Thursday 3 October 2013

मद्रास कैफे का अपना सच


हर किसी का अपना सच होता है! मद्रास कैफे का भी है। अभिनय का सच, कहानी का सच और इतिहास की खुरदरी सच्चाइ का सच। निर्देशक सुजीत सरकार की उंगलियों से बंधे कलाकार कठपुतलियों की तरह फिल्म में कदम रखते हैं और क्लाइमैक्स तक इतने जीवंत हो जाते हैं कि फिल्म, फिल्म नहीं लगती। श्रीलंकाइ तमिलों की तसवीरें देखकर कैमरे के मशीन होने पर शक होने लगता है। सिविल वार शब्द सुनने में जितना सहज लगता है, खुद में उतनी ही असहजता और दर्द समेटे हुए है। 
फिल्म चर्च से शुरु होकर चर्च पर ही खत्म होती है, पर इस बीच सरकार और खुफिया एजेंसियों के बीच बुना-उधड़ा-सुलझा जाल दर्शकों को बांधे रखता है। कलाकारों को नाम और किरदार निभाने को क्या कहा गया, वे तो गज़ब की वास्तविकता पहन बैठे हैं ! पुलिस अधिकारियों व रा के चुस्त कर्मचारियों के किरदारों ने फिल्म के सुस्त पहलुओं में भी जान फूंक दी हैं। 
आखिर तक नरगिस फाख़री, जान इब्राहिम, राशी का काम फिल्म को उपर उठाए रखता है। जिन दर्शकों के साथ उनकी पत्नी या महिला-मित्र गइ होंगी, उनकी आंखों में भावुकता के आंसू ज़रूर छलक उठे होंगे। नौकरी के लिए पत्नी से सालों दूर रहना और नफरत पैदा ना होने देना, एक पति के लिए बेहद समर्पण और हिम्मत का काम है। पत्नी से उसकी भलार्इ के लिए झूठ बोलकर नायक नौकरी करने चला तो जाता है, पर इसकी कीमत उसे अपना सबकुछ खोकर चुकानी पड़ती है। 
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या इतनी सफाइ से व संभलकर दिखार्इ गइ है कि कंट्रोवर्सी की दूर-दूर तक गुजांइश न रहे। हर पहलू को फिल्म शुरु व खत्म होने पर साफ-साफ शब्दों में सबटाइटल दे दिए गए हैं। सौ शब्दों की एक बात यह भी कि भारत के कलाकार अब इंडिया-टाइप फिल्में देने लगे हैं। बालीवुड में बदलाव की यह बिलबिलाहट उसे जल्द ही बेशुमार शोहरत और इज्ज़त दिलाने वाली है। 

No comments:

Post a Comment