Friday 2 August 2013


खेत बनाम ख्वाहिशें



ज़ाहिर है, खेती की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है, पर भूमि का भवनों में बदलना लगातार ज़ारी है, जिससे एक बड़े नुकसान की तस्वीर नजर आने लगी है। कहीं ऐसा ना हो कि कल हम अपने मकानों पर खड़े होकर विदेशियों से यह नारा लगाएं कि ’तुम मुझे फूड दो, मैं तुम्हें फ्लैट दूंगा।  

थोड़ा मुश्किल है कि आपके पास दौलत भी हो, दिल भी हो और दिमाग भी। जरूरतें पूरी करने के लिए हमारे पास जिद है और पेट भरने के लिए प्रकृति को नोंचने की आदतें। आस-पास फैली हरियाली हमें बीहड़ लगने लगी है। खेत-खलिहान हमारी ख्वाहिशों को खरोंचने लगे हैं। वे ख्वाहिशें, जिनसे हम एक ही बार में रईसी का रायता पी जाना चाहते हैं, वे ख्वाहिशें जो हमें अपने अमूल्य खेतों केा प्लॉट बनाने के लिए मजबूर कर रहीं हैं। खाली ज़मीन पर खेती की सौगात अब खैरात बन चुकी है। प्रॉपर्टी डीलिंग नाम के राक्षस ने हमारे खेतों को निगलना शुरु कर दिया है। अब तो वह गाना सुनकर हैरानी महसूस होती है कि मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती। कुछ साल तक यदि एग्रीकल्चर के पहियों पर प्रॉपर्टी डीलिंग का रथ सवार रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब हमें  दूसरे देशों से खेत और खेती की आउटसोर्सिंग करनी पड़ेगी। विदेशों में मकान गिराकर खेत बनाए जाएंगे और हम अपने अमूल्य खेतों पर अफसोस के आशियाने खड़े करते रहेंगे। 
 हर कीमत पर ज़मीन हासिल करने की होड़ ने वाकई यह चिंता पैदा कर दी है कि गरीब किसानों-मजदूरों की ज़मीनों पर फैक्ट्रियों, भवनों, होटलों के मन-माफिक निर्माण से हम विकास का कौन सा बीज बो रहे हैं। तथाकथित विकसित राज्य गुजरात की ही बात करें तो बीते साल गुजरात सरकार ने अमरीकी कंपनी फोर्ड को 460 एकड़ भूमि लीज़ पर दे दी। यहां के किसानों-मजदूरों की रोजी-रोटी कंपनी और उसकी भर्तियों के भरोसे छोड़ दी गई। कृषि मंत्रालय के पिछले कुछ साल के आंकड़ों में खेतों की संख्या और स्थिति लगातार बदतर हो रही है। खेती के लिए प्रयोग होने वाली भूमि का प्रतिशत गिर रहा है, किसानों की दिशा और दशा भी तेजी से लड़खड़ा रही है। उन्हें अपने खेतों के बदले कम या बेहद कम रकम पा कर कर बिल्डरों से समझौंते करने पड़ रहे हैं। ज़ाहिर है लाचारी और लालच की इस जंग में जीत उद्योगपतियों व स्थानीय प्रशासन की ही हो रही है। अगर घाटे में कोई है, तो हमारे किसान और उनके परिवार। 
आंकड़ों की अंगड़ाई बयां करती है कि 1988-89 में खेती के लिए 185.142 मिलियन हैक्टेयर ज़मीन प्रयोग हो रही थी। जो 2008-09 में घटकर 182.385 मि.है. रह गई। दो प्रतिशत की इस भयावह गिरावट के कई मायने हैं, जिनका परिणाम, हमारे किसानों, फसलों व खेती के तमाम पहलुओं पर पड़ा है। आयात-निर्यात का घाटा-मुनाफा भी इससे अछूता नहीं है। फलों-सब्जियों के आसमान छू रहे दामों के लिए भी यही गिरावट अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। खाद्यान्न की पैदावारी में हो रही अनियमितता ने खाद्य सामग्री को हमारे बजट से बाहर ला खड़ा किया है। भण्डहारण और बिक्री की समुचित व सख्त व्यवस्था ना होने से हमारी उपज पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है। 
बात अगर खेती से मिल रहे रोजगार की करें, तो आंकड़े कुछ राहत ज़रूर पहुंचा रहे हैं। 2001 की सेंसस के मुताबिक देश के 402 मिलियन कामगार में से 58.02 प्रतिशत  जनसंख्या खेती से अपना व परिवार का पेट भर रही थी। यह आंकड़ा अब कुछ और बढ़ा है। ज़ाहिर है, खेती की तरफ लोगों का रुझान बढ़ा है, पर भूमि का भवनों में बदलना लगातार ज़ारी है, जिससे एक बड़े नुकसान की तस्वीर नजर आने लगी है। 
दरअसल समस्या की शुरुआत हमसे ही शुरु होकर हम पर ही खत्म होती है। एक विश्वस्त सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि सन 1800 के दौरान दुनिया की सिर्फ 3 फीसदी आबादी ही शहरी क्षेत्रों में रहा करती थी। 1900 में यह शहरी आंकड़ा 14 फीसदी हुआ। 1950 के आस-पास एक बड़ा बदलाव आया, जिसमें यह आकंड़ा 50-50 में बट गया। ज़ाहिर है, आज के दौर में हर कोइ आधुनिकता के आशियाने में कैद रहना चाहता है। धूल-मिट्टी से एयरकंडीशन तक के सफर में हमने अपने गांवों को अकेला छोड़ दिया और शहर की ओर दौड़ पड़े। लाखों की आबादी ने गांव की ज़मीनें बेंच कर, शहर में मकान खड़े कर लिए। गांव-शहर प्राथमिकता के परपंच में घिसटते रहे, और बिल्डरों व उद्योगपतियों के चहेते बनते गए। शहरों में छत्तों की तरह अबादी बढ़ रही है वहीं खेती के लिए प्रयोग होने वाली ज़मीन सिकुड़ रही है। 
खेतों को अपनी ख्वाहिशों के नीचे कुचलने का यह बदसूरत सिलसिला शुरु हो चुका है और हम इसे विकास की विरासत मान बैठे हैं। रोटी, कपड़ा और मकान की तिकड़ी में खेतों को नज़रंदाज कर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। रोटी चाहे चूल्हे की हो या होटलों-रेस्त्रां की चमचमाती पैकिंग-बंद, उसकी पैदाइश हमारे खेतों में ही होती है। हां यह ज़रूर संभव है कि आज हम अपना अन्न, अपने ही देश से पैदा कर रहे हैं, कल को हमें किसी और देश पर निर्भर होना पड़ जाए। अभी वक्त ने अपने दरवाजे बंद नहीं किए हैं। ठान लिया जाए तो प्राॅपर्टी डीलिंग के इस राक्षस को काबू में किया जा सकता है। संभलने के लिए सही वक्त और सही कदम की जरूरत पड़ती है। कहीं ऐसा ना हो कि कल हम अपने मकानों पर खड़े होकर विदेशियों से यह नारा लगाएं कि ’तुम मुझे फूड दो, मैं तुम्हें फलैट दूंगा।  

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