Sunday 9 June 2013

रात को जश्न , दिन में समझौते


’’ज़माना और जज़्बात दो अलग बातें हैं। संगीत की सरगम, बैंड-बाजे वाले भी बजाया करते हैं, पर अफसोस, वे महज़ लोगों के दिल ही जीतते हैं, दौलत और शोहरत नहीं ! काश ! संगीत और उसके रखवालों की नज़र रफीक चचा जैसे कलाकारों पर भी पड़ी होती ’’!

’’संगीत कानों से होकर दिल का रास्ता पकड़ लेता है। मुश्किलों और उलझनों की तपन पर सुकून और आनंद के छींटे उछालकर हमें शांति और सुकून की खूबसूरत दुनिया में ले जाता है।’’ अक्सर हम संगीत, उसकी सादगी और उसके चमत्कारों की कहावतों में जीते आए हैं। ’सा, रे, गा, मा, पा, धुनों से सजे और लय-ताल से संवरे संगीत को न सिर्फ वाहवाही मिली, दुनिया और दिग्गजों ने भी उसे सिर-आंखों पर बिठाया। अफसोस कि कलाकारों की मुट्ठीभर भीड़ जिसने संगीत और समाज को एक धागे में पिरोया, आज गुमनाम है, बदनाम है, और बदसूरत भी। शादी के तमाम जोड़ों ने जिस संगीत के साथ अपनी हसीं दुनिया बसा ली, उन ’संगीतकारों’ की जि़ंदगियां, रात के अंधेरे में तो रोशन रही, पर दिन के उजाले में समझौते और समाज ने उन्हें अंधेरों में ही रखा। आज बात उन बैंड-बाजे बजाने वालों, और व्याह-बारात के गला-फाड़ गायकों की। संगीत और उसकी दुनिया में उनकी हनक और हिम्मत की भी कद्र होनी चाहिए थी। शायद हमने ही उन्हें चंद रुपयों में चिल्लाने और रईस बारातियों के हाथों, नोट छीनने वाला समझकर इग्नोर कर दिया। इग्नोर तक तो ठीक था, पर क्या संगीत और उसके रखवालों ने उनका हाल-चाल  तक पूछा ..? ठीक रफीक चचा और उनकी जि़ंदगी की तरह ! 
रफीक चचा का बचपन दरवाजे पर उंगलियां ठोंकते और एकांत में गुनगुनाते हुए गुज़रा था। परिवार में अब्बू, अम्मी और चार बड़े भाई-बहन थे। कारोबार के नाम पर अब्बू की 10 बाइ 13 की छोटी सी दुकान थी, जिसमें अक्सर सामानों का ढेर और ग्राहकों का सूनापन बना रहता था। उम्र जैसे-जैसे बढ़ रही थी, महंगाई की मार भी तेज़ हो चली थी। बेटियों की शादी के बाद दुकान बिक गई, और बेटा दूर शहर में नौकरी करने चला गया, जो वहीं का होकर रह गया। परिवार की जि़म्मेदारी और गायकी का सुरूर दोनों अब रफीक के कंधों पर थे। पिताजी से छिपकर रफीक ने पास कसबे में एक ढोलक-मास्टर से संपर्क साधा। ढोलक मास्टर, ढोलक के साथ सुर और लय के भी पक्के थे। रफीक का जुनून और लगन देखकर वे झट से सिखाने को राजी हो गए। जल्द ही रफीक संगीत और उसकी तानों में खूब जम-रम गया। तब रेडियो पर मुकेश-रफी साहब को सुनकर उसका दिन शुरु हुआ करता था और गजलों की शाम के साथ अकेलीं वीरान रातों की विदाई।
वक्त अब सोचने-विचारने का नहीं, कदम उठाने का आ चुका था। रफीक ने पिताजी से सहमते हुए अपनी मर्जी और मर्ज़ बताया। पिता जी झल्ला पड़े। उसे घर से बाहर निकाल दिया गया। संघर्ष और भविष्य दोनों धरती के दो किनारों की तरह हैं, जिन्हें पकड़ने के लिए मेहनत, लगन और गज़ब का जुनून चाहिए। बातों और जज्बातों से सफलता मिल रही होती, तो शायद आज कोई असफल या परेशान ना होता। रफीक कई दिनों भूखा रहा, पर संगीत की तड़प पेट की भूख पर अब भी भारी थी। तभी उसे पास की सड़क से एक बारात गुज़रती दिखाई दी। रफीक ज़रा करीब से उस भीड़ में शामिल हो गया। कुछ देर बाद अचानक बैंड में गा रहे गायक का गला खराब हो गया, और नाचने को बेताब बाराती बैंड-मास्टर पर बरस पड़े। रफीक ने दौड़कर माइक झपट लिया और खाली पेट-सच्चे दिल से गाना शुरु कर दिया। बारातियों का उत्साह बढ़ गया, वे फिर जमकर सड़क पर लोटने-थिरकने लगे। बैंडमास्टर का दिल रफीक की गायिकी पर आ चुका था। उसे 40 रुपए रोज़ पर नौकरी मिल गई। 
नौकरी के लगभग 20 साल गुज़र चुके हैं। आज आधुनिकता के काले बादलों ने सादगी और सुकून की शानदार धूप ढक ली है। बैंडबाज़ा वाले और संगीत अब भी दो घड़ों की तरह अलग रखे हैं। रफीक केा अब लोग चचा कहकर बुलाने लगे हैं। पिछले दिनों उन्हें गांव की पुरानी सड़क पर लाल-काली बैंड-ड्रेस में देखा था। वे कभी-कभार ढोल भी बजाते हैं। अपने कांपते हाथों से ढोल पर दमदार थाप मारकर वे हुड़दंगियों-बारातियों को तो खुश कर लेते हैं, पर सुबह जब बात घर चलाने और जि़ंदगी गुज़ारने की आती है, तो इस कमर-तोड़ महंगाई में उनका ही बैंड बजने लगता है। 
100 रुपए रोज़ कमाकर, वे रातभर जश्न और जलबों की नुमाइश तो करते हैं, पर सुबह अपने और परिवार के लिए संघर्षों और समाज की कहावतों को कोसने लगते हैं। उनका छोटा बेटा बाहर चला गया है, पत्नी और बहू के साथ अब उनका हुनर ही है, जो कभी कुछ कम तो कभी भरपेट खाने का जुगाड़ करवा देता है। कुछ फायदों की बात जोड़ दी जाए, तो इस आधुनिक युग ने उन पर कुछ ऐहसान ज़रूर लाद दिए हैं, जैसे: बारातियों का बारात में नोट उछालना, टिप देना वगैरह। चचा, गाना गाते हुए, ढोल बजाते हुए, सड़कों पर गिरी हरी पत्तियां उठा लिया करते हैं। कभी-कभार तो गांववाले उन्हें भिखारी, मांगने वाला, नीयतखोर कहकर ठहाका भी मारते हैं, पर चचा को किसी से कोई शिकायत नहीं है।  
परिवार और पेट के सामने पैसे की सनक भी जायज़ और ज़रूरी हो जाया करती है। चचा अब किससे कहें, या कौन अब चचा को समझाए कि वे घूम-फिरकर ही सही, पर हैं, संगीत का हिस्सा ही। वह संगीत जो दो अजनबियों को बंधन में बांधने का ज़रिया रहा है, वह संगीत जिसने धूम-धाम से एक बेटी को विदा किया, वह संगीत जिसे सुनकर नई-नवेली दुल्हन के दिल के तार बज उठते हैं। काश ! संगीत और उसकी धरोहरों ने रफीक चचा जैसे संगीतकारों का भी ज़रा ख्याल रख लिया होता ! उनकी गायिकी भले ही सुर, लय, ताल से बंधी और सजी नहीं थी, पर उनके संघर्षों में शिददत और शराफत का ज़बर्दस्त घालमेल था। माना कि वे संगीत और संगीतकारों की चमचमाती कालीन पर कदम नहीं रख पाए, पर दिल जीतने वालों में उनकी गिनती आज भी है। 
जज़्बातों और वाहवाही से घर के खर्च नहीं चलते। समाज के सिरहाने पर बातें, ठहाके और हुल्लड़पन तो है, पर मदद और दिलासों का आज भी सूखा है। रात में घंटों गला फाड़ने के बदले लोग तो नाच कर खुशियां अपनी जेबों में भर ले जाते हैं, पर जब रफीक चचा जैसे सैकड़ों बैंड-बाजे वाले लुटाये गए नोट अपनी जेबों में भरने चलते हैं, तो उन्हें शारीरिक चोट ही नहीं मानसिक ज़ख्म भी झेलने पड़ते हैं। शायद संगीत और उसकी दीवानगी ने इन बैंड-बाजा कलाकारेां को ऐसे घाव दे दिए हैं, जिन्हें अब कद्र, प्यार और सच्चे दिलासों से ही भरा जा सकता है। रफीक चचा ! आप संगीतकार भले ही न कहे जाएं, पर गज़ब के कलाकार हैं, जो रात को जश्न और दिन में समझौते करते हुए अपनी बची हुई जि़ंदगी गुज़ार रहे हैं !

प्रिय पाठकों ! माफ कीजिएगा ! आपको अपनी कलम से एकतरफा और वायस्ड लेख दे रहा हूं ! 


Saturday 8 June 2013

मुसाफिर का पत्र मंजिल के नाम 

प्रिय बॉलीवुड, 

              करोड़ों-अरबों का टर्नओवर और स्टार्डम-ग्लेमर के थिंक टैंक हो तुम ! तुम्हारी ज़मीं चमचमाते खरा सोना है, पर किसी के लिए शान-ओ-शौकत तो किसी के लिए तपता हुआ लोहा भी है! मुझे याद है जब पहली बार बड़े परदे पर चकाचैंध को चूमती नायक-नायिकाएं मेरी आंखों को बेहद पसंद आईं थीं। तब समाज और परिवार की ना-नुकर और भों-सिकुड़ के बावज़ूद मैं तुम्हारी दुनिया में बिना टिकट घुस आई थी। समाज में तन ढकने की धक्कममपेल है, और तुम्हारी दुनिया में खुले बदन की खस्ताहाल ख्वाहिशें ! मेरे जैसी न जाने कितनी स्ट्रगलर्स तुम्हें खुद में समेंट लेने को बेताब थीं ! सौ-करोड़ी क्लब भी बनने लगे थे, और तुम्हारा टर्न-ओवर गैस के भारी-भरकम गुब्बारे की तरह बढ़ता ही जा रहा था। अभिनय और कलाकारी से कहीं बढ़कर फिगर और फेस की बादशाहत सिर उठाने लगी थी। 
शुरुआती दौर में किराये के कमरे में कैद रहना, क्रीम-पाउडर खुद करना और बड़े दाम के छोटे कपड़े पहनना हम स्ट्रगलर हीरोइनों की मानो पहचान सी बन गई है। बंबइया अखबारों-मैग्जीनों में आॅडीशन के लिए दिए गए फोन नंबरों पर घंटों लबरियाते हुए खीझ सी होने लगती थी। कभी-कभार किसी से अप्वाइंटमेंट भी मिलता था। ऑटो-रिक्शे भी रकम में रियायत नहीं करते थे, आखिर वे भी तो स्ट्रगलर-स्टार ही हैं ! ऑडीशन-वेन्यू का दरवाज़ा सजा हुआ करता था, अंदर बंद शीशे और सेंट्रल ए.सी. की ठंडक में भी हवस की गर्मी सी बनी रहती थी। कुछ इंटरवयू लेने वालों की नज़रें पैरों से होती हुईं, पूरा जिस्म ताकतीं, फिर मुंह बनाकर कह देतीं - फेसकट अच्छा नहीं है, अभिनय का अनुभव नहीं है, वो बात नहीं है, ये बात नहीं है! वगैरह-वगैरह ! 
आखिरकार एक दिन तुमने मुझपर एहसान कर ही दिया। तब मुझे ये मेरी जि़ंदगी का सबसे बड़ा चमत्कार ही लगा। सदी के महानायक के साथ काम करने का ऑफर मिला।  सुकून भी उस अजनबी मेहमान की तरह हैं, जो घंटों पड़ोस वाली गली में भटकता रहता है और अचानक उसे कोई सही रास्ता, सही घर, और सही शख्स तक पहुंचा देता है ! अब मन इतना खुश था कि इसे फिक्र ही नहीं थी कि जि़ंदगी महज़ एकाध फिल्मों की किताब नहीं ! पहली ही फिल्म के सहारे बॉलीवुड पर सवार होने की ललक और दरवाज़े पर स्टार्डम की दस्तक सुनाई देने लगी थी। जैसे-तैसे फिल्म पूरी हुई, लोगों के लबों पे मेरा नाम चढ़ने लगा ! मीडिया और फिल्म क्रिटिकों ने मेरे अभिनय की तारीफें कीं, पर अभी भी कुछ बाकी था ! शायद बहुत कुछ ! फिर कारवां चल निकला था। आगे चलकर दो बड़े स्टारों के साथ काम करने का हसीं मौका भी हाथ लगा ! 
फिर अचानक सफलता की फुलवारी में वीरानी सी छाने लगी ! कई हीरोइनें सौ करोड़ी क्लब और लव-अफेयर्स की बदौलत मीडिया के मुंह लगीं रहीं। मैंने सादगी और मेहनत को ही अपना भगवान माना था। मुझे क्या पता, कि 120 करोड़ की आबादी में अपनी पहुंच बनाये रखने के लिए अफेयर्स और पार्टी-मटरगस्ती भी बेहद ज़रूरी है। मैंने नायकों को को-स्टार का दर्जा दिया और फिल्मों को अपने शौक और प्रोफेशन का ! शायद मेरा ज़मीर भी इसी में खुश था। पर खुशी और खुशकिस्मती दो अलग बातें हैं। निर्माता-निर्देशकों ने मेरे अभिनय और जुनून को इग्नोर कर दिया! दरअसल स्टार्डम और ग्लेमर की गाली-गलौज से मुझे परहेज़ था और न जाने क्यूं सादगी और शराफत का पंक्षी ज़ीरो-फिगर और सेक्ससिंबल के पिंजड़े में कैद नहीं हो सका ! 
आज बात और जज़्बात सबकुछ मुझसे कहीं दूर चले गए है !तुम्हारी शर्त, तुम्हारे इरादे, तुम्हारे गाइडेंस से अब मैं थक सी गई हूं ! ग्लेमर की गांधीगीरी और शोहरत की शैतानियां अब मुझे जीने से रोक रहीं हैं ! तुम्हारा टर्नओवर कई गुणा बढ़ता रहे, मेरे जैसी सभी सफल, कम सफल या बेहद कम सफल हीरोइनों से मेरी गुज़ारिश है कि कपड़े भले ही छोटे कर लें, पर मेरी तरह अपना दिल छोटा न करें ! वाहवाही और पाॅजिटिव समीक्षाओं से जि़ंदगी की फिल्म सफल नहीं होती ! दिल और दामन के पर्दे अभी उतने बड़े और स्टारछाप नहीं हुए हैं, कि इसमें हर ज़ख्म, हर दर्द, फिल्मों की तरह हैप्पी एंडिंग होता चला जाए ! आज अपनों से दूर और दुश्मनों से छुटकारा पाकर एक नई फिल्म का आइडिया छोड़ कर जा रही हूं ! पता नहीं फिल्म क्रिटिक्स इसे कितने स्टार देंगे .......? 
- जि़ंदादिल जिया खान !