं खरीदने की आदत पाली है। बात यदि सिर्फ बिल्डर्स की गलतियों पर हो रही है, तो हम यह अच्छी तरह समझ लें कि मजबूरी से मातम तक का यह सिरा हमने भी उतनी ही तवज्ज़ो और ताकत से थामा हुआ है। घर नहीं होगा, तो जाएंगे कहां ?  शानदार फ्लैट नहीं होगा तो लोग क्या कहेंगे ? और कुछ रुपए बचाकर इतना आलीशान आशियाना मिल रहा है तो क्यूं छोड़ा जाए ? जैसे सवाल हमारी अपनी जुबान से ही निकले हैं। याद रहे अवैध वस्तु खरीदने और बेंचने वाले बराबर के ही दोषी हैं।
शहर को ज़रूरत से ज्यादा भर देने से वह कराहने लगता है, और बात जब खुद पर आती है, तो हमें दोष के छींटे मजबूरन दूसरों पर उछालने पड़ते हैं। हमें एकजुट होकर ऐसे अवैध निर्माणों के लिए सचेत होना होगा, और जल्दबाजी और कम पैसों के लालच में इन गगनचुंबी भवनों में स्टेटस सिंबल देखना बंद करना होगा। सरकार सिर्फ हमसे कर वसूलने के लिए ही नहीं है, उसकी जि़म्मेदारी यह भी है कि उसके नागरिक स्वस्थ्य, सुरक्षित और खुशहाल रहें। गलतियों से सीख लेते हुए हमें सतर्क रहकर  आशियाने खरीदने होंगे, जिसमें वैधता हमारी प्राथमिकता में हो। कम पैसों के चक्कर में हम भले ही कुछ हज़ार या लाख बचा लें, पर जान, कीमत से कहीं बढ़कर है। सिर्फ अफसरान या व्यवस्था को कोसकर हम असल मुद्दे को सुलझाने की बजाय उसमें उल्टा उलझते ही जाएंगे।
-मयंक दीक्षित
                                                        स्वतंत्र पत्रकार, कानपुर।

Monday 8 April 2013


हाथी को चाहिए हिफाज़त के ’हाथ’ 



सरकार और सियासत पर हमने अपने इस विशालकाय जीव की जि़म्मेदारी सौंपी थी, पर अब वक्त आ गया है कि हम खुद ’गजराज’ को जल, ज़मीन और जि़ंदगी से नवाज़ें। कहीं ऐसा न हो कि हाथी, किस्से-कहानियों और तस्वीरों में ही कैद रह जाए और हम इस जीते-जागते, हंसते-खेलते अद्भुत जीव को हमेशा-हमेशा के लिए खो दें !

कुदरत ने उसे विशालकाय शरीर तोहफे में दिया है, वह हम इंसानों का दोस्त है और हमारे इशारे पर कई सौ किलो वज़न रखने से भी नहीं हिचकता। तमाम जानवरों की तरह वह इंसानों पर तब तक बोझ नहीं बना, जब तक उसके लिए घने जंगल और नहर-तालाब मौज़ूद रहे। आज वह या तो चंद सरकारी वनों में सिसक-सिसककर चिंघाड़ रहा है या फिर किसी मेले-सर्कस में कोड़ों की मार के बदले कर्तब दिखाने को मजबूर है। बात उस हाथी की, जिसे पुराणों ने भगवान गणेश का रूप व इंद्र की सवारी कहा है। आज वही गजराज दुःखी है, कराह रहा है और अपने हिस्से की ज़मीन और जि़ंदगी के लिए हम इंसानों के ’विकास माॅडल’ पर आंसू बहा रहा है। मस्तमौला और मनुष्यों का सहयोगी कहे जाने वाले इस जीव की लुप्त होतीं प्रजातियां, शिकारियों की गोलियों से छलनी जिस्म, और तस्करी के तराजू में रखी देह आज अपने हिस्से का इंसाफ मांग रही है।
2010 में एक क्षेत्रीय मीडिया संस्थान ने उड़ीसा में बड़ी संख्या में हाथियों को खतरा बताया था। बीते दो दशक में यहां लगभग 570 हाथी बिजली करेंट और अवैध शिकार की भेंट चढ़ चुके हैं, जो अपने आप में काफी भयावह आंकड़ा है। हालिया रिपोर्ट कहती है कि 261 हाथियों को शिकारियों ने बेरहमी से निशाना बनाया है, और बाकियों की मौत अन्य संदिग्ध कारणों से हुई है। वन्यजीव कार्यकर्ता बिश्वजीत मोहंती की मानें तो पिछले 20 सालों में हाथियों पर तस्करों का चाबुक लगातार चला है। इस विशालकाय बेजुवान के अंगों का अच्छे दामों में बिकना इसका बड़ा कारण है। मोहंती ने इन हालातों के लिए जि़म्मेदार संस्थाओं के ढुल-मुल रवैये की भी कड़ी आलोचना की है। कई बार मृत पाये गए हाथियों के क्षत-विक्षत और गायब विशेष अंग जैसे दांत, नाखून इस बात की ओर तुरंत इशारा कर देते है कि उन्हें तस्करी की नीयत से रौंदा गया है।
पश्चिम बंगाल में इसी साल मार्च की शुरुआत में रेलवे लाइन क्राॅस कर रहा एक नर-व्यस्क हाथी तेज़ रफतार ट्रेन से कुचलकर मर गया था, जिस पर सरगर्मी से कोई चर्चा भी नहीं हुई, और मामला कागज़-कलम के बीच ही दम तोड़ गया। अलीपुर द्वार से कुछ किलोमीटर दूरी पर स्थित बक्सा टाइगर रिज़र्व का यह हाथी शहरी आवोहवा से बेखबर शायद भटकता हुआ पटरियों पर आ पहुंचा था। ऐसे कई मामले गाहेबगाहे घटते रहते हैं, और सम्बंधित वनविभाग व पुलिस चैकियों के रजिस्टरों में दर्ज होते रहते हैं, पर अफसोस कि इन समस्याओं के निदान पर न तो वन्य महकमा सक्रिय रहता है और न ही स्थानीय प्रशासन।
प्रकृति से इस जीव को कुछ आदतें विरासत में मिलीं हैं, जैसे हरे-भरे लहलहाते मैदानों में विचरण करना, पेड़ के तनों, खासकर लंबी घास का जमकर आहार लेना। तेज़ी से फैल रहीं विकास की ’बैसाखियों’ ने तमाम जीव-जंतुओं समेत हाथियों को भी कोई खास सहारा नहीं दिया। घने जंगलों का सम्राज्य छीनकर हाथी को या तो तमाशबीनों के बीच प्राणि उद्यानों में लाया गया या फिर वे अपनी भरपेट खुराक की मजबूरी में सर्कस-नौटंकी वालों की कठपुतली बन गए।
इन्हीं हाथियेां की एक खूबसूरत प्रजाति जो सिर्फ थाइलेंड जैसे देशों तक सिमट कर रह गई है, जिन्हें हम ’सफेद हाथी’ कहते हैं। भारत में वन्यजीव विभाग के हालिया आंकड़ों में कुल 20,000-25,000 हाथी दर्ज हैं, जिन पर भी अब बेहद निगरानी व सतर्कता बरतने की ज़रूरत है। 4-5 टन वजनी व अमूमन 21-22 फीट लंबे इस जानवर को जो लोग बोझ समझते हों, वे इसकी उपयोगिता को एक बार ज़रूर जान लें। हाथी दिन में लगभग 19 घंटे जंगलों में चरता रहता है, और 125 वर्गमील क्षेत्र में घूमते हुए करीब 220 पाउंड गोबर गिराता है, जो कि बीजों व पौधों के विकास के लिए संजीवनी है।
इन्हें झुण्ड में विचरण करना बेहद पसंद हैं। गन्ने के खेत में यदि वे एक बार घुस जाएं, तो बड़ी प्रसन्नचित्त मुद्रा में बाहर निकलते हैं। हाथी दिन में एक ही बार पानी पीते हैं, पर साफ-सुथरा पानी हमेशा उनकी प्राथमिकता रही है। वे न सिर्फ हमसे निःस्वार्थ सहयोग और सम्मान चाहते हैं बल्कि हमारे जंगलों की शान-ओ-शौकत भी इन्हीं से है। एसियन स्पेसीस ऐक्सपर्ट डाॅ. बार्ने लांग कहते हैं ’’तेज़ी से बढ़ रही जनसंख्या ने न सिर्फ जंगल काटकर इमारतें खड़ीं कीं हैं, साथ ही साफ पानी के तालाब-नहरों को भी गायब कर दिया है। ’’
बड़े से कान वाले इस जीव ने तो, इस धरती पर आ रहे खुद के विनाश के संकेत सुन लिए हैं पर हम अब भी इनकी खुद को बचाने की गुज़ारिश और सहेजने की करुण पुकार नहीं सुन पाये हैं। वन्यजीव सफारी में हाथियों की दशा को वर्तमान स्थिति से और बेहतर करने की ज़रूरत है। हाथी बेहद शांतिप्रिय और मस्तमौला जीव है, जो आज मन ही मन, हमसे संवेदना और सुरक्षा की गुहार लगा रहा है। तस्करों व शिकारियों को वन्यजीव कानून में कड़ी से कड़ी सजा की मांग उठनी चाहिए। संगीन स्थिति में इन्हें सजा-ए-मौत का भी प्रावधान हो, तभी इनमें बेजुबानों को मारने की फितरत खत्म होगी।
सिर्फ सरकार और सियासत के भरोसे इस विशालकाय जीव को छोड़ना निहायत बेईमानी होगी। घने जंगल-ज़मीनों पर रफ्तार से दौड़ रहा आधुनिक औद्योगीकरण का पहिया व वन्य संपदा के अनावश्यक दोहन के बीच ही कोई संतोषजनक रास्ता निकालना  होगा, जो हमारे विकास में भी बाधक न हो और इन बेजुबानों के हित में भी। जल्द ही लंबी सूंढ़, उंचा कद, भारी वज़न व बेहद सरल स्वभाव वाले इस गजराज पर यदि ’इंसानी हमले’ कम नहीं हुए, तो वह दिन दूर नहीं जब हाथी किस्से कहानियों और तस्वीरों में कैद रह जायेगा और हम एक जीते-जागते, हंसते-खेलते अद्भुत जीव को हमेशा-हमेशा के लिए खो देंगे।
-मयंक दीक्षित
                                                  स्वतंत्र पत्रकार, कानपुर। 


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इमेज  & कंटेंट: गूगल ।

Saturday 6 April 2013


जज़्बात, जोश और जिस्म 

प्यार में सेक्स हो सकता है, पर सेक्स में प्यार हो ये ज़रूरी नहीं। आधुनिकता ने रिश्तों में इश्क और सेक्स को उलझा सा दिया है, जहां जायज़ और नाजायज़, सही-गलत, परिपक्वता-अपरिपक्वता जैसे मुद्दे कटीली घास की तरह उग आये हैं। 

कब तक मैं सेक्स शब्द सुनते ही मूंह फेरकर बात पलटता रहूं ..? किसी फिल्म या सीरियल के बीच यदि कंडोम का ऐड आ जाये, तो झट से रिमोट थामकर अगला चैनल टयून क्यूं कर दूं ...? समाज के चार लोगों में सेक्स परिपक्वता के पर्दों के पीछे पड़ा-पड़ा सड़ता रहेगा और वक्त आने पर इसका इस्तेमाल सही-गलत तरीके से होता रहेगा। जब भी यह कहीं किराये के कमरों या होटलों में मूंह छिपाये बैठा दिखेगा, इस पर लाठियां बरसेंगी और फिर नारे गूंजने लगेंगे  कि ज़रूरत है सेक्स शिक्षा को शुरु करने व इसे बढ़ावा देने की। पहले दिन अखियां लड़तीं हैं, अगले दिन दोस्ती, उसके अगले दिन इज़हार और फिर प्यार बिस्तर पर आकर सिसकियां लेने लगता है। कहीं इच्छाएं और शारीरिक बदलाव प्यार की गलत परिभाषा तो नहीं गढ़ रहे हैं ...? कहीं सेक्स को प्यार का प्रसाद तो नहीं माना जा रहा है ...? क्यूं आज का ज्यादातर युवा, प्यार और सेक्स को एक ही तराजू मंे तौलता चल रहा है ...? वजह साफ है, या तो उसने अंजाम की परवाह नहीं की है या फिर वह जवानी के जोश-जुनून में अपनी और अपने साथी की इज्ज़त अपने ही हाथों कुचल रहा है।
विक्की एक स्टाइलिश और फैशनकांसियस लड़का है। उसके मज़बूत बाइसेप्स और राॅयल इनफील्ड बाइक से अक्सर लड़कियां इंप्रेस होकर उसकी हो जाया करतीं हैं। उसने पिछले सप्ताह अपनी   नई बैचमेट सौम्या को प्रपोज़ किया और ’प्यार’ के पंचनामे में वह आखिरकार पास हो गया। देर रात पार्टी, घूमना-फिरना, शाॅपिंग-वांडरिंग, उसका रुटीन बन चुका था। लगभग दो सप्ताह बाद उसने सौम्या को अपने पैरेंटस की गैर-मौजूदगी में घर बुलाया, और अपना शारिरिक ’प्रपोज़ल’ उसके सामने रखा, जो रिजेक्ट हो गया, और तुरंत ’सच्चा प्यार’ कांच की तरह टूट कर बिखर गया। विक्की ने उसे अपनी जि़ंदगी से बाहर का रास्ता दिखा दिया और दलील दी कि शायद उसे अपने लवर पर यकीन नहीं है और वह उसे ठीक से जान ही नहीं पाई है। कुछ महीनों बाद दोनों फिर मिले और विक्की ने सौम्या को उसकी शर्तों के साथ दोबारा अपनाया और आज वे दोनों एक इशकज़ादे की तरह खुलकर जी रहे हैं, मुस्करा रहे हैं, और खुश भी हैं। यह सेक्स का एक पहलू है, जो प्यार जैसे साफ-सुथरे बर्तन में जगह बनाना चाहे तो उसे फटकार मिलती है। यहां शारीरिक सम्बंधों के लिए नो एंट्री है लेकिन साथी पर समर्पण की भरपूर ज़रूरत।
एक युवा आकाश भी है, जो बेहद होशियार, पढ़ने-लिखने में ब्रिलिएंट और साफ दिल इंसान है। उसकी लाइफ में पिछले कई सालों से एक ही लड़की थी। दोनों की दोस्ती बचपन से ही फल-फूल रही थी, और ग्रेजुएशन में आते-आते वह रिश्ते में बदल चुकी थी। आकाश उसे बेहद प्यार करता था, दोनों साथ-साथ काॅलेज-कोचिंग जाया करते थे। निजी जि़ंदगी में आकाश ने कभी सेक्स को तवज्जो नहीं दी, वह अपने साथी की मुस्कराहट और हाथों में हाथ, से ही खुश था। कुछ दिनों बाद उसकी गर्लफ्रेंड ने किसी और का दामन थाम लिया और आकाश को कुछ ऐसा जवाब मिला जिसकी उसने कभी उम्मीद ही नहीं की थी। उस पर रिश्ते को ढोने का इल्जाम लगा और बेहद साफ-सुथरे इश्क के बदले उसकी गर्लफ्रेंड ने उसे बुद्धू और बोरिंग ब्वाॅफ्रेंड का तमगा दिया। आकाश खुद को समर्पित तो कर रहा था पर अपने साथी को, उसके ही शब्दों में कहें तो संतुष्ट नहीं कर सका। सेक्स और प्यार में यहीं नौंक-झौंक हो जाया करती है। प्यार समर्पर्ण चाहता है और सेक्स संतुष्टि। दोनों स्थितियों में आपको मैनेज करना है। यह कहानी किसी लड़के या लड़की पर केन्द्रित नहीं है, यह ज्यादातर घट रहे किस्सों का एक उदाहरण मात्र है।
आजकल की मुहब्बत में सेक्स को नए सिरे से भी प्रयोग में लाया जा रहा है। यदि लड़की सेक्स के लिए मना करती है, तो उसका पुरुष मित्र उस पर भरोसा न होने की बात कहता है। सेक्स का सबसे बड़ा नुकसान और जोखिम यही है कि बंद कमरे के इस ’प्यार’ के बाद रिश्ते की उम्र बढ़ेगी या उल्टा कम होगी ? तमाम सर्वे दिखाते हैं कि शादी से पहले सेक्स न सिर्फ आगे चलकर अपनेपन का प्रतिशत घटा देता है, बल्कि आपसी वयवहार में भी तनातनी पैदा होने लगती है। यहां अपरिपक्वता की सामाजिक दलीलें भी जायज़ दिखाई पड़ती है। वहीं एक धड़ा सेक्स से रिश्ते को मज़बूती और लांगलाइफ रनिंग की बहस करता है। आधुनिकता ने रिश्तों में इश्क और सेक्स को उलझा सा दिया है, जहां जायज़ और नाजायज़, सही-गलत, परिपक्वता-अपरिपक्वता जैसे मुद्दे कटीली घास की तरह उग आये हैं। यदि समय रहते हम युवाओं ने सेक्स-प्यार को बिल्कुल अलग कर, इसके महत्व-अच्छाई-बुराई को नहीं समझा तो हम न सिर्फ अपनी छवि पर दाग लगा बैठेंगे साथ ही भविष्य की खुशियों की चाबी भी खो देंगे।
बीच के रास्ते पर चलने के लिए हमें रिश्ते में सेक्स की एक उम्र, परिस्थिति को खुद ही तय करना होगा। प्यार का मतलब साथी की इच्छाओं का ख्याल रखना है, उसकी हर इच्छा पूरी करना कतई नहीं। विश्वास-अविश्वास की लड़ाई में जिस्मानी सम्बंध आगे चलकर सिर्फ दुःख व परेशानी ही पैदा करते हैं। जब तक इस छिपी आदत को जोश-जुनून से जोड़कर देखा व लिया जाता रहेगा, सेक्स का सिर्फ घृणित रूप ही सामने आयेगा। कहते हैं प्यार अंधा होता है, पर अब वक्त आ गया है कि प्यार को होश-ओ-हवास के दायरे में रखा जाये न कि हवस के चंगुल में। समर्पण और संतुष्टि दोनों ही ज़रूरी हैं पर सही वक्त पर !
-मयंक दीक्षित
                                                     

Tuesday 2 April 2013

सहानुभूति से ज्यादा सहयोग की दरकार 


सिर्फ सहानुभूति से संकट टलने वाला नहीं है, ज़रूरत है मदद के लिए एकजुट होकर हाथ बढ़ाने की। चिकित्सकों ने इसे त्वचा कैंसर का सबसे भयावह चरण माना है। भारत भी यदि इन पीडि़तों के लिए आर्थिक मदद की पहल करे, तो इनकी जि़ंदगियों में खुशहाली आ सकती है। 

कहते हैं दुःख के बाद सुख आना तय है, पर एक ऐसी भी दुनिया है, जहां दुःख घरज़माई बन बैठा है, और हालात भी इंसानियत पर बिना तरस खाये, जुल्म ढाये जा रहे हैं। ये लोग भले ही इस तरह जीने को अपनी आदत बना बैठे हांे, पर जो भी इन्हें इस हाल में देखता है, वो दंग रह जाता है, और कष्ट से कराहती इन रूहों को खुदा से ज़ल्द अच्छा करने की दुआ मांगने लगता है। मार्च 2007 में रोम के लोन टोडर ने अपनी इस बीमारी को कुछ तस्वीरों के ज़रिए उजागर किया था, जिसने चिकित्सा क्षेत्र के साथ-साथ समाज को भी झकझोर कर रख दिया था।
अमेरिकी चर्मरोग चिकित्सा के निदेशक स्टिफेन स्टोन ने इसे ’लेवनडाॅसकी’ नामक जानलेवा और बेहद कष्टदायी बीमारी का नाम दिया था। दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्रों में यह चर्म रोग बेहद खतरनाक तरीके से अपनी जड़ें जमा चुका है। आधुनिक विज्ञान आज भी इसका जड़ से सफाया करने के नाम पर अंधेरे में हाथ-पैर मार रहा है। मीडिया में इस रोग के शिकार ’ट्री मैन’ कहे जाते हैं, इनकी त्वचा पर कई किलो मृत चर्बी जमा हो जाती है, जिसका एकमात्र कारण हार्मोंस का डिसबैलेंस बताया गया है।
इस रोग के कारणों पर हुए शोध से पता चलता है कि कोशिकाओं में जस्ते की मात्रा बढ़ने पर कुछ अजीब से दाग उभर आते हैं, यही दाग आगे चलकर बड़े और मोटे होते रहते हैं। शुरुआत से ही असहनीय दर्द शुरु होता है, जो समय के साथ-साथ कई गुना बढ़ता चला जाता है। कुछ आनुवांशिक लक्षणों से भी यह रोग पनपता है। चिकित्सकों ने इसे त्वचा कैंसर का सबसे भयावह चरण माना है। रोग बढ़ने के साथ-साथ मोटी फुंसियां, गले, हाथ, छाती तक पहुंचती रहतीं हैं, और जिस्म को न सिर्फ तकलीफदेय बना देतीं हैं, बल्कि इन्हें बेचारगी से देखने वाले की असहज़ प्रतिक्रिया, रोगी का आत्मविश्वास भी गिरा देती है।
इंडोनेशिया के 34 वर्षीय डेडे कोसवारा ने आज से कई साल पहले इंटरनेट पर अपना यह रोग बड़े आत्मविश्वास से दुनिया को दिखाया था। डिस्कवरी चैनल ने उनकी कहानी को प्रमुखता से प्रसारित भी किया था, और उनके इलाज की भी हरसंभव व्यवसथा की थी। हालांकि डेडे ने कभी किसी से इलाज़ की गुज़ारिश नहीं की , पर वे इस रोग से पीडि़त ऐसे शख्स थे, जो उसे सहज़ और अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा मानकर जी रहे थे। लोग उन्हें देखकर भले ही हैरत में पड़ जाते हों, पर उन्होंने हमेशा ही खुशमिजाज़ी का परिचय दिया। 26 अगस्त 2008 को उनकी सर्जरी हुई, जिसमें तकरीबन 6 किलो, मृतचर्बी की पर्त हटाई गई, और उनकी स्थिति पहले से बेहतर हुई। डिस्कवरी चैनल के शो ’ट्रीमैनः सर्च फाॅर दा क्योर’ में दावा किया गया कि 95 फीसदी मृत चर्बी को उनके शरीर से अलग किया गया है, और वे मुश्किलों से पूरी तरह तो नहीं, पर कुछ हद तक ज़रूर बाहर आये हैं।
इलाज की गुत्थी सुलझाने में जापानी चिकित्सक भी बेजोड़ अध्ययन और शोध कर रहे हैं। पीडि़तों को साफ-सफाई से रखने और विकास की ओर ले जाने में वहां की सरकारें और तमाम गैरसरकारी संगठन सामने आये हैं। इन मरीज़ों की तरफ से जो मुख्य बातें सामने आई हैं, उनमें से एक, लोगों की सहानुभूति से ज्यादा, उन्हें सहयोग की ज़रूरत है। इनके बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, रहने को खुशनुमा माहौल, इनकी मूल ज़रूरतें हैं। हालांकि जकार्ता पोस्ट जैसे कई मीडिया घराने इनके सुख-दुख में हमेशा खड़े रहे हैं, इनकी बदौलत ही लोगों ने ऐसे रोग और उनसे पीडि़तों की व्यथा को जाना, समझा और महसूस किया है।
इंसानियत का सही अर्थ सिर्फ खुद की सुख-सुविधाओं पर ही नज़रें गढ़ाये रहना नहीं है। जब तक हम समाज के हर हिस्से में अपनापन और सहयोग के बीज नहीं बोएंगे, सफल और समृद्ध मज़हब की इमारत हमेशा कमज़ोर ही रहेगी। ऐसे गंभीर रोगों से निपटने में सिर्फ चिकित्सक वर्ग की ही नहीं, देश-विदेश के उन तमाम बुद्धिजीवियों की ज़रूरत है, जो इन पीडि़तों का दर्द बांट सकें, उनके हितों के लिए सवाल उठा सकें। भारत भी यदि उन पीडि़तों को आर्थिक मदद की पहल करे, तो उनकी जि़ंदगियां संवर सकती है। देश-देश में आपसी सौहार्द, सहयोग से ही सुनहरे कल की तस्वीर रची जा सकती है। इस नेक नज़रिए से पूरे विश्व में न सिर्फ हमारी साख मजबूत होगी साथ ही परोपकार की अपनी परंपरा पर भी हम गर्व से कायम रह पाएंगे।
                                                            -मयंक दीक्षित