फूहड़ता के अँधेरे में सादगी का सूरज
अर्थपूर्ण कॉमेडी ने हर दिल को छुआ, गुदगुदाया है, जबकि डबल मीनिंग कंटेंट पर हमेशा अच्छे-बुरे, सही-गलत की तलवारें तनी है। ’चिडि़याघर’ जैसे सफल टी.वी. सीरियलों ने साबित कर दिया है कि फेमिली स्पेशल एंज्वॉयमेंट ,भारत में न कभी फ्लाॅप हुआ था, और न होगा।
हंसी-मज़ाक और गंभीरता कभी एक साथ नहीं रह सकते। गंभीरता को तोड़ने के लिए हास्य की मांग है और हास्य की मज़बूरी है कि वह दर्शकों के होंठों पर हर कीमत पर मुस्कान लाये, उन्हें गुदगुदाये। कई हास्य-कलाकारों ने डबल मीनिंग कॉमेडी यूं ही नहीं अपनाई। दरअसल उन्हें दहाड़ें मारकर हंसने वाले दर्शक नहीं मिल रहे थे। आधुनिकता के इस शोरगुल में अर्थपूर्ण कॉमेडी पर तीखी बहसें तो हुईं, पर टीआरपी और लोकप्रियता की रेस में तमाम कॉमेडी कार्यक्रम एक रुटीन-फूहड़ स्पेशल शो बन कर रह गए। हिम्मत हारकर तमाम हास्य कलाकारों ने भी डबलमीनिंग कंटेंट से हाथ मिला लिया।
मुंगेरीलाल, जसपाल भट्टी जैसे दिग्गजों ने एक सदी में हास्य का नया मंच और मुकाम तैयार किया था, जिसे सब टीवी के सीरियल ’चिडि़याघर’ में गधा प्रसाद जैसे हास्य किरदारों ने आगे बढ़ाया है। कैसे फैशन और भागमभाग के इस दौर में भी परिवार में, परिवार के साथ और परिवार के लिए, चिडि़याघर जैसे सीरियल अलग पहचान और सम्मान का नया इतिहास रच रहे हैं। गधा प्रसाद जैसे किरदारों की समीक्षा के लिए शब्द तो प्रयोग किए जा सकते हैं, पर उनके हुनर और अंदाज़ का हर पहलू समेंट पाना वाकई मुश्किल है।
अश्विनी धीर निर्देशित ’चिडि़याघर’ में यूं तो एक वनारसी परिवार की कहानी को दर्शकांे से जोड़ने की कोशिश की गई है, पर असल में सीरियल की जान जीतू शिवहरे ही हैं। जिन्होंने गधा प्रसाद का किरदार लाखों-करोड़ों लोगों की ज़ुबान पर ला दिया है। अब तक 367 ऐपीसोड्स में ’चिडि़याघर’ ने इस प्रतियोगी दौर में खूब नेम-फेम और शोहरत हासिल की है। सब चैनल के इस लोकप्रिय शो ने उस मिथ को ज़बर्दस्त तरीके से तोड़ा है जिसमें कहा गया था कि आज के दौर में डबल-मीनिंग हास्य ही हिट करवाया जा सकता हैं।
चिडि़याघर के इस घर में अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने केसरी नारायण के किरदार को देश के उन तमाम मध्यमवर्गीय पिताओं की तरह निभाया है, जो अपने परिवार की खुशियों में जश्न मनाते हैं, और गम के बादल छाने पर सूझबूझ से सामना करने की हिम्मत देते हैं। घर में दो बेटे हैं, जिन्हें घोटक और गोमुख की शक्ल दी है अभिनेता परेश और सुमित अरोड़ा ने, जो बेहतर अभिनय लिए, अपने किरदार की काबिलियत और मूर्खता का मिक्सचर परोसते चलते हैं। बाकी किरदारों में नौंक-झौंक और आपसी प्यार की बेजोड़ झलक दिखती है, जो ’चिडि़याघर’ को हर उस परिवार से जोड़ती है, जिन्हें बाकी चैनलों पर चिकनी-चमेली या लैला-मुन्नी के अलावा कुछ खास नहीं मिल पाता।
डी.डी. नेशनल के कुछ खास धारावाहिकों में हरी मिर्ची-लाल मिर्ची, कानाफूसी जैसे पारिवारिक इमोशनल सीरियलों ने घर-घर में खूब पहचान बनाई थी। पिछले कुछ सालों में निजी चैनलों की भरमार ने ऐसे सीरियलों से लोगों का ध्यान हटाना शुरु किया और धीरे-धीरे दर्शकों की रुचि का हवाला देकर फूहड़ता परोसी जाने लगी। तमाम हास्यकवि स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर डबलमीनिंग शरारतों का शर्बत बांटने लगे, तो कॉमेडी के कुछ तथाकथित कार्यक्रमों ने पारिवारिक सीमाएं लांघकर एक नया दर्शक वर्ग बांध लिया, जिसके दम पर ही टीआरपी और लोकप्रियता का पैमाना तय होने लगा।
’मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ सपनों में ही रह गए तो ’देख भाई देख’ जैसे अर्थपूर्ण कॉमेडी कार्यक्रम की कद्र कम होती रही। सब टीवी के बेहद चर्चित ’’ऑफिस-ऑफिस’’ में ज़रूर नौकरी-पेशा वर्ग की हकीकत पेश की गई, जिसे पंकज कपूर ने अपने ज़बर्दस्त अभिनय से यादगार बना दिया। कॉमेडी की ज़मीन पर अर्थ-अनर्थ, हद के अंदर, हद के बाहर जैसी छिटपुट झड़पें चलतीं ही रहेंगी, पर खुश होने की बात ये है कि चिडि़याघर, तारक मेहता का उल्टा चश्मा, वाह वाह क्या बात है जैसे सीरियल जब तक जि़ंदा हैं, हमें अर्थपूर्ण हास्य को लेकर परेशान होने की कतई ज़रूरत नहीं है।
उस हंसी का कोई मतलब नहीं है, जो हमें परिवार के सामने होंठ खोलने पर शर्मिंदा करे। लाख कोशिशों के बावजूद डबल मीनिंग कंटेंट से पैदा हुई मुस्कराहट हमेशा दबी-सहमी व निजी ही होगी। दिल से हंसने के लिए हमें आज भी व्यावहारिक और पारंपरिक मसखरी की ज़रूरत है। जब तक गधा प्रसाद जैसे किरदार जि़ंदा हैं न तो हास्यकलाकारों को निराश होने की ज़रूरत है और ना ही हम दर्शकों को। आखिर हंसी ही तो है जो स्वास्थ्य और स्वभाव दोनों के लिए ज़रूरी है। भारत में आधुनिकता का अंधा दौर हावी तो हुआ है पर इतना नहीं कि हम घर-परिवार से छिपकर व दूर बैठकर फूहड़ता की गप्पें सुनें और लंबे समय तक उन पर ही ठहाके लगाएं !