Thursday 3 October 2013

मद्रास कैफे का अपना सच


हर किसी का अपना सच होता है! मद्रास कैफे का भी है। अभिनय का सच, कहानी का सच और इतिहास की खुरदरी सच्चाइ का सच। निर्देशक सुजीत सरकार की उंगलियों से बंधे कलाकार कठपुतलियों की तरह फिल्म में कदम रखते हैं और क्लाइमैक्स तक इतने जीवंत हो जाते हैं कि फिल्म, फिल्म नहीं लगती। श्रीलंकाइ तमिलों की तसवीरें देखकर कैमरे के मशीन होने पर शक होने लगता है। सिविल वार शब्द सुनने में जितना सहज लगता है, खुद में उतनी ही असहजता और दर्द समेटे हुए है। 
फिल्म चर्च से शुरु होकर चर्च पर ही खत्म होती है, पर इस बीच सरकार और खुफिया एजेंसियों के बीच बुना-उधड़ा-सुलझा जाल दर्शकों को बांधे रखता है। कलाकारों को नाम और किरदार निभाने को क्या कहा गया, वे तो गज़ब की वास्तविकता पहन बैठे हैं ! पुलिस अधिकारियों व रा के चुस्त कर्मचारियों के किरदारों ने फिल्म के सुस्त पहलुओं में भी जान फूंक दी हैं। 
आखिर तक नरगिस फाख़री, जान इब्राहिम, राशी का काम फिल्म को उपर उठाए रखता है। जिन दर्शकों के साथ उनकी पत्नी या महिला-मित्र गइ होंगी, उनकी आंखों में भावुकता के आंसू ज़रूर छलक उठे होंगे। नौकरी के लिए पत्नी से सालों दूर रहना और नफरत पैदा ना होने देना, एक पति के लिए बेहद समर्पण और हिम्मत का काम है। पत्नी से उसकी भलार्इ के लिए झूठ बोलकर नायक नौकरी करने चला तो जाता है, पर इसकी कीमत उसे अपना सबकुछ खोकर चुकानी पड़ती है। 
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या इतनी सफाइ से व संभलकर दिखार्इ गइ है कि कंट्रोवर्सी की दूर-दूर तक गुजांइश न रहे। हर पहलू को फिल्म शुरु व खत्म होने पर साफ-साफ शब्दों में सबटाइटल दे दिए गए हैं। सौ शब्दों की एक बात यह भी कि भारत के कलाकार अब इंडिया-टाइप फिल्में देने लगे हैं। बालीवुड में बदलाव की यह बिलबिलाहट उसे जल्द ही बेशुमार शोहरत और इज्ज़त दिलाने वाली है। 

Friday 2 August 2013


खेत बनाम ख्वाहिशें



ज़ाहिर है, खेती की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है, पर भूमि का भवनों में बदलना लगातार ज़ारी है, जिससे एक बड़े नुकसान की तस्वीर नजर आने लगी है। कहीं ऐसा ना हो कि कल हम अपने मकानों पर खड़े होकर विदेशियों से यह नारा लगाएं कि ’तुम मुझे फूड दो, मैं तुम्हें फ्लैट दूंगा।  

थोड़ा मुश्किल है कि आपके पास दौलत भी हो, दिल भी हो और दिमाग भी। जरूरतें पूरी करने के लिए हमारे पास जिद है और पेट भरने के लिए प्रकृति को नोंचने की आदतें। आस-पास फैली हरियाली हमें बीहड़ लगने लगी है। खेत-खलिहान हमारी ख्वाहिशों को खरोंचने लगे हैं। वे ख्वाहिशें, जिनसे हम एक ही बार में रईसी का रायता पी जाना चाहते हैं, वे ख्वाहिशें जो हमें अपने अमूल्य खेतों केा प्लॉट बनाने के लिए मजबूर कर रहीं हैं। खाली ज़मीन पर खेती की सौगात अब खैरात बन चुकी है। प्रॉपर्टी डीलिंग नाम के राक्षस ने हमारे खेतों को निगलना शुरु कर दिया है। अब तो वह गाना सुनकर हैरानी महसूस होती है कि मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती। कुछ साल तक यदि एग्रीकल्चर के पहियों पर प्रॉपर्टी डीलिंग का रथ सवार रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब हमें  दूसरे देशों से खेत और खेती की आउटसोर्सिंग करनी पड़ेगी। विदेशों में मकान गिराकर खेत बनाए जाएंगे और हम अपने अमूल्य खेतों पर अफसोस के आशियाने खड़े करते रहेंगे। 
 हर कीमत पर ज़मीन हासिल करने की होड़ ने वाकई यह चिंता पैदा कर दी है कि गरीब किसानों-मजदूरों की ज़मीनों पर फैक्ट्रियों, भवनों, होटलों के मन-माफिक निर्माण से हम विकास का कौन सा बीज बो रहे हैं। तथाकथित विकसित राज्य गुजरात की ही बात करें तो बीते साल गुजरात सरकार ने अमरीकी कंपनी फोर्ड को 460 एकड़ भूमि लीज़ पर दे दी। यहां के किसानों-मजदूरों की रोजी-रोटी कंपनी और उसकी भर्तियों के भरोसे छोड़ दी गई। कृषि मंत्रालय के पिछले कुछ साल के आंकड़ों में खेतों की संख्या और स्थिति लगातार बदतर हो रही है। खेती के लिए प्रयोग होने वाली भूमि का प्रतिशत गिर रहा है, किसानों की दिशा और दशा भी तेजी से लड़खड़ा रही है। उन्हें अपने खेतों के बदले कम या बेहद कम रकम पा कर कर बिल्डरों से समझौंते करने पड़ रहे हैं। ज़ाहिर है लाचारी और लालच की इस जंग में जीत उद्योगपतियों व स्थानीय प्रशासन की ही हो रही है। अगर घाटे में कोई है, तो हमारे किसान और उनके परिवार। 
आंकड़ों की अंगड़ाई बयां करती है कि 1988-89 में खेती के लिए 185.142 मिलियन हैक्टेयर ज़मीन प्रयोग हो रही थी। जो 2008-09 में घटकर 182.385 मि.है. रह गई। दो प्रतिशत की इस भयावह गिरावट के कई मायने हैं, जिनका परिणाम, हमारे किसानों, फसलों व खेती के तमाम पहलुओं पर पड़ा है। आयात-निर्यात का घाटा-मुनाफा भी इससे अछूता नहीं है। फलों-सब्जियों के आसमान छू रहे दामों के लिए भी यही गिरावट अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। खाद्यान्न की पैदावारी में हो रही अनियमितता ने खाद्य सामग्री को हमारे बजट से बाहर ला खड़ा किया है। भण्डहारण और बिक्री की समुचित व सख्त व्यवस्था ना होने से हमारी उपज पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है। 
बात अगर खेती से मिल रहे रोजगार की करें, तो आंकड़े कुछ राहत ज़रूर पहुंचा रहे हैं। 2001 की सेंसस के मुताबिक देश के 402 मिलियन कामगार में से 58.02 प्रतिशत  जनसंख्या खेती से अपना व परिवार का पेट भर रही थी। यह आंकड़ा अब कुछ और बढ़ा है। ज़ाहिर है, खेती की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है, पर भूमि का भवनों में बदलना लगातार ज़ारी है, जिससे एक बड़े नुकसान की तस्वीर नजर आने लगी है। 
दरअसल समस्या की शुरुआत हमसे ही शुरु होकर हम पर ही खत्म होती है। एक विश्वस्त सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि सन 1800 के दौरान दुनिया की सिर्फ 3 फीसदी आबादी ही शहरी क्षेत्रों में रहा करती थी। 1900 में यह शहरी आंकड़ा 14 फीसदी हुआ। 1950 के आस-पास एक बड़ा बदलाव आया, जिसमें यह आकंड़ा 50-50 में बट गया। ज़ाहिर है, आज के दौर में हर कोइ आधुनिकता के आशियाने में कैद रहना चाहता है। धूल-मिट्टी से एयरकंडीशन तक के सफर में हमने अपने गांवों को अकेला छोड़ दिया और शहर की ओर दौड़ पड़े। लाखों की आबादी ने गांव की ज़मीनें बेंच कर, शहर में मकान खड़े कर लिए। गांव-शहर प्राथमिकता के परपंच में घिसटते रहे, और बिल्डरों व उद्योगपतियों के चहेते बनते गए। शहरों में छत्तों की तरह अबादी बढ़ रही है वहीं खेती के लिए प्रयोग होने वाली ज़मीन सिकुड़ रही है। 
खेतों को अपनी ख्वाहिशों के नीचे कुचलने का यह बदसूरत सिलसिला शुरु हो चुका है और हम इसे विकास की विरासत मान बैठे हैं। रोटी, कपड़ा और मकान की तिकड़ी में खेतों को नज़रंदाज कर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। रोटी चाहे चूल्हे की हो या होटलों-रेस्त्रां की चमचमाती पैकिंग-बंद, उसकी पैदाइश हमारे खेतों में ही होती है। हां यह ज़रूर संभव है कि आज हम अपना अन्न, अपने ही देश से पैदा कर रहे हैं, कल को हमें किसी और देश पर निर्भर होना पड़ जाए। अभी वक्त ने अपने दरवाजे बंद नहीं किए हैं। ठान लिया जाए तो प्राॅपर्टी डीलिंग के इस राक्षस को काबू में किया जा सकता है। संभलने के लिए सही वक्त और सही कदम की जरूरत पड़ती है। कहीं ऐसा ना हो कि कल हम अपने मकानों पर खड़े होकर विदेशियों से यह नारा लगाएं कि ’तुम मुझे फूड दो, मैं तुम्हें फलैट दूंगा।  

Sunday 9 June 2013

रात को जश्न , दिन में समझौते


’’ज़माना और जज़्बात दो अलग बातें हैं। संगीत की सरगम, बैंड-बाजे वाले भी बजाया करते हैं, पर अफसोस, वे महज़ लोगों के दिल ही जीतते हैं, दौलत और शोहरत नहीं ! काश ! संगीत और उसके रखवालों की नज़र रफीक चचा जैसे कलाकारों पर भी पड़ी होती ’’!

’’संगीत कानों से होकर दिल का रास्ता पकड़ लेता है। मुश्किलों और उलझनों की तपन पर सुकून और आनंद के छींटे उछालकर हमें शांति और सुकून की खूबसूरत दुनिया में ले जाता है।’’ अक्सर हम संगीत, उसकी सादगी और उसके चमत्कारों की कहावतों में जीते आए हैं। ’सा, रे, गा, मा, पा, धुनों से सजे और लय-ताल से संवरे संगीत को न सिर्फ वाहवाही मिली, दुनिया और दिग्गजों ने भी उसे सिर-आंखों पर बिठाया। अफसोस कि कलाकारों की मुट्ठीभर भीड़ जिसने संगीत और समाज को एक धागे में पिरोया, आज गुमनाम है, बदनाम है, और बदसूरत भी। शादी के तमाम जोड़ों ने जिस संगीत के साथ अपनी हसीं दुनिया बसा ली, उन ’संगीतकारों’ की जि़ंदगियां, रात के अंधेरे में तो रोशन रही, पर दिन के उजाले में समझौते और समाज ने उन्हें अंधेरों में ही रखा। आज बात उन बैंड-बाजे बजाने वालों, और व्याह-बारात के गला-फाड़ गायकों की। संगीत और उसकी दुनिया में उनकी हनक और हिम्मत की भी कद्र होनी चाहिए थी। शायद हमने ही उन्हें चंद रुपयों में चिल्लाने और रईस बारातियों के हाथों, नोट छीनने वाला समझकर इग्नोर कर दिया। इग्नोर तक तो ठीक था, पर क्या संगीत और उसके रखवालों ने उनका हाल-चाल  तक पूछा ..? ठीक रफीक चचा और उनकी जि़ंदगी की तरह ! 
रफीक चचा का बचपन दरवाजे पर उंगलियां ठोंकते और एकांत में गुनगुनाते हुए गुज़रा था। परिवार में अब्बू, अम्मी और चार बड़े भाई-बहन थे। कारोबार के नाम पर अब्बू की 10 बाइ 13 की छोटी सी दुकान थी, जिसमें अक्सर सामानों का ढेर और ग्राहकों का सूनापन बना रहता था। उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही थी, महंगाई की मार भी तेज़ हो चली थी। बेटियों की शादी के बाद दुकान बिक गई, और बेटा दूर शहर में नौकरी करने चला गया, जो वहीं का होकर रह गया। परिवार की जि़म्मेदारी और गायकी का सुरूर दोनों अब रफीक के कंधों पर थे। पिताजी से छिपकर रफीक ने पास कसबे में एक ढोलक-मास्टर से संपर्क साधा। ढोलक मास्टर, ढोलक के साथ सुर और लय के भी पक्के थे। रफीक का जुनून और लगन देखकर वे झट से सिखाने को राजी हो गए। जल्द ही रफीक संगीत और उसकी तानों में खूब जम-रम गया। तब रेडियो पर मुकेश-रफी साहब को सुनकर उसका दिन शुरु हुआ करता था और गजलों की शाम के साथ अकेलीं वीरान रातों की विदाई।
वक्त अब सोचने-विचारने का नहीं, कदम उठाने का आ चुका था। रफीक ने पिताजी से सहमते हुए अपनी मर्जी और मर्ज़ बताया। पिता जी झल्ला पड़े। उसे घर से बाहर निकाल दिया गया। संघर्ष और भविष्य दोनों धरती के दो किनारों की तरह हैं, जिन्हें पकड़ने के लिए मेहनत, लगन और गज़ब का जुनून चाहिए। बातों और जज्बातों से सफलता मिल रही होती, तो शायद आज कोई असफल या परेशान ना होता। रफीक कई दिनों भूखा रहा, पर संगीत की तड़प पेट की भूख पर अब भी भारी थी। तभी उसे पास की सड़क से एक बारात गुज़रती दिखाई दी। रफीक ज़रा करीब से उस भीड़ में शामिल हो गया। कुछ देर बाद अचानक बैंड में गा रहे गायक का गला खराब हो गया, और नाचने को बेताब बाराती बैंड-मास्टर पर बरस पड़े। रफीक ने दौड़कर माइक झपट लिया और खाली पेट-सच्चे दिल से गाना शुरु कर दिया। बारातियों का उत्साह बढ़ गया, वे फिर जमकर सड़क पर लोटने-थिरकने लगे। बैंडमास्टर का दिल रफीक की गायिकी पर आ चुका था। उसे 40 रुपए रोज़ पर नौकरी मिल गई। 
नौकरी के लगभग 20 साल गुज़र चुके हैं। आज आधुनिकता के काले बादलों ने सादगी और सुकून की शानदार धूप ढक ली है। बैंडबाज़ा वाले और संगीत अब भी दो घड़ों की तरह अलग रखे हैं। रफीक केा अब लोग चचा कहकर बुलाने लगे हैं। पिछले दिनों उन्हें गांव की पुरानी सड़क पर लाल-काली बैंड-ड्रेस में देखा था। वे कभी-कभार ढोल भी बजाते हैं। अपने कांपते हाथों से ढोल पर दमदार थाप मारकर वे हुड़दंगियों-बारातियों को तो खुश कर लेते हैं, पर सुबह जब बात घर चलाने और जि़ंदगी गुज़ारने की आती है, तो इस कमर-तोड़ महंगाई में उनका ही बैंड बजने लगता है। 
100 रुपए रोज़ कमाकर, वे रातभर जश्न और जलबों की नुमाइश तो करते हैं, पर सुबह अपने और परिवार के लिए संघर्षों और समाज की कहावतों को कोसने लगते हैं। उनका छोटा बेटा बाहर चला गया है, पत्नी और बहू के साथ अब उनका हुनर ही है, जो कभी कुछ कम तो कभी भरपेट खाने का जुगाड़ करवा देता है। कुछ फायदों की बात जोड़ दी जाए, तो इस आधुनिक युग ने उन पर कुछ ऐहसान ज़रूर लाद दिए हैं, जैसे: बारातियों का बारात में नोट उछालना, टिप देना वगैरह। चचा, गाना गाते हुए, ढोल बजाते हुए, सड़कों पर गिरी हरी पत्तियां उठा लिया करते हैं। कभी-कभार तो गांववाले उन्हें भिखारी, मांगने वाला, नीयतखोर कहकर ठहाका भी मारते हैं, पर चचा को किसी से कोई शिकायत नहीं है।  
परिवार और पेट के सामने पैसे की सनक भी जायज़ और ज़रूरी हो जाया करती है। चचा अब किससे कहें, या कौन अब चचा को समझाए कि वे घूम-फिरकर ही सही, पर हैं, संगीत का हिस्सा ही। वह संगीत जो दो अजनबियों को बंधन में बांधने का ज़रिया रहा है, वह संगीत जिसने धूम-धाम से एक बेटी को विदा किया, वह संगीत जिसे सुनकर नई-नवेली दुल्हन के दिल के तार बज उठते हैं। काश ! संगीत और उसकी धरोहरों ने रफीक चचा जैसे संगीतकारों का भी ज़रा ख्याल रख लिया होता ! उनकी गायिकी भले ही सुर, लय, ताल से बंधी और सजी नहीं थी, पर उनके संघर्षों में शिददत और शराफत का ज़बर्दस्त घालमेल था। माना कि वे संगीत और संगीतकारों की चमचमाती कालीन पर कदम नहीं रख पाए, पर दिल जीतने वालों में उनकी गिनती आज भी है। 
जज़्बातों और वाहवाही से घर के खर्च नहीं चलते। समाज के सिरहाने पर बातें, ठहाके और हुल्लड़पन तो है, पर मदद और दिलासों का आज भी सूखा है। रात में घंटों गला फाड़ने के बदले लोग तो नाच कर खुशियां अपनी जेबों में भर ले जाते हैं, पर जब रफीक चचा जैसे सैकड़ों बैंड-बाजे वाले लुटाये गए नोट अपनी जेबों में भरने चलते हैं, तो उन्हें शारीरिक चोट ही नहीं मानसिक ज़ख्म भी झेलने पड़ते हैं। शायद संगीत और उसकी दीवानगी ने इन बैंड-बाजा कलाकारेां को ऐसे घाव दे दिए हैं, जिन्हें अब कद्र, प्यार और सच्चे दिलासों से ही भरा जा सकता है। रफीक चचा ! आप संगीतकार भले ही न कहे जाएं, पर गज़ब के कलाकार हैं, जो रात को जश्न और दिन में समझौते करते हुए अपनी बची हुई जि़ंदगी गुज़ार रहे हैं !

प्रिय पाठकों ! माफ कीजिएगा ! आपको अपनी कलम से एकतरफा और वायस्ड लेख दे रहा हूं ! 


Saturday 8 June 2013

मुसाफिर का पत्र मंजिल के नाम 

प्रिय बॉलीवुड, 

              करोड़ों-अरबों का टर्नओवर और स्टार्डम-ग्लेमर के थिंक टैंक हो तुम ! तुम्हारी ज़मीं चमचमाते खरा सोना है, पर किसी के लिए शान-ओ-शौकत तो किसी के लिए तपता हुआ लोहा भी है! मुझे याद है जब पहली बार बड़े परदे पर चकाचैंध को चूमती नायक-नायिकाएं मेरी आंखों को बेहद पसंद आईं थीं। तब समाज और परिवार की ना-नुकर और भों-सिकुड़ के बावज़ूद मैं तुम्हारी दुनिया में बिना टिकट घुस आई थी। समाज में तन ढकने की धक्कममपेल है, और तुम्हारी दुनिया में खुले बदन की खस्ताहाल ख्वाहिशें ! मेरे जैसी न जाने कितनी स्ट्रगलर्स तुम्हें खुद में समेंट लेने को बेताब थीं ! सौ-करोड़ी क्लब भी बनने लगे थे, और तुम्हारा टर्न-ओवर गैस के भारी-भरकम गुब्बारे की तरह बढ़ता ही जा रहा था। अभिनय और कलाकारी से कहीं बढ़कर फिगर और फेस की बादशाहत सिर उठाने लगी थी। 
शुरुआती दौर में किराये के कमरे में कैद रहना, क्रीम-पाउडर खुद करना और बड़े दाम के छोटे कपड़े पहनना हम स्ट्रगलर हीरोइनों की मानो पहचान सी बन गई है। बंबइया अखबारों-मैग्जीनों में आॅडीशन के लिए दिए गए फोन नंबरों पर घंटों लबरियाते हुए खीझ सी होने लगती थी। कभी-कभार किसी से अप्वाइंटमेंट भी मिलता था। ऑटो-रिक्शे भी रकम में रियायत नहीं करते थे, आखिर वे भी तो स्ट्रगलर-स्टार ही हैं ! ऑडीशन-वेन्यू का दरवाज़ा सजा हुआ करता था, अंदर बंद शीशे और सेंट्रल ए.सी. की ठंडक में भी हवस की गर्मी सी बनी रहती थी। कुछ इंटरवयू लेने वालों की नज़रें पैरों से होती हुईं, पूरा जिस्म ताकतीं, फिर मुंह बनाकर कह देतीं - फेसकट अच्छा नहीं है, अभिनय का अनुभव नहीं है, वो बात नहीं है, ये बात नहीं है! वगैरह-वगैरह ! 
आखिरकार एक दिन तुमने मुझपर एहसान कर ही दिया। तब मुझे ये मेरी जि़ंदगी का सबसे बड़ा चमत्कार ही लगा। सदी के महानायक के साथ काम करने का ऑफर मिला।  सुकून भी उस अजनबी मेहमान की तरह हैं, जो घंटों पड़ोस वाली गली में भटकता रहता है और अचानक उसे कोई सही रास्ता, सही घर, और सही शख्स तक पहुंचा देता है ! अब मन इतना खुश था कि इसे फिक्र ही नहीं थी कि जि़ंदगी महज़ एकाध फिल्मों की किताब नहीं ! पहली ही फिल्म के सहारे बॉलीवुड पर सवार होने की ललक और दरवाज़े पर स्टार्डम की दस्तक सुनाई देने लगी थी। जैसे-तैसे फिल्म पूरी हुई, लोगों के लबों पे मेरा नाम चढ़ने लगा ! मीडिया और फिल्म क्रिटिकों ने मेरे अभिनय की तारीफें कीं, पर अभी भी कुछ बाकी था ! शायद बहुत कुछ ! फिर कारवां चल निकला था। आगे चलकर दो बड़े स्टारों के साथ काम करने का हसीं मौका भी हाथ लगा ! 
फिर अचानक सफलता की फुलवारी में वीरानी सी छाने लगी ! कई हीरोइनें सौ करोड़ी क्लब और लव-अफेयर्स की बदौलत मीडिया के मुंह लगीं रहीं। मैंने सादगी और मेहनत को ही अपना भगवान माना था। मुझे क्या पता, कि 120 करोड़ की आबादी में अपनी पहुंच बनाये रखने के लिए अफेयर्स और पार्टी-मटरगस्ती भी बेहद ज़रूरी है। मैंने नायकों को को-स्टार का दर्जा दिया और फिल्मों को अपने शौक और प्रोफेशन का ! शायद मेरा ज़मीर भी इसी में खुश था। पर खुशी और खुशकिस्मती दो अलग बातें हैं। निर्माता-निर्देशकों ने मेरे अभिनय और जुनून को इग्नोर कर दिया! दरअसल स्टार्डम और ग्लेमर की गाली-गलौज से मुझे परहेज़ था और न जाने क्यूं सादगी और शराफत का पंक्षी ज़ीरो-फिगर और सेक्ससिंबल के पिंजड़े में कैद नहीं हो सका ! 
आज बात और जज़्बात सबकुछ मुझसे कहीं दूर चले गए है !तुम्हारी शर्त, तुम्हारे इरादे, तुम्हारे गाइडेंस से अब मैं थक सी गई हूं ! ग्लेमर की गांधीगीरी और शोहरत की शैतानियां अब मुझे जीने से रोक रहीं हैं ! तुम्हारा टर्नओवर कई गुणा बढ़ता रहे, मेरे जैसी सभी सफल, कम सफल या बेहद कम सफल हीरोइनों से मेरी गुज़ारिश है कि कपड़े भले ही छोटे कर लें, पर मेरी तरह अपना दिल छोटा न करें ! वाहवाही और पाॅजिटिव समीक्षाओं से जि़ंदगी की फिल्म सफल नहीं होती ! दिल और दामन के पर्दे अभी उतने बड़े और स्टारछाप नहीं हुए हैं, कि इसमें हर ज़ख्म, हर दर्द, फिल्मों की तरह हैप्पी एंडिंग होता चला जाए ! आज अपनों से दूर और दुश्मनों से छुटकारा पाकर एक नई फिल्म का आइडिया छोड़ कर जा रही हूं ! पता नहीं फिल्म क्रिटिक्स इसे कितने स्टार देंगे .......? 
- जि़ंदादिल जिया खान !  


Saturday 25 May 2013


जज़्बातों को फिल्मी न होने दें !


आशिक और आशिकी के बीच दुनिया ने एक ऐसी दीवार बना रखी है, जिस पर लिख दिया गया है कि आप या तो मुहब्बत ही कर पाएंगे या फिर जि़ंदगी में सफल ही हो पाएंगे ! इश्क की शुरुआत जज़्बातों से होकर जि़द तक जा पहुंचती है, पर जब तक इज़हार का अंदाज़ फिल्मी और दिखावटी रहेगा, आप हसीन लम्हों को यादगार बनाने से चूकते रहेंगे। 

कितना मुश्किल है इश्क हो जाने के बाद उसे छिपाये रखना ..! ठीक उसी तरह, जैसे आपने किसी के साथ सीरियस-मज़ाक किया हो और फिर आप खुद को बेकसूर साबित करने के लिए उसे समझाए जा रहे हैं! यहां समझाने वाले आप खुद हैं, और समझने वाला दिल ! अक्सर दिल और दिमाग, ’लेफ्ट-राइट’ गेम खेलते रहते हैं ! दिमाग में फयूचर हाॅरर और दिल में प्रिज़ेंट प्लेज़र। दिमाग में टैंशन का टशन और दिल में दिलेरी के दिलासे ! ये  दिमाग उस बांध की तरह है, जो एक हद तक लहरें रोकने की ताकत रखता है। पर दिल की तूफानी लहरें, जब होश-ओ-हवास खोकर दौड़ीं चली आती हैं, फिर दिमाग का बांध टूट जाता है। दिल खुद को जीता हुआ और दिमाग कुछ दिनों के लिए हारा हुआ सा महसूस करने लगता है। 
हालिया फिल्म आशिकी 2 का डाॅयलाॅग - ’’मुहब्ब्त, प्यार, इश्क लफजों के सिवाय और कुछ नहीं, बस किसी स्पेशल के मिल जाने के बाद इन शब्दों को मायने मिल जाते हैं।’’  फिल्मों से लेकर फरिश्तों की कहानियों तक में इश्क और इज़हार के बीच गहरा रिश्ता रहा है। इस आधुनिक जि़ंदगी में इज़हार को हम ’प्रपोज़’ कहने लगे हैं। दिल के लिए ’प्रपोज़’ शब्द एक ’मीडिया’ है। ऐसा मीडिया जो ब्रेक लेकर दिल के प्रोग्राम सामने वाले को सामने जाकर पेश कर देता है। प्रपोज़ करने के बाद का ’डिसीज़न’ टीआरपी रेटिंग की तरह है। यदि आपका प्रोग्राम अच्छा रहा, तो हाइ-टीआरपी, वरना ’नाॅट नाउ’ का ज़बर्दस्त फ्लाॅप शो। क्यूं न प्यार को इज़हार की शक्ल कुछ इस तरह दी जाए कि वह ना सिर्फ यादगार रहे, साथ ही आपकी लव लाइफ में अभी तक के शानदार लम्हों में शामिल हो जाए ! ठीक वैसा ही जैसा रितिक-सोनिया ने किया। 
काॅलेज में रितिक का सपना सिर्फ किताबें और कॅरिअर था। उसकी आंखों में गर्लफ्रेंड या लवर सर्च करने की ना तो ख्वाहिश थी और न ही इंट्रेस्ट। अपनी स्टडी को ही उसने फ्रेंड और सक्सेज़ को ही अपनी गर्लफ्रेंड बनाने का फैंसला किया था। अक्सर उसकी बातें लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट ला दिया करतीं थीं। हंसमुख नेचर होना वाकई शानदार साबित होता है। आप रूठों को चुटकियों में मना सकते हैं, अजनबियों को अपना बना सकते हैं। दरअसल दुनिया में कुछ मिथ बन गए हैं, जिनमें से एक यह कि, लव-लाइफ, स्टडी को स्पाॅयल कर देती है। रितिक अक्सर दोस्तों को इस टाॅपिक पर ऐक्सप्लेनेशन देना शुरु कर देता था। मानो वह लवलाइफ से नहंी, अपने विचारों और एटीट्यूड से बहस कर रहा है। रितिक सैकंड ईयर स्टूडेंट था, और जल्द ही माॅस कम्युनिकेशन कोर्स की उड़ान उसे थर्ड ईयर की ’मीडिया-मिस्ट्री’ में भेजने वाली थी। उसके पास ब्राण्डेड ऐक्ससरीज़, बाइक, बाइसेप्स जैसे इंप्रेसिव फीचर्स नहंी थे। दूसरों को हंसाने-गुदगुदाने की चाहत ही उसकी लाइफ का अभी तक का अचीवमेंट था। कुछ दिनों बाद उसके फ्रंेड-सर्कल में सोनिया एंट्री करती है। बात और जज़्बात कब जि़द बन जाएं, कहना मुश्किल है। दोस्ती से होकर अपनेपन की यह सुरंग, इश्क के दरवाज़े तक ले जाएगी, रितिक ने सोचा भी न था। 
इज़हार का सफर अभी दूर था। रितिक और सोनिया दोनों के फोन नंबर्स ऐक्सचेंज हुए। ’गुड-माॅर्निग’, ’गुडनाइट’, ’टेक केयर’ जैसे शब्दों में वाकई जादू सा होता है। यदि नियम से कोई आपकी फिक्र करे, तो आपका दिल ज़ोरों से धड़कना शुरु कर देता है और दिमाग ज़ोरों से डांटना। ठीक ऐसा ही रितिक के साथ हो रहा था। खाली समय में वह खुद को सोनिया का ’सिर्फ दोस्त’ कहते हुए दिलासे देता रहता, और जैसे ही फोन में मैसेज या काॅल टयून बजती, झट से ओके कर आंखें गढ़ा देता। दो महीने, दिल और दिलासों का खेल चलता रहा। रितिक-सोनिया मिलते रहे, बात ’गुड माॅर्निंग’ में लिपटी हुई, अब ’लंच कर लेना’, ’डिनर कर लेना’ जैसे मैसेजों तक जा पहुंची थी। कितना बेहतरीन मौका होता है न, जब कोई आपसे रोज़ ऐसी बातें कहे, जिसे सुनकर, खुद को कंट्राॅल करने की कोशिशें करनी पड़ें। 
फाइनली, रितिक को रियालाइज़ हुआ कि सोनिया और वह, इश्क के दो मोती हैं, जो जल्द ही एक माला में बंधना चाहते हैं। लाइफ और लव लाइफ में ज़रा सा अंतर है। यहां सिर्फ हाइ-हलो, बाइ-गुडबाइ नहंी, जि़म्मेदारी और प्यार की भी भरपूर ज़रूरत है। फिलहाल रितिक ने सोनिया को अपने दिल की बात कहने का डिसीज़न लिया। हालांकि यह सब उसने तभी सोचा जब उसे विश्वास हो चुका था कि सोनिया भी उससे उतना ही प्यार करती है। 
अगले दिन काॅलेज पार्टी में दोनों मिले, कुछ बातें हुईं, और फिर एक ऐसा मौका, जिसे हम यूथ ’प्रपोज़ल’ कहते हैं पर रितिक-सोनिया के लिए यह एक बेहद हसीन पल था। प्रपोज़ करते हुए एक गलती कभी नहीं करनी चाहिए जो रोहित ने नहीं की। यादगार प्रपोज़ल में फिल्मी-नकल करना थोड़ा ड्रामेटिक फील करवा सकता है। इश्क बयां करना एक ऐसा पल साबित होता है, जिसकी याद मुश्किल से ही कभी धुंधली पड़ती है। ऐसे में यदि आप ज़रा भी ओवर-क्रिएटिव या फिल्मी अंदाज़ निभाने में रहे, तो बात बिगड़े भले ही न, पर खूबसूरती और सादगी गायब हो जाने का डर रहता है। रितिक ने सोनिया का हाथ थामा, और बड़ी शिददत से पुरानी बातों के सूटकेस में दिल की नई बात शानदार जज्बातों की पैकिंग के साथ रखकर उसे गिफट कर दीं। सोनिया ने भी स्माइल करते हुए, उसे ’आइ लव यू टू’ कह दिया! प्रपोज़ल सिंपल पर शानदार था। दिल की बातें सीधे कहना भी मुश्किल है, और घुमाकर कहना भी एक कला। सादगी और अपनेपन का ऐसा काॅकटेल आपकी  जि़ंदगी को खुशियों से भर सकता है। आज रितिक और सोनिया दोनों एक-दूसरे को अच्छे से समझते हैं। वे हैरान और परेशान होकर ठहाके भी लगाते हैं कि इश्क कितना चालांक और खुशनसीब है कि उसने अनऐक्सपेक्टिड को भी ऐक्सपेक्टिड कर दिखाया। 
ये तो हुई रितिक-सोनिया लव स्टोरी, अब बारी प्रपोज़ल और उसकी इंपाॅर्टेंस की। दरअसल फिल्में असल जि़ंदगियों से ही बनाईं जाती हैं। क्यूं न दिखावटीपन और नकल को एक तरफ रख, रिलेशनसिप को सादगी और खूबसूरती से एंज्वाॅय किया जाए ! मशहूर लेखक शिव खेड़ा ने एक बार कहा था- ’’जीतने वाले कोई अलग काम नहंी करते, वे हर काम अलग ढंग से करते हैं।’’ याद रखिए प्यार जि़ंदगी भले ही न हो, पर जि़ंदगी का ऐसा हिस्सा है, जिसे इग्नोर नहंी किया जा सकता। हिफाज़त और अपनेपन की मीठी बोलियां, जब दुनियादारी की इस भागमभाग में दिल को सुनाई देतीं हैं, तो वह सबकुछ छोड़कर उन्हें  हमेशा के लिए पाने की कोशिश में लग जाता है। दो बेहद ज़रूरी बातें, फयूचर स्ट्रगल यानि स्टडी और लव लाइफ में बैलेंस। सक्सेज़, लव लाइफ में ही नहीं आपकी लाइफ में भी होनी चाहिए। क्यूं न आज दो मिथों को तोड़कर बदल दिया जाए ? एक, कि लाइफ-लवलाइफ को बैलेंस रख कर, बिना किसी प्राॅब्लम के सक्सेज़ के रास्ते तलाशे जा सकते हैं और दूसरा, लव प्रपोज़ल को फिल्मी नकल के धागे से न बांधकर, अपने अंदाज़ में अपनाया जाए।
 जो आप हैं, वह आप ही कर सकते हैं, और जो आप नहंी हैं, बेहतर है उसे करने की कोशिश तो दूर, उस बारे में सोचें भी नहीं। फिलहाल इश्क और प्रपोज़ल का यह लेख खत्म हो रहा है, पर आखिरी शब्दों में एक चेतावनी ज़रूर कि लाइफ और लव को साथ लेकर चलने में बुराई नहंी है, बस डर बना रहता है कि आप अपनी मंजिल से भटकें नहंी, बाकी सुख हो या दुख, आपके साथ कोई है, जो हर वक्त, हर लम्हा, पलकें बिछाए आपके सपनों को अपने सपने बनाने के लिए बेताब है। आफटरआॅल लाइफ इज़ टू एंज्वाॅय, नाॅट टू स्पाॅयल ... डियर ! 



Monday 20 May 2013


आईपीऐल के दलदल में क्रिकेट का कमल


आईपीऐल में स्पॉट फिक्सिंग-फसाद से ज्यादा हैरानी इस बात की है कि श्रीसंत जैसा काबिल खिलाड़ी भी इस दलदल में खुद को साफ-सुथरा नहीं रख पाया। आईपीएल के ढांचे में जल्द बदलाव करने की ज़रूरत है, कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट के नाम पर हम घंटों उस खेल को टकटकी बांधकर देखते रहें, जिसकी जीत-हार पहले से ही तय थी!

आईपीएल पर फिक्सिंग के छींटे ! एक नामी न्यूज़ चैनल का फलैश। देखकर ज़रा भी हैरानी नहीं हुई, पर फलैश की दूसरी लाइन ’श्रींसंत समेत तीन खिलाड़ी गिरफ्तार, जांच जारी!’ पर नज़र पड़ते ही अगला चैनल ट्यून करने को बेताब उंगलियां ठहर गईं। क्रिकेट का डाइ-हार्ट फेन न होते हुए भी इस खबर को घंटों चैनल बदल-बदल कर जानने-समझने-परखने की कोशिश करता रहा। तथ्य, तस्वीरें और तफतीश की उधेड़बुन जारी थी। कहीं क्रिकेट ऐक्सपर्ट गर्मजोशी से अपना बयान दर्ज करवा रहे थे, तो शिल्पा शेट्टी अपनी टीम राजस्थान राॅयल्स की सफाई, बेहद सफाई से दे रहीं थीं। दरअसल आईपीएल के पिछले कुछ मैचों में श्रीसंत, अजित चंडीला और अंकित चव्हाण पर स्पॉट फिक्सिंग के गंभीर आरोप सामने आए हैं।
आईपीऐल को क्रिकेट मैच का आयोजन कहते हुए अक्सर झिझक महसूस हुआ करती थी, पर अब तो धिक्कार सा होने लगा है। खुल्लम-खुल्ला सट्टेबाजी, शोहरत की बेशुमार ’बैटिंग’, ने खेल की शराफत का गला घोंट दिया है। आईपीऐल में सिर्फ फिक्सिंग का छिटपुट मामला होता, तो शायद मैं इस पर लिखने की न सोचता, पर श्रीसंत जैसे हुनरमंद और काबिल खिलाड़ी पर लगे आरोप ने वाकई देश के सक्रिय नागरिकों को झकझोर दिया है। वक्त इस बहस में पड़ने का नहीं है कि फिक्सिंग कैसे हुई, और कौन मुख्य किरदार में है ? ज़ोर देने की ज़रूरत इस बात पर है कि किन कदमों को उठाकर हम आईपीएल जैसे मनोरंजक और शोहरत-विशेष आयोजनों में शराफत और सच्ची खेल-भावना बरकरार रख सकते हैं ?
तेज़ दिमाग के मध्यम-तेज़ गेंदबाज़ ऐस. श्रीसंत का नाम भारतीय टीम के होनहार और उम्दा गेंदबाज़ों में लिया जाता है। कुछेक अपवादों को नज़रंदाज़ कर दें तो साफ-सुथरी छवि उनकी पहचान रही है। आईपीएल फाॅर्मेट में टीमें बनाई तो जातीं हैं, पर ज़मीनी तौर पर बैटिंग टीम के मालिकान और उनके ’इरादे’ ही करते हैं। जैसे ही ये ’इरादे’ डगमगाते हैं, खेल का ’खेल’ बिगड़ने लगता है और फिक्सिंग के फसाने पैदा होने लगते हैं। अब बात टीम से शुरु हुई है, तो एक नज़र 2008 की पहली आईपीएल विजेता टीम राजस्थान राॅयल्स के रिपोर्ट कार्ड पर। प्वाइंट टेबल में मुंबई और राजस्थान के बीच दूसरे स्थान के लिए कश्मकश जारी थी। दोनों टीमें प्लेआॅफ में जगह पक्की कर चुकीं थी। ज़ाहिर तौर पर लक्ष्य पहले स्थान पर पहुंचने का था। टीम के बूस्ट प्लेयर श्रीसंत समेत तीनों खिलाडि़यों पर आरोप है कि उन्होंने बुकी के इशारे पर नोबाॅल, डेडबाॅल डालकर खेल और उसके मायनों को चोट पहुंचाई।
खिलाडि़यों पर आईपीऐल-फिक्सिंग के छींटे जैसी बात से हैरान होना ठीक उसी तरह है जैसे कोई कमल तोड़कर लाए और आप उसके पैरों में कीचड़ न लगे होने की उम्मीद करें। श्रीसंत केरेला के पहले रणजी खिलाड़ी हैं, जिन्हें सीधे भारतीय टीम में 20-20 खेलने का मौका मिला। अपने शानदार कॅरिअर में उन्होंने 27 टैस्ट मैचों में 87 विकेट और 53 वन-डे मैचों में 75 विकेट झटके है। श्रीसंत केरल के अकेले ऐसे गेंदबाज रहे हैं, जिन्होंने रणजी ट्राॅफी में हैट्रिक ली है। 2008 में हरभजन सिंह के साथ उनके संबंधों में ज़रूर कुछ खटास रही, पर उन्होंने मामले को खेल के मायनों से ज्यादा तवज्जो नहीं दी। उनकी मध्यम-तेज़ गति गेंदबाज़ी ने मैदान में विपक्षी टीम के बल्लेबाज़ों को अक्सर हैरत में डाला है। जहां तक कप्तान धोनी से मतभेद की बातें उछली है, तो व्यवहारिक तौर पर कभी-कभार खिलाडि़यों और कप्तान के बीच मसलों पर सहमति-असहमति का मन-मुटाव रहता ही है। सच तो यह है कि आईपीऐल में जिस खिलाड़ी ने रुपए-पैसों की चिंता नहंी की, वह बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद भी घाटे में ही रहेगा। पर यहां घाटे से मतलब ऐसे साॅल्यूशन से कतई नहीं है जैसा श्रीसंत व बाकी दो खिलाडि़यों ने अपनाया।
यदि हमारा हिंदी शब्दकोश उदार होता, तो अब तक आईपीएल और विवाद शब्द पर्यायवाची बन चुके होते। 2008 से लेकर अभी तक एक भी आयोजन साफ-सुथरा और शांतिपूर्ण नहीं रहा। बीते साल 5 खिलाडि़यों पर फिक्सिंग के आरोप सही साबित हुए थे, पर तब भी बात बहस और बयानों के आए-गए विस्फोट की तरह रह गई। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने श्रीसंत को अपने दोस्त के यहां से और बाकी दो खिलाडि़यों को टीम के नरीमन हाउस होटल से हिरासत में लिया है। आरोपियों पर आईपीसी के 420 और 120 बी के तहत केस फाइल करने की तैयारी है। साथ ही सबूत जुटाने में जुटी दिल्ली पुलिस अब बुकी के तमाम आला नटवरों की तलाश में ताबड़तोड़ छापेमारी कर रही है। दोष का दरवाज़ा सिर्फ खिलाडि़यों तक ही नहंी खुलता, असली गुनाहगार तो बुकियों का देशभर में फैला ज़बर्दस्त नेटवर्क है, जो लालच और शोहरत की चकाचैंध से खेल और उसके सम्मान को अंधेरे में ले जा रहा है।
हमेशा की तरह दोषी खिलाडि़यों की आधिकारिक टीमों ने आरोपों से अपना दामन बचा लिया है। पुलिस जांच-पड़ताल कर दागी चेहरों को सामने लाने की भरपूर कोशिश में है। चर्चा है कि दोषी पाए जाने पर खिलाडि़यों पर आजीवन वैन लगेगा, व उन्हें सख्त सजा होगी, पर इससे भी ज्यादा ज़रूरी है कि मामले की जड़ तलाशी जाए। जब तक   कैंसर जैसे जानलेवा रोग को पेनकिलर या डिस्प्रिन जैसी दवाओं से खत्म करने की कोशिशें होतीं रहेंगी, रोग बढ़ता ही जाएगा। आज श्रीसंत, कल कोई और धीरे-धीरे हमारी पहचान, सम्मान और संस्कृति का खेल क्रिकेट, फिक्स-गेम की शक्ल ले लेगा। फिर जीतना-हारना ही सबकुछ होगा। देश और उसकी भावनाओं पर चोट कर जिन लालची और नोट के भूखों ने यह मोहजाल बिछाया है, उनकी हवेलियां बनेंगी, और संस्कार और उसूलों की इमारतें ढहतीं चलीं जाएंगी।
बहुत कम वक्त बचा है इस खेल को वापस उसकी पहचान और सम्मान दिलाने का। आईपीऐल की शुरुआत खिलाडि़यों के विकास और दर्शकों के मनोरंजन के लिए हुई थी, न कि खेल और खिलाडि़यों की अवैध सौदेबाज़ी-सट्टेबाजी के लिए। शोहरत और शराफत की इस जंग में क्रिकेट अब कराह रहा है। हर किसी को शक होने लगा है कि जिस्म दिखातीं चीयरलीडर्स के पीठ पीछे कैसे मैच मालिकान करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे करते हैं। आईपीऐल को आगे भी यदि जारी रखना है तो कायदे-कानून को कड़े करने होंगे। सिर्फ मनोरंजन का वास्ता देकर आप दर्शकों को धोखे में नहंी रख सकते। देश जानना चाहता है कि कौन, कैसे, और क्यूं खेल की भावनाओं को नोटों की गडिडयों के नीचे कुचलना चाहता है। फिलहाल मामले की जांच जारी है, नतीज़ा सामने आना बेहद ज़रूरी है। आईपीएल के ढांचे में जल्द ही बदलाव करने की ज़रूरत है, कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट के नाम पर हम घंटों उस खेल को टकटकी बांधकर देखते रहें, जिसकी जीत-हार पहले से ही तय थी।

         

Saturday 11 May 2013


बेबस आंखों में ’शिकायत’ के आंसू ....


बारहसिंगा को उत्तर प्रदेश के राजकीय पशु होने का तमगा हासिल है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने के बाद कोई भी ऐसी सरकारी योजना याद नहीं आती, जो इस प्रजाति के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो। सफलता और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की शानदार साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?

एक बेहद सीधा और मासूम जीव, जो आज तक लोगों के दिलों पर राज करता रहा। जिसने हमेशा अपनी मासूम हरकतों से बच्चों-बड़ों, सभी के चेहरों पर मुस्कराहट दी। बड़ी सी काली आंखें, दर्जनभर सींगों से सजा सिर, सरपट दौड़ती-कूदती पतली टांगों वाला बारहसिंगा आज बेबस है। प्रकृति की बिछाई जंगलों की चादर तेज़ी से खत्म हो रही है। जल, ज़मीन और जि़ंदगी के लिए जद्दोजहद कर रहे उत्तर प्रदेश के इस राजकीय पशु को न समाज कुछ दे पाया और न सियासत। प्रदेश की सरकारें चिडि़याघरों व उद्यानों पर बेशुमार खर्च तो करती रहीं, पर हमेशा की तरह सियासत, संवेदना पर हावी ही रही। आधुनिकता और औद्योगीकरण के भीड़ भरे मेले में तमाम जीव-जंतुओं समेत बारहसिंगा भी हम इंसानों से सुरक्षा और संवेदना की भीख मांग रहा है। देश का सबसे बड़ा और राजनीति की चैपाटी में सबसे अहम प्रदेश, उत्तर प्रदेश के इतिहास में बारहसिंगा राजकीय पशु नाम से दर्ज है, पर दिमाग पर बेहद ज़ोर डालने पर कोई भी ऐसी योजना याद नहंी आती, जो बारहसिंगा के विकास और देख-रेख के लिए लाई गई हो।
लंबी घासों में छिपने के शौकीन बारहसिंगों की संख्या तेजी से खत्म हो रहे जंगलों के साथ कम हो रही है। हिरणों की इस खूबसूरत प्रजाति के गायब होने में ग्लोबल वार्मिंग, अवैध शिकार व जलवायु में बदलाव जैसे कारण बेहद अहम हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद देश की कुल प्रजातियों में 8.86 प्रतिशत प्रजातियां खत्म होने की कगार पर हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में खत्म हो चुके बारहसिंगे अब सिर्फ भारत के उत्तरी और मध्य क्षेत्रों पर निर्भर हैं। दक्षिण-पश्चिम में नेपाल में ज़रूर इनकी अच्छी-खासी संख्या है, पर किसी ज़माने में उत्तर प्रदेश की झाडि़यों में फुदकते बारहसिंगे अब सिर्फ तस्वीरें ही छोड़ गए हैं। 170-283 किलो वजनी, व लगभग 60 इंच लंबे इस मासूम जीव ने देखने वालों को तो अपने शानदार करतबों से खुश किया, पर खतरनाक जानवरों व शिकारियों की नज़रों में हमेशा खटकता रहा। रेशमी रूह और बेशकीमती सींगों ने बारहसिंगों को तस्करी के दलदल में ढकेल दिया। लालच और लोभ के आगे मासूमियत और सुंदरता की एक न चली और देखते-देखते एक चंचल-शांत जीव हमारे बीच से गायब सा होने लगा।
आमतौर पर नदियों के करीब रहने वाले इन जीवों की संख्या 1964 में 3000-4000 के बीच थी, जो बीते दशक में आधी से भी कम रह गई। असम के काजीरंगा नेशनल पार्क व मानव नेशनल पार्क में इस जीव पर गहरा शोध चला व इनकी देख-रेख पर खासा योजनाएं लाईं गईं। दरअसल बेहद डरपोंक और असहाय होना भी इस जीव के मारे जाने का बड़ा कारण रहा। खुद को बचाने में कमज़ोर इस प्रजाति को जो सरकारी व सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए थी, नहीं मिली और परिणाम आज हमारे सामने है। लंबी घास इन्हें सिर्फ भोजन ही नहीं, नन्हें शावकों के लिए सुरक्षा-कवच का भी काम करतीं थीं, जिन्हें हम इंसानों ने विकास के नाम पर ताबड़तोड़ उखाड़ना शुरु कर दिया। बारहसिंगों में यदि एक भी साथी मारा जाता है, तो वे बेहद असहज और सदमें में चले जाते हैं। कमज़ोर दिल होने से अक्सर हार्ट-अटैक के चलते उन्हें जान गंवानी पड़ती है। हालिया आंकड़ों में फिलहाल मध्य भारत में वन्य कर्मियों की चुस्त देखरेख से इनकी संख्या 600 हुई है, पर बाकी जगहों से गायब हो रहे बारहसिंगों को नजरंदाज़ करना निहायत बेइमानी होगी। कभी मध्य प्रदेश का राजकीय पशु रह चुका बारहसिंगा अब किताबों में उत्तर प्रदेश की शान के नाम से दर्ज तो है, पर सुविधाएं और सुरक्षा उससे कोसों दूर है।
उत्तर प्रदेश के कानपुर में बीते दिनों दर्जनों हिरण लापरवाही और ढुल-मुल प्रशासनिक रवैए की भेंट चढ़ गए। कार्रवाई के नाम पर जू निदेशक का तबादला हुआ और मामले की लीपापाती कर प्रदेश में लाॅयन सफारी व वन्य संपदा बचाने जैसी छिटपुट योजनाएं मंच से उछाल दी गईं। सियासत में संवेदना के इस सूखे ने हज़ारों प्रजातियों, को सरकारी वेतन पर ऐश कर रहे अधिकारियों-कर्मचारियों के भरोसे छोड़ दिया है। योजनाएं कागजों पर फल-फूल रहीं हैं, और पर्यावरण के मोती कहे जाने वाले जीव-जंतु घुट-घुट कर मर रहे हैं। चिडि़याघरों ने शोकेस की शक्ल ले ली है और उनमें काम कर रहे कर्मचारी शोपीस साबित हो रहे हैं। संवेदनशील और जानकार वन्य विशेषज्ञों को तवज्जो न देना भी सरकार की एक खामी है, जो आगे चलकर समाज को सिर्फ पछतावा ही देगी।
सही तस्वीर में झांकें तो कहना गलत नहंी होगा कि बारहसिंगा की मासूम और खूबसूरत प्रजातियों के दुर्लभ दर्शन अब सिर्फ पांच राष्ट्रीय उद्यानों में किए जा सकते हैं। जिनमें उत्तर प्रदेश में सिर्फ दुधवा नेशनल पार्क, मध्य प्रदेश में कान्हा और इंद्रावती, असम में काजीरंगा और मानस प्रमुख हैं। लंबी घासों से झांकती बड़ी सी काली आंखें और झाडि़यों में तैरते लंबे सींगों की कहानी जितनी इमोशनल और फीलगुड लगती है, असलियत में उतनी ही दर्दनाक भी है। प्रकृति के इस नायाब तोहफे को तस्कर नोंच रहे हैं, कटते जंगल बेघर कर रहे हैं, और हम सिर्फ और सिर्फ तमाशा देख रहे हैं। योजनाएं आती रहेंगी, शोध चलते रहेंगे, संस्थाएं साल दर साल गिनतियां करती रहेंगी, पर क्या बारहसिंगों का झुंड हमारी आंखों के सामने हंसता-खेलता फुदकता दिखेगा ..? क्या ऐसा वक्त करीब है जब किताबों और पोस्टरों में ही बारह सींग वाले इस जानवर की तस्वीरें हम देख पाएंगे ..? क्या वाकई हम जंगलों के साथ-साथ इस मासूम और चंचल प्रजाति को देखने के लिए तरस जाएंगे ..? ऐसे ही सवालों के साथ मेरा यह लेख तो खत्म हो रहा है, पर विकास और ऊंचाइयों पर कब्जा करने के लिए हमने प्रकृति की खूबसूरत साड़ी से जो मोती नोचे हैं, क्या वापस लगा पाएंगे ....?



Saturday 4 May 2013


महफि़ल, मायनों और मजबूरियों का 

चुंबन   

बदकिस्मती से बेचारा हो चुका है चुंबन। कामुकता के कीचड़ में चुंबन के होंठ कुछ ऐसे सने कि उनमें लिपिस्टिक की खुश्बू और कोमलता की कालीन खोजी जाने लगी। अफसोस कि यू-ट्यूब पर सर्च करने पर एक भी ऐसा चुंबन नहीं मिला, जो मां ने बेटे के माथे पर दिया हो, या एक भाई ने राखी बांधती अपनी बहन को !


हिन्दी में चुंबन, अंग्रेजी में किस। होंठों पे वफा की नमी और दिल में प्यार की हिलोरें ही चुंबन लेने और देने की इच्छा पैदा करती हैं। रील से रियल तक, फिल्मों से फेमिली तक चुंबन का तरीका, सलीका, सब बदल गया है। चूमने से दिल को ठंडक और अपनेपन का ऐहसास होता था, करीबी और दूरी के बीच का पुल था चुंबन। कुछ सालों से इस का आधुनिक आयात, पश्चिमी देशों से होने लगा। लेकिन एक वक्त ऐसा भी था कि भारत में इसे सादगी और पवित्र प्रेम का हिस्सा माना जाता था। गांव के बुजुर्ग हमारे हाथ चूमते थे, रिश्तेदारों के स्वागत करने का अंदाज़ भी इसी से बयां होता था। बीते कुछ साल से ’चुंबन-विशेष अभिनेता’ पैदा होने लगे। किसिंग सीन की भयानक भरमार ने पाश्चात्य संस्कारों से रेस लगानी शुरु कर दी। कामुकता के कीचड़ में चुंबन के होंठ, ऐसे सने कि उनमें लिपिस्टिक की खुश्बू और कोमलता की कालीन खोजी जाने लगी। किसिंग के इस आयात का असर, संस्कारों और विचारों पर तो पड़ा ही है, साथ ही फूहड़ता और अश्लीलता की ऐसी इमारत खड़ी हो गई है, जिसने सालों पुराने आत्मीय चुंबनों को खुद में ही दफ़न कर लिया है। इसे इच्छाओं से अलग करना होगा, खासकर वे इच्छाएं जो सिर्फ शारीरिक संतुष्टि तक जाकर खुद-ब-खुद पूरी होने के खोखले दावे करतीं हैं।
दुनिया को वैश्विक गांव बनाने के दावे करने वाले इंटरनेट पर जब ’चुंबन’ शब्द के मायने खोजने की कोशिश की तो विकीपीडिया ने इसका इतिहास परोस दिया। लगभग 22 तरीके के चुंबन यहां बताए गए। होंठों से लेकर जीभ तक, चेहरे से लेकर तलबों तक और तमाम नुस्खों-नज़रियों को पिरोकर चुंबन की ंिचंताएं और सावधानियां भी लिखीं पड़ीं हैं। किसिंग-टिप्स की लंबी-चैढ़ी लिस्ट यहां सिर्फ इंटरनेट का मददगार होना साबित नहीं करती, यह भी ज़ाहिर करती है कि इंटरनेट यूज़र्स के दमदार रिस्पांस से ही चुंबन के इन नायाब नुस्खों को यहां सार्वजनिक किया गया है। तरीके और तस्वीरों ने इस शब्द के ढेरों मायने गढ़ दिए हैं, पर कामुकता की जकड़ से इसे छुड़ाने में इंटरनेट का पक्षी भी बुरी तरह हांफ गया है। काले बोल्ड अक्षरों में यह चेतावनी मेरी नज़रों से बच नहीं पाई कि ’’चुंबन के दौरान आपके मुंह से बदबू कतई नहीं आनी चाहिए, अन्यथा आप इसके ’सुख’ से बेदखल किए जा सकते हैं।’’
कई डाॅक्टरों और शोधकर्ताओं ने कुछ नए कारनामे भी लिखे हैं, जो चुंबन को शिद्दत से अंजाम देने का भरोसा दे रहे हैं। ’’जोश के साथ इसे लेने से आप अपना वजन घटा सकते हैं। किसिंग से आप प्रतिमिनट कम से कम 6.4 कैलोरी खर्च करते हैं।’’ जैसे कई तथ्य ’चुंबन-लिस्ट’ के साथ चिपका दिए गए हैं। किसिंग का प्रमोशन और विज्ञापन कर रहे इंटरनेट को यहीं तसल्ली नहीं हुई है। कुछ तस्वीरों के ज़रिए उसने यूज़र्स खींचने के लिए नायक-नायिका की तस्वीरों का कटीला-कातिलाना जाल भी बिछा रखा है।
किस के किस्से समेंटने को अब धीरे-धीरे यू-ट्यूब की ओर बढ़ रहा हूं। चुंबन की फूटी किस्मत का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मैं बंद कमरे में इस पर सर्च कर रहा हूं। परिवार से छिपकर, दरवाजा बंद कर, चुंबन का चरित्र, दहलीज़ और उसका भविष्य खोजने की कोशिश में जुटा हूं। इस विषय पर सर्च करते पकड़े जाने पर अपनी मासूम छवि बिगड़ने का डर है, साथ ही परिवार के उन तानों का अंदाज़ा भी, जो ’चुंबन-खोज’ करते पकड़े जाने पर या तो मुझे अकेले में बैठाकर या ज़ोर-ज़ोर से डांटकर दिए जा सकते हैं। अफसोस इस बात का है कि यू-ट्यूब पर सर्च करने पर एक भी ऐसा चुंबन नहीं मिला, जो मां ने बेटे के माथे पर दिया हो, या एक भाई ने राखी बांधती अपनी बहन को !
1933 मंे आई फिल्म कर्मा में असल जि़ंदगी के दंपत्ति हिमांशु राय और देविका रानी का झिझकते हुए 4 मिनट का किसिंग सीन खूब चर्चा में रहा था। उस वक्त यह खबर महीनों मीडिया के लिए बड़ी खबर बनी रही। हालांकि सीन पर सेंसर बोर्ड की कैंची चली और पर बीते दिनों इस दृश्य को एक फिल्म समारोह में दिखाया गया। फिल्मों में फिल्माए गए चुंबनों में तब और अब का बेहद फर्क आ गया है। सूरत से सीरत तक, मतलब से मायनों तक चुंबन की दास्तां अब पर्दे के पीछे छिप रही है। लुका-छिपी के बीच अब चुंबन एक ऐसा हौवा बन चुका है, जो सार्वजनिक तो क्या, सर्वमान्य भी नहीं रहा। बॉलीवुड में चुंबन स्पेशल अभिनेता कहे जाने वाले इमरान हाशमी हों या नए तरीकों से किसिंग को अंजाम दे रहे रणदीप हुड्ढा, नई पीढ़ी के नायकों ने यूथ-फैशन और आधुनिकता की पीठ पर चढ़कर चुंबन को अश्लीलता और कामुकता का चैकीदार बना दिया है।
नए नायकों में चुंबनस्टार बनकर उभरे वरुण धवन, शाहरुख खान, रनवीर कपूर, अर्जुन कपूर, व ढेरों ऐसे नायक हैं, जो अपनी हालिया फिल्मों में लंबे चुंबन दृश्यों की बदौलत ज़बर्दस्त चर्चा में रहे। क्या आज के दौर में ऐसा चुंबन ही सर्वमान्य है जो सिर्फ नायक-नायिका की मुहब्बत बयां करे ? प्यार और इश्क को आपस में उलझते देख चुंबन भी क्या एक वीरान बीहड़ में दौड़ पड़ा है ?
अब फिल्मों में बेटा मां का माथा चूमने की बजाय हाइ-हेलो कर चला जाता है। क्या भविष्य में चुंबन सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका की जागीर बनकर रह जाएगा ? बाकी रिश्तों में चुंबन क्या ठीक उसी तरह फलाॅप हो जाएगा, जैसे केबल युग आने के बाद एंटिना सिस्टम ..? चुंबन के मायने खतरे में हैं।  किसिंग के किस्से यदि ज्यादा दिनों तक अश्लील और फूहड़ प्रेम की वैसाखी बने रहे तो वह दौर दूर नहीं, जब चुंबन सिर्फ वर्गविशेष साहित्य व सिनेमा की पहचान बन जाएगा। तब न हाथ चूमते बुजुर्गों के होंठ होंगे, ना मां का माथा चूमता बेटा। किस से लेकर चुंबन और पप्पी से लेकर पुच्ची को एक बार फिर संस्कारों और विचारों में तवज्जो देने की ज़रूरत है। कहीं ऐसा न हो कि चुंबन चुनिंदा दिनों और चंद लम्हों की पहचान भर रह जाए !


Thursday 25 April 2013


फूहड़ता के अँधेरे में सादगी का सूरज 
       


अर्थपूर्ण कॉमेडी ने हर दिल को छुआ, गुदगुदाया है, जबकि डबल मीनिंग कंटेंट पर हमेशा अच्छे-बुरे, सही-गलत की तलवारें तनी है। ’चिडि़याघर’ जैसे सफल टी.वी. सीरियलों ने साबित कर दिया है कि फेमिली स्पेशल एंज्वॉयमेंट ,भारत में न कभी फ्लाॅप हुआ था, और न होगा।


हंसी-मज़ाक और गंभीरता कभी एक साथ नहीं रह सकते। गंभीरता को तोड़ने के लिए हास्य की मांग है और हास्य की मज़बूरी है कि वह दर्शकों के होंठों पर हर कीमत पर मुस्कान लाये, उन्हें गुदगुदाये। कई हास्य-कलाकारों ने डबल मीनिंग कॉमेडी यूं ही नहीं अपनाई। दरअसल उन्हें दहाड़ें मारकर हंसने वाले दर्शक नहीं मिल रहे थे। आधुनिकता के इस शोरगुल में अर्थपूर्ण कॉमेडी पर तीखी बहसें तो हुईं, पर टीआरपी और लोकप्रियता की रेस में तमाम कॉमेडी कार्यक्रम एक रुटीन-फूहड़ स्पेशल शो बन कर रह गए। हिम्मत हारकर तमाम हास्य कलाकारों ने भी डबलमीनिंग कंटेंट से हाथ मिला लिया।
 मुंगेरीलाल, जसपाल भट्टी जैसे दिग्गजों ने एक सदी में हास्य का नया मंच और मुकाम तैयार किया था, जिसे सब टीवी के सीरियल ’चिडि़याघर’ में गधा प्रसाद जैसे हास्य किरदारों ने आगे बढ़ाया है। कैसे फैशन और भागमभाग के इस दौर में भी परिवार में, परिवार के साथ और परिवार के लिए, चिडि़याघर जैसे सीरियल अलग पहचान और सम्मान का नया इतिहास रच रहे हैं। गधा प्रसाद जैसे किरदारों की समीक्षा के लिए शब्द तो प्रयोग किए जा सकते हैं, पर उनके हुनर और अंदाज़ का हर पहलू समेंट पाना वाकई मुश्किल है।
अश्विनी धीर निर्देशित ’चिडि़याघर’ में यूं तो एक वनारसी परिवार की कहानी को दर्शकांे से जोड़ने की कोशिश की गई है, पर असल में सीरियल की जान जीतू शिवहरे ही हैं। जिन्होंने गधा प्रसाद का किरदार लाखों-करोड़ों लोगों की ज़ुबान पर ला दिया है। अब तक 367 ऐपीसोड्स में ’चिडि़याघर’ ने इस प्रतियोगी दौर में खूब नेम-फेम और शोहरत हासिल की है। सब चैनल के इस लोकप्रिय शो ने उस मिथ को ज़बर्दस्त तरीके से तोड़ा है जिसमें कहा गया था कि आज के दौर में डबल-मीनिंग हास्य ही हिट करवाया जा सकता  हैं।
चिडि़याघर के इस घर में अभिनेता राजेंद्र गुप्ता ने केसरी नारायण के किरदार को देश के उन तमाम मध्यमवर्गीय पिताओं की तरह निभाया है, जो अपने परिवार की खुशियों में जश्न मनाते हैं, और गम के बादल छाने पर सूझबूझ से सामना करने की हिम्मत देते हैं। घर में दो बेटे हैं, जिन्हें घोटक और गोमुख की शक्ल दी है अभिनेता परेश और सुमित अरोड़ा ने, जो बेहतर अभिनय लिए, अपने किरदार की काबिलियत और मूर्खता का मिक्सचर परोसते चलते हैं। बाकी किरदारों में नौंक-झौंक और आपसी प्यार की बेजोड़ झलक दिखती है, जो ’चिडि़याघर’ को हर उस परिवार से जोड़ती है, जिन्हें बाकी चैनलों पर चिकनी-चमेली या लैला-मुन्नी के अलावा कुछ खास नहीं मिल पाता।
डी.डी. नेशनल के कुछ खास धारावाहिकों में हरी मिर्ची-लाल मिर्ची, कानाफूसी जैसे पारिवारिक इमोशनल सीरियलों ने घर-घर में खूब पहचान बनाई थी। पिछले कुछ सालों में निजी चैनलों की भरमार ने ऐसे सीरियलों से लोगों का ध्यान हटाना शुरु किया और धीरे-धीरे  दर्शकों की रुचि का हवाला देकर फूहड़ता परोसी जाने लगी। तमाम हास्यकवि स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर डबलमीनिंग शरारतों का शर्बत बांटने लगे, तो कॉमेडी के कुछ तथाकथित कार्यक्रमों ने पारिवारिक सीमाएं लांघकर एक नया दर्शक वर्ग बांध लिया, जिसके दम पर ही टीआरपी और लोकप्रियता का पैमाना तय होने लगा।
’मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ सपनों में ही रह गए तो ’देख भाई देख’ जैसे अर्थपूर्ण कॉमेडी कार्यक्रम की कद्र कम होती रही। सब टीवी के बेहद चर्चित ’’ऑफिस-ऑफिस’’ में ज़रूर नौकरी-पेशा वर्ग की हकीकत पेश की गई, जिसे पंकज कपूर ने अपने ज़बर्दस्त अभिनय से यादगार बना दिया। कॉमेडी की ज़मीन पर अर्थ-अनर्थ, हद के अंदर, हद के बाहर जैसी छिटपुट झड़पें चलतीं ही रहेंगी, पर खुश होने की बात ये है कि चिडि़याघर, तारक मेहता का उल्टा चश्मा, वाह वाह क्या बात है जैसे सीरियल जब तक जि़ंदा हैं, हमें अर्थपूर्ण हास्य को लेकर परेशान होने की कतई ज़रूरत नहीं है।
उस हंसी का कोई मतलब नहीं है, जो हमें परिवार के सामने होंठ खोलने पर शर्मिंदा करे। लाख कोशिशों के बावजूद डबल मीनिंग कंटेंट से पैदा हुई मुस्कराहट हमेशा दबी-सहमी व निजी ही होगी। दिल से हंसने के लिए हमें आज भी व्यावहारिक और पारंपरिक मसखरी की ज़रूरत है। जब तक गधा प्रसाद जैसे किरदार जि़ंदा हैं न तो हास्यकलाकारों को निराश होने की ज़रूरत है और ना ही हम दर्शकों को। आखिर हंसी ही तो है जो स्वास्थ्य और स्वभाव दोनों के लिए ज़रूरी है। भारत में आधुनिकता का अंधा दौर हावी तो हुआ है पर इतना नहीं कि हम घर-परिवार से छिपकर व दूर बैठकर फूहड़ता की गप्पें सुनें और लंबे समय तक उन पर ही ठहाके लगाएं !




Monday 22 April 2013


 चुभ ना जाए कहीं शक की यह सुई 
         

क्‍यों न ये समझा जाए कि हमारे यहां जब पुख्ता सबूतों का सूखा पड़ जाता है, तब शक के बयानों की तेज़ बौछार की जाती है। बेबुनियाद इल्ज़ाम देश की सुरक्षा को चकनाचूर कर सकते हैं। शक की सुइयां चुभतीं तो आतंकियों को हैं, पर देर-सवेर, दर्द आम-निर्दोष नागरिकों को ही सहना पड़ता है।


दो देश हैं। एक ताकत की महाशक्ति है, दूसरा संस्कारों की। एक के पास विश्वस्तरीय  आधुनिक तकनीक है, तो दूसरा अभी विकास की कच्ची सड़क पर घुटनों के बल चलने की कोशिश में। एक सदियों से विकसित है, तो दूसरे ने अभी धीमी रफ्तार ही पकड़ी है। बात भारत और अमेरिका की। पिछले दिनों अमेरिका के बोस्टन शहर में जब मैराथन की धूम मची थी, तेज़ धमाकों से तीन की मौत हुई, व लगभग 140 लोग घायल हुए। अगले दिन भारत के बेंगलुरू में भाजपा कार्यालय के करीब धमाका हुआ, जिसमें 11 पुलिसकर्मी समेत 16 लोग घायल हुए। अफरातफरी के इस माहौल में दो देशों की तुलना करना आपको थोड़ा अजीब लग सकता है। पर कुछ पहलू हैं, जिनसे हमें ऐसे धमाकों के बाद का माहौल संभालना, अमेरिका से सीखने की ज़रूरत है।
विश्व की शक्तिशाली शख्सियत अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 9 11 के बाद हुए इस दिल दहला देने वाले विस्फोट पर आनन-फानन किसी नस्लवादी-आतंकवादी गुट पर शक की सुई नहीं घुमाई। वहीं बेंगलुरु मे हुए धमाके के चंद मिनटों बाद ही भारत की सियासत में शक का शर्बत घुलने लगा। इंडियन मुजाहिदीन पर, संदेह के बयान आनन-फानन सार्वजनिक कर दिए गए। क्या ऐसे माहौल में, जब देश के नागरिक खतरे में हों, बेबुनियाद इल्ज़ाम की तलवार लहराना ठीक है ..? क्यंू न ये समझा जाये कि हमारे यहां जब पुख्ता सबूतों का सूखा पड़ जाता है, तब शक के बयानों की तेज़ बौछार की जाती है। सियासत और शक के इस भंवर में फंस जाता है वो आम आदमी, जो दो वक्त की रोटी से खुश है, जिसे अपना व परिवार का पेट पालना है, जि़ंदगी ने उसे जो कुछ दिया है, उसी में जीने की कोशिश कर रहा है।
अमेरिका में हमलों की सूची पर नज़र डालें तो दिसंबर 1975 में न्यूयार्क के लाॅ गार्डिया एयरपोर्ट के लाॅकर रूम में हुए हमले में 11 ने अपनी जान गंवाई। फरवरी 1993 में वल्र्ड ट्रेड सेंटर के पार्किग जोन में खड़े ट्रक में हमला हुआ, जिसमें 6 की जानें गई, 1000 घायल बताये गए। अप्रैल 1995 में ओखलामा सिटी में संघीय सरकार के दफतर में ट्रक उड़ाया गया जिसमें 168 की मौत व 500 बुरी तरह घायल हुए। जुलाई 1996 में अटलांटा के सेंटेनियल ओलंपिक पार्क में समर ओलंपिक में धमाका हुआ, जिसमें दो ने जान गंवाई। फिर एक ऐतिहासिक हमला जिसे बयां करने की शायद ज़रूरत नहीं, पर आंकड़ों की इस अभागी औपचारिकता में उसे 9 11, कहा गया है, साथ ही विश्व के सबसे दर्दनाक हमलों में इसकी गिनती है।
 इनमें से किसी भी धमाकों के पन्ने पलटने पर शक की सुई हवा-हवाई तरीके से घूमती नज़र नहीं आती। अमरीकी सत्ताधारियों ने अपने एक-एक नागरिक की जान की शिद्दत से हिफाज़त की है। यहां ये भी बात काबिल-ए-गौर है कि हमले के दौरान सिर्फ न्याय दिलाने के दिलासे व दोषियों पर सख्त सज़ा के बयान ही सार्वजनिक तौर पर दिए गए। किसी भी पुख्ता जि़म्मेदारी-सबूत के अभाव में शक का ठीकरा आतंकवादी गुटों पर नहीं फोड़ा गया। वरिष्ठ पत्रकार अमित बरुआ कहते हैं ’’ऐसे समय में बेवज़ह फिंगरप्वाइंटिंग करना देश की सुरक्षा को नुकसान पहुंचा सकता है। बेहतर होगा कि हमलों की पुष्टि होने या सबूत मिल जाने के बाद ही हमलावरों का नाम सार्वजनिक हो।’’ मिसाल देना गलत नहीं है कि अमेरिका ने 9 11 के बाद आतंकियों के मंसूबों से अमेरिकियों की हरसंभव हिफाज़त की है। दो मामलों में तो अंतिम समय में विस्फोट होने से बचा लिया गया, जिनमें एक नाइजीरियन एवं टाइम्स टाॅवर में एक पाकिस्तानी नागरिक को पकड़ा गया था। दरअसल आतंकवादी अक्सर यह फाॅर्मूला पेश करते आये हैं कि ’’आपको हमेशा भाग्यशाली बने रहना है, वे कभी भी आपको परख सकते हैं।’’ साफ ज़ाहिर है कि चुस्त-तकनीक से लैस अमेरिकी पुलिस बेहद दम-खम से सुरक्षा का जिम्मा संभाल रही थी लेकिन कहीं न कहीं बोस्टन में उससे चूक हुई है, जिसे वहां के प्रशासन ने बेझिझक स्वीकार भी किया है।
अब नज़र कर्नाटक में ही हुए कुछ हमलों पर। 17 अप्रैल 2010 को बेंगलुरू के चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर शाम 4 बजे दो धमाकों में सात घायल हुए, जुलाई 2008 में शहर के 9 स्थानों पर सीरियल धमाकों में दो की मौत हुई, मई 2008 कर्नाटक के हुबली जिले में सत्र न्यायालय परिसर में धमाका, सितंबर 2005 में उत्तरी बेंगलुरु के साइंस इंस्टीट्यूट पर आतंकी हमला। इसके अलावा राजधानी दिल्ली व देश के तमाम शहरों के हमलों की भी लंबी सूची है, जिनमें दूर-दूर तक कोई ऐसा नहीं मिलता, जिसके होने के बाद यहां के नौकरशाहों-नेताओं ने शक के आधार पर इल्जामों की झड़ी न लगाई हो।  बेंगलुरु के हालिया हमले के लगभग कुछ मिनट बाद ही इंडियन मुजाहिदीन पर संदेह की पुष्टि कर दी गई। शहर के गृहमंत्री ने भी बेहिचक, हमलों के बाद शक और संदेह की इस घातक बयानवाज़ी का जमकर समर्थन किया। हालांकि औपचारिकताओं की ज़रूरत ऐसे समय में होती है, इसमें दो राय नहीं, पर दूसरा पहलू क्या यह नहीं कि निर्दोष गुट पर शक करने से वह सक्रिय हो सकता है, भड़क सकता है, और मौका लगने पर कभी भी हम पर उम्मीद से कहीं ज्यादा हमलावर हो सकता है ?
आतंकवादियों का न तो कोई मज़हब है, और न ही घर-परिवार। वे फ्रस्ट्रेशन को जि़ंदगी और जेहाद को जन्नत मानकर जीते हैं। बीते कुछ सालों से भारत में हुए तमाम हमलों में इस शक-फोबिया ने हमें नुकसान ही पहुंचाया है। सिक्यूरिटी एक्सपर्ट प्रविंद्र स्वामी अमेरिका का उदाहरण देते हुए कहते हैं, कि ’’बोस्टन में हुए हमलों में वहां के समझदार नेता और राष्ट्रपति ने तो धमाके का किसी पर इल्जाम नहीं दिया, पर भारत के ’अमेरिका-हिमायतियों’ ने संदेह के बयान उछालने शुरु कर दिए थे। कोई लश्कर-ए-तैयबां की साजिश का दोषगान कर रहा था तो किसी की जुबान पर आईऐम गुट के चर्चे थे।’’ आंतरिक मामलों के तमाम विशेषज्ञों की भी यही राय है कि बिना किसी सबूत, गवाह के उंगली उठाने में हमारा ही नुकसान है। ठीक वैसे ही, जब आप किसी पर लगातार चोरी का इल्जाम लगाते रहें, और एक दिन तंग आकर वह आपको ढंग से लूट ले।
बोस्टन-ब्लास्ट में घायलों को समय रहते इलाज़, मौके पर मौजूद एंबुलेंस, चुस्त आपात दल जैसी कई ख्ूाबियां भारत जैसे तमाम देशों के लिए आइना तो हैं ही साथ ही हमलों के बाद का माहौल वश में रखने की कला भी अमेरिकी सत्ताधारियों से सीखने की ज़रूरत है। आधुनिकता-पिछड़ेपन की दीवारों से आगे भी एक नया सूरज उग सकता है, जो भारत को  हमलों के अंधेरे में सियासत का नहीं सूझबूझ का उजाला दे सके। देश के नागरिकों केा संदेह और शक की खाली ज़मीन नहीं, पुख्ता सबूतों से जुड़ी न्याय और सुरक्षा की इमारत चाहिए। शक की सुइयां चुभतीं तो आतंकियों को हैं, पर देर-सवेर, दर्द हमें ही सहना पड़ता है। यहां इस लेख के मायने आतंकियों का पक्ष रखने के कतई न निकालें। साफ शब्दों में मेरी निजी राय यही है कि दहशत और दिलासों के इस मंज़र में सोते शेर को जगाने जैसे खतरे किसी भी हालत में मोल नहीं लिए जाने चाहिए।
                                         

Thursday 18 April 2013


 सिर्फ ढांढस नहीं, उम्मीद भी बंधाएं 


चिकित्सा क्षेत्र के तमाम विशेषज्ञों की सलाह है कि हाइड्रोसिफेलिस जैसी गंभीर बीमारियों से लड़ रहे पीडि़तों को सिर्फ ढांढस या सांत्वना का सिराहना नहीं, उम्मीद-उत्साह की नई किरण चाहिए। आइए हम और आप एक वादा करें, तकलीफ और दर्द से कराहते किसी भी रोगी को ये भरोसा दिलाएं कि ’एक दिन वह बिल्कुल ठीक हो जायेगा, और उस जैसे तमाम लोग ठीक हुए भी हैं।


किलकारियां चीख बन जातीं हैं, ख्वाब बुरे सपनों में बदल जाते हैं, सांसें सिसकने लगतीं हैं, और खुशियां कोसों दूर खड़े होकर तमाशा देखा करतीं हैं। घर-आंगन में एक मासूम खिलखिलाता तो है, पर उसकी तकलीफ का अंदाज़ा या तो परिवार या वो खुद ही लगा सकता है। जन्म लेते ही उसे एक ऐसा रोग जकड़ लेता है, जिसे ना मासूमियत से प्यार है और ना मुस्कराहट की परवाह। जो सिर्फ जानलेवा और बेहद दर्दनाक लम्हों को हंसती-खेलती जि़ंदगी पर उड़ेलने आता है। हर दिन, हर पल, हर मिनट मानो जान लेने को धमकी सी देता रहता है। बात हाइड्रोसिफेलिस रोग की। दिमाग में कई लीटर पानी भरने से सिर का साइज़ सामान्य से कई गुणा बढ़ जाता है। चिडचिड़ापन, असहनीय दर्द और जि़ंदगी-मौत के इस डरावने खेल ने कई मासूमों की मुस्कराहट तो छीन ही ली है, साथ ही उन परिवारों का भी सुख-चैन छीन लिया है, जो अपने लाड़ले की इस हालत को नम आंखों से देखने-महसूस करने को मजबूर हैं।
दिमाग में सीएसऐफ (सफेद पानी) भरने लगता है, और जैसे-जैसे वह तय जगह से ज्यादा में फैलता है, दिमाग में लचीलापन पैदा होता है, और कुछ महीनों में सिर सामान्य से बड़ा दिखने लगता है। जैसे-जैसे पानी स्पाइनल काॅर्ड में भरता जाता है, असहनीय दर्द के साथ-साथ बे्रन टिश्यू एक्सपेंड हेाने लगते हैं। हाइड्रोसिफेलिस रोगियों पर अभी आधिकारिक आंकड़े तैयार नहंी हैं, पर आधिकारिक जानकार बताते है कि विश्व के हर 500 में एक बच्चा इस जानलेवा बीमारी की जकड़ में है। चिकित्सकांे की सख्त सलाह है कि इस रोग में हिम्मत हारने की सज़ा जि़ंदगी गंवाकर भुगतनी पड़ सकती है। प्रेरित करने, व उम्मीद जगाने वालों की कमी ने हाइड्रोसिफेलस से मरने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ा दी है। हालांकि आधुनिक विज्ञान के ताबड़तोड़ आविष्कारों ने इस रोग से लड़ने के कई औज़ार तैयार किए हैं, जिनमें ’अल्ट्रासाॅनोग्राफी’ और कंप्यूटर टेंपोग्राफी, खासा कारगर है।
वाशिंगटन के शरमन ऐलेक्सी उन लोगों के लिए वाकई मिसाल साबित हो सकते हैं जिन्होंने इस बीमारी को जि़ंदगी की आखिरी सीढ़ी मान लिया है। ऐलेक्सी का जन्म 1966 में इसी बीमारी के साथ हुआ था, जिसका नाम काफी बाद में हाइड्रोसिफेलिस रखा गया। 6 साल की उम्र में उनके दिमाग की सर्जरी हुई, जिसको लेकर परिवार को एक अजीब सा डर था। उनकी याद्दाश्त खोने का, व शायद जान से चले जाने का भी। इसी डर के आगे शरमन ने परिवार के साथ इस जंग को जीता। इलाज़ के बाद वे बिल्कुल स्वस्थ्य तो नहीं, पर पहले से काफी बेहतर हो चुके थे। उनके शराबी पिता, उन्हें व उनके पांच भाइयों को छोड़कर चले जाते थे। परिस्थतियों और परेशानियों को दरकिनार करते हुए, ऐलेक्सी ने अपना नाम ’दा ग्लोब’ रखा। ( चूंकि हाइड्रोसिफेसिल में सिर का आकार कई गुणा बढ़ जाता है।)
सर्जरी के बाद उन्हें काफी हैवी दवाइयाँ लेनी पड़ती थीं, जो उन्हें खुश और कंफर्टिबल महसूस नहीं होने देतीं थीं। बावज़ूद इसके उन्होंने पढ़ने का मन बनाया और आॅटो मैकेनिक इंजिनियरिंग से लेकर तमाम दार्शनिकों के किस्से-कहानियां पढ़ीं। धीरे-धीरे साहित्य के बीच रहते-रहते ऐलेक्सी ने साहित्य को ही अपना शौक और जुनून बना लिया। मशहूर अमरीकी-चीनी कवि ऐलेक्स क्युओ के लैक्चर ने उन पर ऐसा असर डाला कि शब्दों और विचारों की ज़मीन पर शरमन ने अपनी हर तकलीफ कुर्बान कर दी। कुछ समय बाद सफलता ने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी। शराब पीने की जिस आदत ने उन्हें वाशिंगटन यूनीवर्सिटी से बाहर किया था, उसी यूनीवर्सिटी ने एलेक्सी को 1995 में स्नातक की मानद डिग्री से नवाज़ा। 2005 से अब तक वे लांग हाउस मीडिया के फाउंडर बोर्ड मेंबर हैं। यह संस्था अमरीकी युवाओं को फिल्म-निर्माण में आगे आने का मौका देती है। ’दा बेस्ट अमेरिकन शाॅर्ट स्टोरी, पुशर्ट प्राइज़ जैसी रचनाआंे ने उन्हें सिलेब्रिटी की कतार में ला खड़ा किया है। हाइड्रोसिफेलिस रोग पर तमाम कविताओं और आर्टिकल्स में उनकी बेजोड़ निर्भीकता और सहने की बेइंतिहां झलक है। वे इन रोग-पीडि़तों को नई जिं़दगी जीने की सीख तो देते ही हैं, साथ ही अपने अनुभवों से उनमें नया जोश भी भरते हैं।
दरअसल डाॅक्टर्स की राय यह भी है कि हाइड्रोसिफेलिस दिमागी बीमारी है, जो सोचने-समझने में दिक्कत पैदा करती है। रोग के बारे में बुरे-डरावने खयाल मन में लाना, इस बीमारी को और बढ़ा देता है। यदि सामने खड़ा व्यक्ति ज़रूरत से ज्यादा आश्चर्य से रोगी को सहानुभूति देने की कोशिश करता है तो पीडि़त, असहनीय दिमागी दर्द से तिलमिला उठता है। रोग कोई भी हो, उससे हार मान लेने से वह बढ़ता ही है। कहते भी हैं कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। आखिरकार सबसे असरदार इलाज़ आत्मविश्वास और उम्मीद ही तो है !
बीते दिनों त्रिपुरा में हाइड्रोसिफेलस और जि़ंदगी के बीच जंग लड़ रहीं 18 वर्षीय रूना बेगम का मामला काफी देर से सामने आया है। पिता ईंट-भट्टे में मज़दूर है और गरीबी का राक्षस मूंह बाये खड़ा है। मां और तीमारदारों से घिरी रूना के पास सहानुभूति के आंसू तो हैं पर अफसोस कि इलाज़ के लिए लाखों की रकम नहीं। सरकार और सियासत ने आंकड़ों को भले ही दबा दिया हो, पर धीरे-धीरे यह रोग पैर पसार रहा है। आत्मविश्वास जगाने से ज्यादा ढांढस बंधाने वालों की भीड़ है। ऐसे में देशी-विदेशी डाॅक्टर्स की साफ चेतावनी है कि रोगी को असहज महसूस करवाना उसकी जान से खेलने जैसा है। यदि आप हाथ फेरकर उसका दर्द महसूस करने की कोशिश में हैं, तो सावधान यह उसकी जान भी ले सकता है।
तकलीफ और तकल्लुफ़ की इस तेज़ धार में हमें सहानुभूति की नहंी, मज़बूत इरादों  की नाव खोजनी है। रोग के इलाज़ को आसानी से उपलब्ध तो करवाना ही होगा, साथ ही आत्मविश्वास और खुशमिजाज़ी का भी परिचय देना होगा। असहजता सिर्फ इसी रोग के लिए नहीं, इस जैसी तमाम गंभीर बीमारियों के लिए मुसीबत पैदा कर रही है। तमाम लोग जानलेवा और भयानक कहकर रोगी और उसके परिवार को अंदर से बुरी तरह तोड़कर रख देते हैं। ज़रूरत है इलाज के साथ-साथ प्रेरणा की भी, ऐसी इंस्पिरेशन, जो किसी की जि़ंदगी मंे खुशियां ला सकें, उसे यह भरोसा दिला सके, कि जीने के लिए सभी को खुदा ने संघर्ष सौंपा है।
 बस फर्क इतना है कि किसी को बेहद तकलीफ है तो कोई मुस्कराते हुए जी रहा है। दवा और दुआओं के साथ जिस दिन प्रेरित करने वाले भी आगे आएंगे, तो असहनीय दर्द भूलकर हाइड्रोसिफेलस जैसे रोगियों को कुछ ही सही, पर सुकून ज़रूर मिलेगा। आइए हम और आप एक वादा करें, तकलीफ और दर्द से कराहते  किसी भी रोगी को ये भरोसा दिलाएं कि ’एक दिन वह बिल्कुल ठीक हो जायेगा, और उस जैसे तमाम लोग ठीक हुए भी हैं। हो सकता है कई लोग झूठी उम्मीद बंधाने को गलत मानते हों, पर क्या कोई झूठ किसी की जान से बढ़कर हो सकता है ?
मयंक दीक्षित
                                                 स्वतंत्र पत्रकार, कानपुर।
सोर्स आॅफ इमेज एंड कंटेंटः गूगल ।

Wednesday 10 April 2013


रोटी, कपड़ा और ’मौत’ 


हमें खरीदना है, उन्हें बेचना। मजबूरी और मुनाफे की इस सौदेबाज़ी में नियम-कानून, वैध-अवैध, सही-गलत, जैसी औपचारिकताएं ताक पर रख दीं जातीं हैं, और खड़ी हो जाती है एक ऐसी इमारत, जो खूबसूरत और रिहायशी तो है, पर अफसोस कि सुरक्षित नहीं !


किसी मां का बेटा उस वक्त घर से निकला था, तो किसी मां ने घर में कदम रखे थे, कई हंसते-खेलते परिवार अपनी दुनिया में मशगूल थे। छोटे-बड़े, मासूम-बुजुर्ग अपने आशियानों में जि़ंदगी के वो पल गुज़ार रहे थे, जिन पर उनका ही हक था, सिर्फ उनका! अचानक एक शोर होता है, हाहाकार मचता है और देखते ही देखते सैकड़ों लोग ईंट-पत्थर के बेहद दर्दनाक बोझ तले दब कर अपनी जि़ंदगी सियासी और प्रशासनिक लापरवाही के बदले गंवा बैठते हैं।
महाराष्ट्र के थाणे में पिछले दिनों एक सात-मंजिला इमारत अचानक भरभराकर ढह गई, जिसमें आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 72 लोगों की जान मलबे की भेंट चढ़ गई। कुछ ने अपनों को गंवाया, तो कुछ ने सपनों को, पर गंवाया ज़रूर। कुछ दिनों बाद यह घटना महज़ एक घटना की तरह हमारे दिल-ओ-दिमाग से धुंधली होती जायेगी और हम थर-थर कांपती इस धरती पर गगनचुंबी इमारतें बनाकर अपनी शान-ओ-शौकत देखते और दिखाते रहेंगे।  सवाल यही कि क्या सिर्फ इक्के-दुक्के अफसरान का लालच ही इस घटना का मूल कारण था ..? क्या राज्य के जि़म्मेदारों के बीच बंदरबांट ने ही इन 72 लोगों की जि़ंदगी छीनी है ? यदि आपका दो-टूक जवाब हां है तो कुछ व्यावहारिक बातों पर भी गौर करना होगा।
अकेले बंबई की ही बात करें तो आंकड़ों का साफ इशारा है कि यहां 400 मंे से लगभग 218 इमारतें अवैध निर्माण का झंडा बुलंद किए खड़ी हैं। दरअसल भीतरखाने में झांकें तो दोष हमसे ही शुरु होता है। दूर के शहर-कस्बों से हर रोज़ लाखों की आबादी रोजगार की तलाश में सुनहरे सपनों के साथ मुुंबई और इस जैसे तमाम बड़े शहरों में कदम रखती है। रोटी, कपड़ा के बाद सबसे ज़रूरी मकान ही है, जिसकी किल्लत से इन्हें दो-चार होना पड़ता है। बड़ा शहर, बड़े खर्चे, और तलाश रहती है सस्ते में अच्छे मकान की। यह ’तलाश’ तमाम बिल्डर्स और कंस्ट्रक्शन मालिकों को इस धंधे में सिर उठाने का मौका देती है। वे ज़रूरतमंदों को सस्ती दरों में मकान उपलब्ध कराते हैं, और अवैध निर्माण जैसी कोई खामी होने पर स्थानीय राजनीति की शरण में चले जाते हैं। कुछ नेता, अफसरान और निगम अधिकारियों की ’क्रपा’ से धीरे-धीरे बहुमंजिला  कुकरमुत्ते उगते रहते हैं, और चूक और चालाकी का यह मंज़र कैसे काल बनकर लोगों की खुशियां चीखों में बदल देता है, यह हमारे सामने है।
दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता जैसे तमाम महानगर आज मधुमक्खियों के छत्ते की तरह पटे पड़े हैं। इमारतों के साथ-साथ उनकी बेशुमार कीमतें भी आसमान छू रहीं हैं, और इस प्रतियोगी दौर में अवैध निर्माण जैसे शब्द बेहद आम हो चुके हैं। कुछ साल पहले जब दिल्ली में ललिता पार्क हाउस भरभराकर ढह गया था, तब अवैधता और असुरक्षा मुद्दे पर समाज और सियासत का ध्यान गया था। आनन-फानन दिल्ली म्यूनिसिपल काॅर्पोरेशन ने पूर्वी दिल्ली के 600 भवनों पर अवैध निर्माण का नोटिस चस्पा किया था। अफसोस कि पकड़े जाने पर  छिटपुट कार्रवाई और भीतरी पहुंच, भवन निर्माताओं के मंसूबों पर पानी नहीं फेर पाई। राजधानी में ही शाहदरा साउथ जोन के 683 भवन मालिकों पर नियम-कानून संबंधी इस नोटिस ने भय तो पैदा किया, पर ’रसूख और हनक की राजनीति में सबकुछ जायज़’ वाली कहावत ही जि़ंदाबाद रही।
मुंबई की ही पिछली कुछ घटनाओं पर नज़र डालें तो 13 अगस्त 2008 को भिण्डी बाज़ार इलाके में चार मंजिला इमारत ताश के पत्तों की तरह बिखर गई थी, जिसमें 20 की दर्दनाक मौत हुई और 35 लोग घायल बताए गए थे। 3 नवंबर 2008 को पुलिस मुख्यालय के पास बनी एक इमारत का हिस्सा गिरा था, जिनमें 6 की मौत हुई। 26 अगस्त 2009 को लैमिंगटन रोड पर 5 मंजिला इमारत का एक हिस्सा गिरने से एक महिला ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। 28 जुलाई 2010 को कुरला के कुरैशीनगर में चार-मंजिला इमारत फिर ढही, जिसने एक की जान ली। ऐसी कई घटनाएं इस मायानगरी में साल-दर-साल घटतीं आईं हैं, और शोर-शराबे के बीच जि़म्मेदार बचते चले आये, जिसका परिणाम आज हमारे सामने है। दोष का ठीकरा निगम, बिल्डर्स पर फोड़ रहा है, तो बिल्डर्स निगम के ढुल-मुल रवैए को कारण बता रहे हैं। सियासी ज़मात मुआवज़े और सहानुभूति तक सिमटकर रही गई है, पर स्थायी हल खोजने को कहीं भी विचार-विमर्श होता नहीं दिख रहा।
शहर कोई भी हो, उसकी अपनी क्षमता व सीमाएं हैं, जिन्हें लांघने पर हमें ही उसका नुकसान उठाना पड़ेगा। हमने ही अपनी जेब ढीली कर, अंधाधुंध सुविधाएं खरीदने की आदत पाली है। बात यदि सिर्फ बिल्डर्स की गलतियों पर हो रही है, तो हम यह अच्छी तरह समझ लें कि मजबूरी से मातम तक का यह सिरा हमने भी उतनी ही तवज्ज़ो और ताकत से थामा हुआ है। घर नहीं होगा, तो जाएंगे कहां ?  शानदार फ्लैट नहीं होगा तो लोग क्या कहेंगे ? और कुछ रुपए बचाकर इतना आलीशान आशियाना मिल रहा है तो क्यूं छोड़ा जाए ? जैसे सवाल हमारी अपनी जुबान से ही निकले हैं। याद रहे अवैध वस्तु खरीदने और बेंचने वाले बराबर के ही दोषी हैं।
शहर को ज़रूरत से ज्यादा भर देने से वह कराहने लगता है, और बात जब खुद पर आती है, तो हमें दोष के छींटे मजबूरन दूसरों पर उछालने पड़ते हैं। हमें एकजुट होकर ऐसे अवैध निर्माणों के लिए सचेत होना होगा, और जल्दबाजी और कम पैसों के लालच में इन गगनचुंबी भवनों में स्टेटस सिंबल देखना बंद करना होगा। सरकार सिर्फ हमसे कर वसूलने के लिए ही नहीं है, उसकी जि़म्मेदारी यह भी है कि उसके नागरिक स्वस्थ्य, सुरक्षित और खुशहाल रहें। गलतियों से सीख लेते हुए हमें सतर्क रहकर  आशियाने खरीदने होंगे, जिसमें वैधता हमारी प्राथमिकता में हो। कम पैसों के चक्कर में हम भले ही कुछ हज़ार या लाख बचा लें, पर जान, कीमत से कहीं बढ़कर है। सिर्फ अफसरान या व्यवस्था को कोसकर हम असल मुद्दे को सुलझाने की बजाय उसमें उल्टा उलझते ही जाएंगे।
-मयंक दीक्षित
                                                        स्वतंत्र पत्रकार, कानपुर।

Monday 8 April 2013


हाथी को चाहिए हिफाज़त के ’हाथ’ 



सरकार और सियासत पर हमने अपने इस विशालकाय जीव की जि़म्मेदारी सौंपी थी, पर अब वक्त आ गया है कि हम खुद ’गजराज’ को जल, ज़मीन और जि़ंदगी से नवाज़ें। कहीं ऐसा न हो कि हाथी, किस्से-कहानियों और तस्वीरों में ही कैद रह जाए और हम इस जीते-जागते, हंसते-खेलते अद्भुत जीव को हमेशा-हमेशा के लिए खो दें !

कुदरत ने उसे विशालकाय शरीर तोहफे में दिया है, वह हम इंसानों का दोस्त है और हमारे इशारे पर कई सौ किलो वज़न रखने से भी नहीं हिचकता। तमाम जानवरों की तरह वह इंसानों पर तब तक बोझ नहीं बना, जब तक उसके लिए घने जंगल और नहर-तालाब मौज़ूद रहे। आज वह या तो चंद सरकारी वनों में सिसक-सिसककर चिंघाड़ रहा है या फिर किसी मेले-सर्कस में कोड़ों की मार के बदले कर्तब दिखाने को मजबूर है। बात उस हाथी की, जिसे पुराणों ने भगवान गणेश का रूप व इंद्र की सवारी कहा है। आज वही गजराज दुःखी है, कराह रहा है और अपने हिस्से की ज़मीन और जि़ंदगी के लिए हम इंसानों के ’विकास माॅडल’ पर आंसू बहा रहा है। मस्तमौला और मनुष्यों का सहयोगी कहे जाने वाले इस जीव की लुप्त होतीं प्रजातियां, शिकारियों की गोलियों से छलनी जिस्म, और तस्करी के तराजू में रखी देह आज अपने हिस्से का इंसाफ मांग रही है।
2010 में एक क्षेत्रीय मीडिया संस्थान ने उड़ीसा में बड़ी संख्या में हाथियों को खतरा बताया था। बीते दो दशक में यहां लगभग 570 हाथी बिजली करेंट और अवैध शिकार की भेंट चढ़ चुके हैं, जो अपने आप में काफी भयावह आंकड़ा है। हालिया रिपोर्ट कहती है कि 261 हाथियों को शिकारियों ने बेरहमी से निशाना बनाया है, और बाकियों की मौत अन्य संदिग्ध कारणों से हुई है। वन्यजीव कार्यकर्ता बिश्वजीत मोहंती की मानें तो पिछले 20 सालों में हाथियों पर तस्करों का चाबुक लगातार चला है। इस विशालकाय बेजुवान के अंगों का अच्छे दामों में बिकना इसका बड़ा कारण है। मोहंती ने इन हालातों के लिए जि़म्मेदार संस्थाओं के ढुल-मुल रवैये की भी कड़ी आलोचना की है। कई बार मृत पाये गए हाथियों के क्षत-विक्षत और गायब विशेष अंग जैसे दांत, नाखून इस बात की ओर तुरंत इशारा कर देते है कि उन्हें तस्करी की नीयत से रौंदा गया है।
पश्चिम बंगाल में इसी साल मार्च की शुरुआत में रेलवे लाइन क्राॅस कर रहा एक नर-व्यस्क हाथी तेज़ रफतार ट्रेन से कुचलकर मर गया था, जिस पर सरगर्मी से कोई चर्चा भी नहीं हुई, और मामला कागज़-कलम के बीच ही दम तोड़ गया। अलीपुर द्वार से कुछ किलोमीटर दूरी पर स्थित बक्सा टाइगर रिज़र्व का यह हाथी शहरी आवोहवा से बेखबर शायद भटकता हुआ पटरियों पर आ पहुंचा था। ऐसे कई मामले गाहेबगाहे घटते रहते हैं, और सम्बंधित वनविभाग व पुलिस चैकियों के रजिस्टरों में दर्ज होते रहते हैं, पर अफसोस कि इन समस्याओं के निदान पर न तो वन्य महकमा सक्रिय रहता है और न ही स्थानीय प्रशासन।
प्रकृति से इस जीव को कुछ आदतें विरासत में मिलीं हैं, जैसे हरे-भरे लहलहाते मैदानों में विचरण करना, पेड़ के तनों, खासकर लंबी घास का जमकर आहार लेना। तेज़ी से फैल रहीं विकास की ’बैसाखियों’ ने तमाम जीव-जंतुओं समेत हाथियों को भी कोई खास सहारा नहीं दिया। घने जंगलों का सम्राज्य छीनकर हाथी को या तो तमाशबीनों के बीच प्राणि उद्यानों में लाया गया या फिर वे अपनी भरपेट खुराक की मजबूरी में सर्कस-नौटंकी वालों की कठपुतली बन गए।
इन्हीं हाथियेां की एक खूबसूरत प्रजाति जो सिर्फ थाइलेंड जैसे देशों तक सिमट कर रह गई है, जिन्हें हम ’सफेद हाथी’ कहते हैं। भारत में वन्यजीव विभाग के हालिया आंकड़ों में कुल 20,000-25,000 हाथी दर्ज हैं, जिन पर भी अब बेहद निगरानी व सतर्कता बरतने की ज़रूरत है। 4-5 टन वजनी व अमूमन 21-22 फीट लंबे इस जानवर को जो लोग बोझ समझते हों, वे इसकी उपयोगिता को एक बार ज़रूर जान लें। हाथी दिन में लगभग 19 घंटे जंगलों में चरता रहता है, और 125 वर्गमील क्षेत्र में घूमते हुए करीब 220 पाउंड गोबर गिराता है, जो कि बीजों व पौधों के विकास के लिए संजीवनी है।
इन्हें झुण्ड में विचरण करना बेहद पसंद हैं। गन्ने के खेत में यदि वे एक बार घुस जाएं, तो बड़ी प्रसन्नचित्त मुद्रा में बाहर निकलते हैं। हाथी दिन में एक ही बार पानी पीते हैं, पर साफ-सुथरा पानी हमेशा उनकी प्राथमिकता रही है। वे न सिर्फ हमसे निःस्वार्थ सहयोग और सम्मान चाहते हैं बल्कि हमारे जंगलों की शान-ओ-शौकत भी इन्हीं से है। एसियन स्पेसीस ऐक्सपर्ट डाॅ. बार्ने लांग कहते हैं ’’तेज़ी से बढ़ रही जनसंख्या ने न सिर्फ जंगल काटकर इमारतें खड़ीं कीं हैं, साथ ही साफ पानी के तालाब-नहरों को भी गायब कर दिया है। ’’
बड़े से कान वाले इस जीव ने तो, इस धरती पर आ रहे खुद के विनाश के संकेत सुन लिए हैं पर हम अब भी इनकी खुद को बचाने की गुज़ारिश और सहेजने की करुण पुकार नहीं सुन पाये हैं। वन्यजीव सफारी में हाथियों की दशा को वर्तमान स्थिति से और बेहतर करने की ज़रूरत है। हाथी बेहद शांतिप्रिय और मस्तमौला जीव है, जो आज मन ही मन, हमसे संवेदना और सुरक्षा की गुहार लगा रहा है। तस्करों व शिकारियों को वन्यजीव कानून में कड़ी से कड़ी सजा की मांग उठनी चाहिए। संगीन स्थिति में इन्हें सजा-ए-मौत का भी प्रावधान हो, तभी इनमें बेजुबानों को मारने की फितरत खत्म होगी।
सिर्फ सरकार और सियासत के भरोसे इस विशालकाय जीव को छोड़ना निहायत बेईमानी होगी। घने जंगल-ज़मीनों पर रफ्तार से दौड़ रहा आधुनिक औद्योगीकरण का पहिया व वन्य संपदा के अनावश्यक दोहन के बीच ही कोई संतोषजनक रास्ता निकालना  होगा, जो हमारे विकास में भी बाधक न हो और इन बेजुबानों के हित में भी। जल्द ही लंबी सूंढ़, उंचा कद, भारी वज़न व बेहद सरल स्वभाव वाले इस गजराज पर यदि ’इंसानी हमले’ कम नहीं हुए, तो वह दिन दूर नहीं जब हाथी किस्से कहानियों और तस्वीरों में कैद रह जायेगा और हम एक जीते-जागते, हंसते-खेलते अद्भुत जीव को हमेशा-हमेशा के लिए खो देंगे।
-मयंक दीक्षित
                                                  स्वतंत्र पत्रकार, कानपुर। 


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इमेज  & कंटेंट: गूगल ।

Saturday 6 April 2013


जज़्बात, जोश और जिस्म 

प्यार में सेक्स हो सकता है, पर सेक्स में प्यार हो ये ज़रूरी नहीं। आधुनिकता ने रिश्तों में इश्क और सेक्स को उलझा सा दिया है, जहां जायज़ और नाजायज़, सही-गलत, परिपक्वता-अपरिपक्वता जैसे मुद्दे कटीली घास की तरह उग आये हैं। 

कब तक मैं सेक्स शब्द सुनते ही मूंह फेरकर बात पलटता रहूं ..? किसी फिल्म या सीरियल के बीच यदि कंडोम का ऐड आ जाये, तो झट से रिमोट थामकर अगला चैनल टयून क्यूं कर दूं ...? समाज के चार लोगों में सेक्स परिपक्वता के पर्दों के पीछे पड़ा-पड़ा सड़ता रहेगा और वक्त आने पर इसका इस्तेमाल सही-गलत तरीके से होता रहेगा। जब भी यह कहीं किराये के कमरों या होटलों में मूंह छिपाये बैठा दिखेगा, इस पर लाठियां बरसेंगी और फिर नारे गूंजने लगेंगे  कि ज़रूरत है सेक्स शिक्षा को शुरु करने व इसे बढ़ावा देने की। पहले दिन अखियां लड़तीं हैं, अगले दिन दोस्ती, उसके अगले दिन इज़हार और फिर प्यार बिस्तर पर आकर सिसकियां लेने लगता है। कहीं इच्छाएं और शारीरिक बदलाव प्यार की गलत परिभाषा तो नहीं गढ़ रहे हैं ...? कहीं सेक्स को प्यार का प्रसाद तो नहीं माना जा रहा है ...? क्यूं आज का ज्यादातर युवा, प्यार और सेक्स को एक ही तराजू मंे तौलता चल रहा है ...? वजह साफ है, या तो उसने अंजाम की परवाह नहीं की है या फिर वह जवानी के जोश-जुनून में अपनी और अपने साथी की इज्ज़त अपने ही हाथों कुचल रहा है।
विक्की एक स्टाइलिश और फैशनकांसियस लड़का है। उसके मज़बूत बाइसेप्स और राॅयल इनफील्ड बाइक से अक्सर लड़कियां इंप्रेस होकर उसकी हो जाया करतीं हैं। उसने पिछले सप्ताह अपनी   नई बैचमेट सौम्या को प्रपोज़ किया और ’प्यार’ के पंचनामे में वह आखिरकार पास हो गया। देर रात पार्टी, घूमना-फिरना, शाॅपिंग-वांडरिंग, उसका रुटीन बन चुका था। लगभग दो सप्ताह बाद उसने सौम्या को अपने पैरेंटस की गैर-मौजूदगी में घर बुलाया, और अपना शारिरिक ’प्रपोज़ल’ उसके सामने रखा, जो रिजेक्ट हो गया, और तुरंत ’सच्चा प्यार’ कांच की तरह टूट कर बिखर गया। विक्की ने उसे अपनी जि़ंदगी से बाहर का रास्ता दिखा दिया और दलील दी कि शायद उसे अपने लवर पर यकीन नहीं है और वह उसे ठीक से जान ही नहीं पाई है। कुछ महीनों बाद दोनों फिर मिले और विक्की ने सौम्या को उसकी शर्तों के साथ दोबारा अपनाया और आज वे दोनों एक इशकज़ादे की तरह खुलकर जी रहे हैं, मुस्करा रहे हैं, और खुश भी हैं। यह सेक्स का एक पहलू है, जो प्यार जैसे साफ-सुथरे बर्तन में जगह बनाना चाहे तो उसे फटकार मिलती है। यहां शारीरिक सम्बंधों के लिए नो एंट्री है लेकिन साथी पर समर्पण की भरपूर ज़रूरत।
एक युवा आकाश भी है, जो बेहद होशियार, पढ़ने-लिखने में ब्रिलिएंट और साफ दिल इंसान है। उसकी लाइफ में पिछले कई सालों से एक ही लड़की थी। दोनों की दोस्ती बचपन से ही फल-फूल रही थी, और ग्रेजुएशन में आते-आते वह रिश्ते में बदल चुकी थी। आकाश उसे बेहद प्यार करता था, दोनों साथ-साथ काॅलेज-कोचिंग जाया करते थे। निजी जि़ंदगी में आकाश ने कभी सेक्स को तवज्जो नहीं दी, वह अपने साथी की मुस्कराहट और हाथों में हाथ, से ही खुश था। कुछ दिनों बाद उसकी गर्लफ्रेंड ने किसी और का दामन थाम लिया और आकाश को कुछ ऐसा जवाब मिला जिसकी उसने कभी उम्मीद ही नहीं की थी। उस पर रिश्ते को ढोने का इल्जाम लगा और बेहद साफ-सुथरे इश्क के बदले उसकी गर्लफ्रेंड ने उसे बुद्धू और बोरिंग ब्वाॅफ्रेंड का तमगा दिया। आकाश खुद को समर्पित तो कर रहा था पर अपने साथी को, उसके ही शब्दों में कहें तो संतुष्ट नहीं कर सका। सेक्स और प्यार में यहीं नौंक-झौंक हो जाया करती है। प्यार समर्पर्ण चाहता है और सेक्स संतुष्टि। दोनों स्थितियों में आपको मैनेज करना है। यह कहानी किसी लड़के या लड़की पर केन्द्रित नहीं है, यह ज्यादातर घट रहे किस्सों का एक उदाहरण मात्र है।
आजकल की मुहब्बत में सेक्स को नए सिरे से भी प्रयोग में लाया जा रहा है। यदि लड़की सेक्स के लिए मना करती है, तो उसका पुरुष मित्र उस पर भरोसा न होने की बात कहता है। सेक्स का सबसे बड़ा नुकसान और जोखिम यही है कि बंद कमरे के इस ’प्यार’ के बाद रिश्ते की उम्र बढ़ेगी या उल्टा कम होगी ? तमाम सर्वे दिखाते हैं कि शादी से पहले सेक्स न सिर्फ आगे चलकर अपनेपन का प्रतिशत घटा देता है, बल्कि आपसी वयवहार में भी तनातनी पैदा होने लगती है। यहां अपरिपक्वता की सामाजिक दलीलें भी जायज़ दिखाई पड़ती है। वहीं एक धड़ा सेक्स से रिश्ते को मज़बूती और लांगलाइफ रनिंग की बहस करता है। आधुनिकता ने रिश्तों में इश्क और सेक्स को उलझा सा दिया है, जहां जायज़ और नाजायज़, सही-गलत, परिपक्वता-अपरिपक्वता जैसे मुद्दे कटीली घास की तरह उग आये हैं। यदि समय रहते हम युवाओं ने सेक्स-प्यार को बिल्कुल अलग कर, इसके महत्व-अच्छाई-बुराई को नहीं समझा तो हम न सिर्फ अपनी छवि पर दाग लगा बैठेंगे साथ ही भविष्य की खुशियों की चाबी भी खो देंगे।
बीच के रास्ते पर चलने के लिए हमें रिश्ते में सेक्स की एक उम्र, परिस्थिति को खुद ही तय करना होगा। प्यार का मतलब साथी की इच्छाओं का ख्याल रखना है, उसकी हर इच्छा पूरी करना कतई नहीं। विश्वास-अविश्वास की लड़ाई में जिस्मानी सम्बंध आगे चलकर सिर्फ दुःख व परेशानी ही पैदा करते हैं। जब तक इस छिपी आदत को जोश-जुनून से जोड़कर देखा व लिया जाता रहेगा, सेक्स का सिर्फ घृणित रूप ही सामने आयेगा। कहते हैं प्यार अंधा होता है, पर अब वक्त आ गया है कि प्यार को होश-ओ-हवास के दायरे में रखा जाये न कि हवस के चंगुल में। समर्पण और संतुष्टि दोनों ही ज़रूरी हैं पर सही वक्त पर !
-मयंक दीक्षित
                                                     

Tuesday 2 April 2013

सहानुभूति से ज्यादा सहयोग की दरकार 


सिर्फ सहानुभूति से संकट टलने वाला नहीं है, ज़रूरत है मदद के लिए एकजुट होकर हाथ बढ़ाने की। चिकित्सकों ने इसे त्वचा कैंसर का सबसे भयावह चरण माना है। भारत भी यदि इन पीडि़तों के लिए आर्थिक मदद की पहल करे, तो इनकी जि़ंदगियों में खुशहाली आ सकती है। 

कहते हैं दुःख के बाद सुख आना तय है, पर एक ऐसी भी दुनिया है, जहां दुःख घरज़माई बन बैठा है, और हालात भी इंसानियत पर बिना तरस खाये, जुल्म ढाये जा रहे हैं। ये लोग भले ही इस तरह जीने को अपनी आदत बना बैठे हांे, पर जो भी इन्हें इस हाल में देखता है, वो दंग रह जाता है, और कष्ट से कराहती इन रूहों को खुदा से ज़ल्द अच्छा करने की दुआ मांगने लगता है। मार्च 2007 में रोम के लोन टोडर ने अपनी इस बीमारी को कुछ तस्वीरों के ज़रिए उजागर किया था, जिसने चिकित्सा क्षेत्र के साथ-साथ समाज को भी झकझोर कर रख दिया था।
अमेरिकी चर्मरोग चिकित्सा के निदेशक स्टिफेन स्टोन ने इसे ’लेवनडाॅसकी’ नामक जानलेवा और बेहद कष्टदायी बीमारी का नाम दिया था। दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्रों में यह चर्म रोग बेहद खतरनाक तरीके से अपनी जड़ें जमा चुका है। आधुनिक विज्ञान आज भी इसका जड़ से सफाया करने के नाम पर अंधेरे में हाथ-पैर मार रहा है। मीडिया में इस रोग के शिकार ’ट्री मैन’ कहे जाते हैं, इनकी त्वचा पर कई किलो मृत चर्बी जमा हो जाती है, जिसका एकमात्र कारण हार्मोंस का डिसबैलेंस बताया गया है।
इस रोग के कारणों पर हुए शोध से पता चलता है कि कोशिकाओं में जस्ते की मात्रा बढ़ने पर कुछ अजीब से दाग उभर आते हैं, यही दाग आगे चलकर बड़े और मोटे होते रहते हैं। शुरुआत से ही असहनीय दर्द शुरु होता है, जो समय के साथ-साथ कई गुना बढ़ता चला जाता है। कुछ आनुवांशिक लक्षणों से भी यह रोग पनपता है। चिकित्सकों ने इसे त्वचा कैंसर का सबसे भयावह चरण माना है। रोग बढ़ने के साथ-साथ मोटी फुंसियां, गले, हाथ, छाती तक पहुंचती रहतीं हैं, और जिस्म को न सिर्फ तकलीफदेय बना देतीं हैं, बल्कि इन्हें बेचारगी से देखने वाले की असहज़ प्रतिक्रिया, रोगी का आत्मविश्वास भी गिरा देती है।
इंडोनेशिया के 34 वर्षीय डेडे कोसवारा ने आज से कई साल पहले इंटरनेट पर अपना यह रोग बड़े आत्मविश्वास से दुनिया को दिखाया था। डिस्कवरी चैनल ने उनकी कहानी को प्रमुखता से प्रसारित भी किया था, और उनके इलाज की भी हरसंभव व्यवसथा की थी। हालांकि डेडे ने कभी किसी से इलाज़ की गुज़ारिश नहीं की , पर वे इस रोग से पीडि़त ऐसे शख्स थे, जो उसे सहज़ और अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा मानकर जी रहे थे। लोग उन्हें देखकर भले ही हैरत में पड़ जाते हों, पर उन्होंने हमेशा ही खुशमिजाज़ी का परिचय दिया। 26 अगस्त 2008 को उनकी सर्जरी हुई, जिसमें तकरीबन 6 किलो, मृतचर्बी की पर्त हटाई गई, और उनकी स्थिति पहले से बेहतर हुई। डिस्कवरी चैनल के शो ’ट्रीमैनः सर्च फाॅर दा क्योर’ में दावा किया गया कि 95 फीसदी मृत चर्बी को उनके शरीर से अलग किया गया है, और वे मुश्किलों से पूरी तरह तो नहीं, पर कुछ हद तक ज़रूर बाहर आये हैं।
इलाज की गुत्थी सुलझाने में जापानी चिकित्सक भी बेजोड़ अध्ययन और शोध कर रहे हैं। पीडि़तों को साफ-सफाई से रखने और विकास की ओर ले जाने में वहां की सरकारें और तमाम गैरसरकारी संगठन सामने आये हैं। इन मरीज़ों की तरफ से जो मुख्य बातें सामने आई हैं, उनमें से एक, लोगों की सहानुभूति से ज्यादा, उन्हें सहयोग की ज़रूरत है। इनके बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, रहने को खुशनुमा माहौल, इनकी मूल ज़रूरतें हैं। हालांकि जकार्ता पोस्ट जैसे कई मीडिया घराने इनके सुख-दुख में हमेशा खड़े रहे हैं, इनकी बदौलत ही लोगों ने ऐसे रोग और उनसे पीडि़तों की व्यथा को जाना, समझा और महसूस किया है।
इंसानियत का सही अर्थ सिर्फ खुद की सुख-सुविधाओं पर ही नज़रें गढ़ाये रहना नहीं है। जब तक हम समाज के हर हिस्से में अपनापन और सहयोग के बीज नहीं बोएंगे, सफल और समृद्ध मज़हब की इमारत हमेशा कमज़ोर ही रहेगी। ऐसे गंभीर रोगों से निपटने में सिर्फ चिकित्सक वर्ग की ही नहीं, देश-विदेश के उन तमाम बुद्धिजीवियों की ज़रूरत है, जो इन पीडि़तों का दर्द बांट सकें, उनके हितों के लिए सवाल उठा सकें। भारत भी यदि उन पीडि़तों को आर्थिक मदद की पहल करे, तो उनकी जि़ंदगियां संवर सकती है। देश-देश में आपसी सौहार्द, सहयोग से ही सुनहरे कल की तस्वीर रची जा सकती है। इस नेक नज़रिए से पूरे विश्व में न सिर्फ हमारी साख मजबूत होगी साथ ही परोपकार की अपनी परंपरा पर भी हम गर्व से कायम रह पाएंगे।
                                                            -मयंक दीक्षित


Sunday 31 March 2013


आफतों के परिंदे 


चिन्नू जैसे कई मासूम बेज़ुबानों को हम भले ही आज़ादी से जीने का मौका दें, पर वही आज़ादी जब उनकी जान ले ले, तब जि़म्मेदारी किस पर आती है ...? मुझ पर, मेरे इरादों पर, उन उसूलों और सिद्धांतों पर या फिर खुद प्रकृति पर .....? आप ही बताएं .....!

उसूल और सिद्धांत घर के बने उस देशी घी की तरह हैं, जिन्हें अचानक अपना लिया जाये तो पचाने में दिक्कत आती है। कुछ नियम-कायदे, किताबों और संत-महात्माओं के मुख से बड़े शानदार और मीठे लगते हैं, पर हकीकत में उनका अंजाम उस पौष्टिक दूध की तरह होता है, जिसमें ज़रा सा भी नमक गिर जाये तो वह फट जाता है, और उसके फायदे-नुकसान मलाई और पानी की शक्ल में अलग होने लगते हैं। जीव हो या इंसान सभी को आज़ादी पसंद है, कायनात और किताब दोनों यही दलील देती आईं है। कैद में रहना, नर्क जैसा है, पर ऐसी आज़ादी और खुली छूट भी किस काम की कि जान पर ही बन आये। एक छोटा सा जीव, जिसे पुराणों में गणेश जी की सवारी कहा गया है, दुनिया  उसे ’चूहा’ कहती है, पर मैने उसे ’चिन्नू’ नाम दिया था।
मैं अक्सर स्कूल जाते वक्त, एक बाज़ार से रू-ब-रू होता था, जहां शनिवार के दिन परिंदों का सौदा हुआ करता था। दूर-दराज़ के पक्षियों-जीव-जंतुओं को खरीदने-बेंचने  दूर-दराज़ से सौदागर आया करते थे। किसी पिंजरे से खरगोश झांक रहा होता था, तो किसी छेदनुमा डिब्बे से रंग-बिरंगे तोतों का जोड़ा। कबूतर तो बेंचने वालों की पीठ पर सवार हो जाते थे, मानो वे अपने ही सौदे का मोलभाव देखकर खुद को धिक्कार रहे हैं। खरगोश, कबूतर, तोते, चूहे और न जाने कितने ही प्रकृति के नायाब नमूने वहां बिकने आते थे। एक दिन मेरे दिल में भी इन्हें पालने का शौक उठा, जाकर खड़ा हो गया, उस शोरगुल भरे बाज़ार में। पक्षियों का शोरगुल, कानों को परेशान नहीं करता, कवियों ने इसे कलरव कहा है।  प्रकृति इस शोर के सहारे मानो कुछ संदेश दे रही हो कि वह खुश है, खिलखिला रही है।
मैं पहले सफेद कबूतरों को लेने के पक्ष में था। एक खरीदार, जिसकी आंखों में कीचड़ लगा था, पर अच्छे दाम में बेंचने की चमक बरकरार थी। ’’कितने का देंगे भाई ....?’’ मैंने सहमते हुए पूछा, ’’अस्सी रुपए जोड़ा है’’ बहुत सीधा है, जैसे रखेंगे, वैसे ही रहेगा’’ उसने जवाब दिया। मैंने हाथ बढ़ाकर उन्हें छूने की कोशिश की, पर वे फड़फड़ाकर दूर उड़ चले। पास ही, उस बेचने वाले का बेटा, दोनों हाथों में सफेद चूहे लिए खड़ा था। उनकी सफेद रूह में काली आंखें मानो मुझ पर हंस रहीं हों, और कह रहीं हों, कि आज़ादी को अस्सी रुपए में खरीदने चला आया। मैंने हाथ बढ़ाकर एक चूहे को उठाया, और प्यार से उस पर अपनी दो उंगलियां फिराईं, वह मुझसे ज़रा भी दूर नहीं भागा। अपने हाथों में उसे महफूज़ और सहज पाकर मैंने उसे खरीदने का निश्चय किया और शर्ट की उपर वाली जेब में डालकर, साइकिल दौड़ाते हुए घर ले आया।
मां बहुत खुश हुई, पर बाबू जी की त्यौरियां कुछ दिन चढ़ी रहीं। शायद वे अंजाम को भांप गए थे। मां और मैंने उसकी खूब देखभाल की। पिता जी बोले, इसे पिंजड़े में रखो, वरना बिल्ली आती-जाती रहती है, ले जायेगी पंजों में दबाकर। मैंने टाल दिया, और सिद्धांतों की आवाज़ सुनी कि आज़ाद रहने दो, घूमने दो इस सफेद फरिश्ते को। कभी चावल को कटोरी में परोसकर उसके सामने रख आता, तो कभी दूध की प्याली उसके नन्हें पंजों के बीच सटाकर रख देता। कई दिन हो गए, अब वह मेरा दोस्त बन चुका था। ’चिन्नू’ नाम की तो जैसे उसे आदत हो गई थी। मैं स्कूल के लिए तैयार होता, तो वह झट से कूदकर मेरी शर्ट की उसी जेब में आ बैठता, जिसमें वह पहली बार आया था। नाश्ते के कुछ दाने जब तक उसे न देता, मेरे हाथों में पंजे मारता रहता। स्कूल से लौटकर जब मैं खाना खाने बैठता, तब ही उसे भी भूख लगती थी। हम अपनी थाली के कुछ निवाले उसकी प्याली में रखते थे, और दोनों साथ ही ’पेटपूजा’ किया करते थे। महीने बीत गए, उसे कमरे में बंद करने का सिलसिला चलता रहा।
चिन्नू मेरे घर के हर रास्ते से अंजान था। वह भले ही बड़े से कमरे में था, पर बाहरी दुनिया से पूरी तरह बेखबर। उसे तो पता भी नहीं था, कि खुला छोड़ देने पर वह अपने से ताकतवर जानवरों का शिकार बन सकता है। एक दिन अचानक मां से उसके कमरे का दरवाज़ा खुला रह गया। चिन्नू रूमाल में लिपड़ा चावल के दाने कुरमुरा रहा था। पिता जी ने पिंजड़े में रखने की बात शायद इसी दिन के लिए कही थी। सरसराते हुए बिल्ली अंदर आई, और उस मासूम चिन्नू को दबोचकर न जाने कहां ले गई। चिन्नू ने ज़रूर उन हाथों को याद किया होगा, जो उसे दुलारते थे, खिलाते थे, पिलाते थे। जिसने उसे नई जि़न्दगी दी थी, जिसने उसे पिंजड़े में रखने की मुखाल्फत की थी। घर लौटकर मां का चेहरा कुछ उतरा सा था, पर मुझे अंदाज़ा नहीं था कि इतना कुछ हो गया होगा।
आज चिन्नू नहीं है, करीब चार-पांच साल पहले फरवरी महीने में वह प्रकृति के चक्र का शिकार हो गया। उसे आज़ाद रखने की इच्छा ही काल बन गई। आज जब भी कोई आज़ादी को जन्नत या स्वर्ग कहता है, तो बड़ा अजीब लगता है। कैद कहीं-कहीं कितनी खुशनुमा होती है, जान तो कम से कम बचा ही लेती है। यदि चिन्नू किसी पिंजड़े में कैद होता, तो आज भी उन्हीं काली आंखों से मेरा और मेरे परिवार का मनोरंजन कर रहा होता, खेल रहा होता, फुंदक रहा होता। उसकी याद हमेशा रहेगी, पर एक कड़वा सच भी हमेशा कुरेदता रहेगा कि आज़ादी ही सबकुछ नहीं है। सुरक्षा और हिफाज़त आज भी सींखचों की मोताज है। आज़ादी और खुलेपन के साथ आज भी जोखिम का हौवा है, जो मौका लगने पर किसी भी हद तक नुकसान पहुंचा सकता है। चिन्नू जैसे कई मासूमों बेज़ुबानों को हम भले ही आज़ादी से जीने का मौका दें, पर वही आज़ादी जब उनकी जान ले ले, तब जि़म्मेदारी किस पर आती है ...? मुझ पर, मेरे इरादों पर, उन उसूलों और सिद्धांतों पर या फिर खुद प्रकृति पर .....? आप ही बताएं .....!